द वायर के संपादकों पर छापे, उपकरण जब्त करने का मक़सद क्या?
द वायर के ख़िलाफ़ कार्रवाई का मामला अजीब है। कह सकते हैं कि मेटा पर द वायर की रिपोर्ट भी अजीब थी। लेकिन मीडिया संस्थान ने अपनी ग़लती मानी, माफ़ी भी मांगी और फिर उन स्टोरी को वापस लिया। द वायर ने उस रिपोर्ट को तैयार करने वाले और कथित तौर पर साक्ष्यों से छेड़छाड़ करने वाले शोधकर्ता देवेश कुमार के ख़िलाफ़ केस भी दर्ज कराया। तो फिर सवाल है कि जब मीडिया संस्थान ने अपनी ग़लती मान ली तो फिर पुलिस ने अचानक छापे क्यों मारे? द वायर के संपादकों के मोबाइल, आईपैड, लैपटॉप जैसे उपकरणों को जब्त क्यों किया गया? क्या इसके लिए नियमों का पालन किया गया? सवाल यह भी है कि उस रिपोर्ट को तैयार करने में तकनीकी मदद करने वाले और साक्ष्यों से छड़छाड़ करने के आरोपी के उपकरण क्यों नहीं जब्त किए गए?
द वायर के संपादकों के मोबाइल, आईपैड, लैपटॉप जैसे जो उपकरण जब्त किए गए हैं क्या उससे उनके सूत्रों की पहचान का खुलासा होने का ख़तरा नहीं है? क्या न्यूज़ वेबसाइट की खोजी पत्रकारिता और उनकी रिपोर्टों पर असर नहीं पड़ेगा? ये सवाल इसलिए कि द वायर उस कंसोर्टियम का हिस्सा है जिसने पेगासस जैसे मामलों में जाँच रिपोर्ट प्रकाशित की। पेगासस एक सैन्य-ग्रेड स्नूपिंग सॉफ़्टवेयर है जिसका कथित तौर पर सरकार द्वारा विरोधियों की जासूसी करने के लिए उपयोग किया जाता है।
दरअसल, ये सवाल द वायर पर पुलिस की कार्रवाई के बाद क़ानूनी मामलों और तकनीकी मामलों के विशेषज्ञ उठा रहे हैं। विशेषज्ञ क्या सवाल उठा रहे हैं, यह जानने से पहले पूरे मामले को जान लीजिए।
अमित मालवीय ने शुक्रवार को द वायर, वरदराजन और संपादकों- सिद्धार्थ भाटिया, वेणु और जाह्नवी सेन के ख़िलाफ़ विशेष पुलिस आयुक्त (अपराध) को शिकायत सौंपी थी। इसके बाद शनिवार को उन पत्रकारों पर धोखाधड़ी, जालसाजी और 'फर्जी रिपोर्ट' प्रकाशित करने का आरोप लगाया गया। इसके अलावा मानहानि, आपराधिक साजिश जैसे आरोप भी लगाए गए हैं। सोमवार को छापे की कार्रवाई भी कर दी गई।
ऐसा तब है जब टेक कंपनी मेटा से जुड़ी उस रिपोर्ट को द वायर ने अपनी वेबसाइट से हटा लिया है। उस रिपोर्ट पर कई सवाल खड़े हुए थे। द वायर ने 29 अक्टूबर को अपने शोधकर्ता देवेश कुमार के ख़िलाफ़ एक पुलिस शिकायत दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 'द वायर और इसकी प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुँचाने के लिए दस्तावेजों, ईमेल और अन्य सामग्री जैसे वीडियो को गढ़ा और इसकी आपूर्ति की थी'।
मालवीय ने कहा कि मेटा द्वारा साफ़ तौर पर इनकार करने के बावजूद कि रिपोर्ट में फर्जी दस्तावेजों का हवाला दिया गया था, द वायर ने फॉलो-अप रिपोर्टें प्रकाशित कीं। इसके बाद दिल्ली पुलिस ने 31 अक्टूबर को द वायर के संस्थापक संपादकों और वरिष्ठ संपादकों के घरों, कार्यालय की तलाशी और उपकरण जब्त करने की कार्रवाई की।
बहरहाल इस कार्रवाई पर क़ानूनी विशेषज्ञों ने कहा है कि दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई में जल्दबाजी की। यह बेहद अप्रत्याशित है और इसी तरह के अन्य मामलों में आधिकारिक कार्रवाई के उलट है।
ऑनलाइन न्यूज़ वेबसाइट स्क्रॉल ने क़ानूनी विशेषज्ञों के आधार पर रिपोर्ट दी है। जब्ती की यह कार्रवाई दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 91 के तहत भेजे गए नोटिस के तहत की गई थी। यह धारा पुलिस को किसी व्यक्ति को जाँच के लिए आवश्यक सामग्री पेश करने के लिए समन जारी करने की अनुमति देती है।
इसके अलावा कहा गया है कि धोखाधड़ी और मानहानि मामले में जाँच और उपकरणों की जब्ती के बीच कोई संबंध नहीं है। स्क्रॉल की रिपोर्ट के अनुसार क्रिमिनल लॉयर शाहरुख आलम ने पूछा, 'जाँचकर्ता क्या खोजने की उम्मीद कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में जहाँ संपादक स्वीकार कर रहे हैं कि ईमेल से छेड़छाड़ की गई थी और उस ईमेल के आधार पर अपनी रिपोर्ट वापस ले ली है?' उन्होंने कहा, 'मेरे विचार से यह निजता का एक बहुत ही गंभीर उल्लंघन है।'
आलम ने कहा कि चूँकि द वायर ने ग़लती मान ली है उसके द्वारा पहले ही दिए गए स्पष्टीकरण की जांच की जा सकती है। उन्होंने कहा, 'स्पष्टीकरण पर कुछ किए बिना, आप बिना किसी साफ़ वजह के इसे बायपास करते हैं और सभी उपकरणों को देखने के लिए पहुँचते हैं।'
वकीलों ने यह भी सवाल किया कि पुलिस ने देवेश कुमार के उपकरणों को जब्त क्यों नहीं किया, जिन पर द वायर का आरोप है कि जिन सामग्री पर ये लेख आधारित थे, उससे उन्होंने छेड़छाड़ की थी?
वकील वृंदा ग्रोवर ने पूछा कि मालवीय ने अपनी शिकायत में देवेश कुमार का नाम क्यों नहीं लिया, जबकि द वायर उनसे 'कह रहा है कि उन्हें गुमराह और धोखा दिया गया है'। उन्होंने पूछा, 'क्राइम ब्रांच ने कुमार को नोटिस कैसे जारी नहीं किया?'
वकीलों ने धारा 91 के नोटिस के अनुसार उपकरणों को जब्त करने की भी आलोचना की। इस धारा के तहत नोटिस में यह बताना होता है कि कौन से दस्तावेज और उपकरणों की आवश्यकता है।
ग्रोवर ने कहा कि पत्रकारों के मामले में यह और भी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा, 'चूँकि उनके उपकरण बड़ी संख्या में रिपोर्टों से संबंधित बहुत सारे संवेदनशील डेटा और सामग्री को जुटाने वाले होते हैं, राज्य की एजेंसियाँ ऐसी सामग्री तक पहुँच बनाने में रुचि रखती हैं।'
ग्रोवर ने कहा किया कि द वायर उस संघ का हिस्सा था जिसने पेगासस पर एक जांच प्रकाशित की थी। ऐसी खोजी पत्रकारिता करने वाले मीडियाकर्मियों की संवेदनशील जानकारी तक पहुँच का असर ख़राब हो सकता है।
इसके अलावा, कंप्यूटर, आईपैड और फोन को जब्त करने के बाद पुलिस को उनके मालिकों को उपकरणों का 'हैश वैल्यू' भी देना चाहिए था। हैश वैल्यू एक यूनिक संख्या है जिसका उपयोग यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि किसी उपकरण और उसके डेटा के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाए। ग्रोवर ने कहा, 'अगर पुलिस ने हैश वैल्यू दिए बिना इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को जब्त कर लिया है तो इलेक्ट्रॉनिक डेटा और डिवाइस से पुलिस के कब्जे में छेड़छाड़ और हेरफेर की जा सकती है।'
उन्होंने कहा, 'यह बेहद दिलचस्प है कि दिल्ली पुलिस बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों के साथ आती है, लेकिन हैश वैल्यू निकालने और देने के लिए तकनीकी विशेषज्ञ के साथ नहीं।'
क़ानूनी जानकारों का कहना है कि अन्य मामलों में पुलिस शायद ही कभी इतनी तेजी से कार्रवाई करती है। स्क्रॉल की रिपोर्ट के अनुसार वरिष्ठ अधिवक्ता संजय घोष ने कहा, 'यह साफ़ है कि पुलिस ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ की गई शिकायतों के बारे में इतनी तत्परता से काम नहीं करती है, जिनके पास सुरक्षा और ताक़त है।'
उन्होंने सवाल उठाया कि दिल्ली पुलिस ने बीजेपी से जुड़ी रही नूपुर शर्मा जैसे मामलों में इस तरह की जाँच नहीं की थी। शर्मा ने मई में कथित रूप से धार्मिक रूप से भड़काऊ टिप्पणी की थी। घोष ने कहा, 'जब मोहम्मद जुबैर या वरदराजन जैसे लोगों की बात आती है, तो पुलिस जिस तत्परता के साथ काम करती है, उससे केवल यह आभास होता है कि भेदभाव होता है।’ बता दें कि मई में फ़ैक्ट-चेक वाली वेबसाइट ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक, जुबैर को अपने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को सौंपने के लिए कहा गया था। उनके कथित तौर पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाला एक ट्वीट करने के लिए इस्तेमाल किया गया था।