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सरकार बनाम न्यायपालिका: क़ानून मंत्री अब बोले- जज चुनकर नहीं आते

सरकार बनाम न्यायपालिका: क़ानून मंत्री अब बोले- जज चुनकर नहीं आते

क़ानून मंत्री आख़िर बार-बार जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल क्यों उठा रहे हैं? क्या यह न्यायपालिका और सरकार में सुप्रीमेसी का मामला है?

क़ानून मंत्री किरण रिजिजू ने यह कहकर न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर फिर से सवाल खड़े किये कि जजों को चुनाव का सामना नहीं करना पड़ता। वह हाल के दिनों में लगातार इस मुद्दे को उठाते रहे हैं। न्यायपालिका और सरकार के बीच न्यायाधीशों की नियुक्ति और संविधान के मूल ढाँचा के सिद्धांत को लेकर चले आ रहे टकराव के बीच रिजिजू का यह बयान काफ़ी अहम है।

रिजिजू ने दिल्ली बार एसोसिएशन के कार्यक्रम में कहा, 'जज बनने के बाद उन्हें चुनाव या जनता के सवालों का सामना नहीं करना पड़ता है... जजों, उनके फ़ैसलों और जिस तरह से वे न्याय देते हैं, और अपना आकलन करते हैं, उसे जनता देख रही है... सोशल मीडिया के इस युग में, कुछ भी नहीं छुपाया जा सकता है।'

केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कहा कि 1947 के बाद से कई बदलाव हुए हैं, इसलिए यह सोचना गलत होगा कि मौजूदा व्यवस्था जारी रहेगी और इस पर कभी सवाल नहीं उठाया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह बदलती स्थिति है, इसे ज़रूरतें निर्धारित करती हैं और यही कारण है कि संविधान को सौ से अधिक बार संशोधित करना पड़ा।

सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में एक बड़ी भूमिका की मांग कर रही है, यह तर्क देते हुए कि विधायिका सर्वोच्च है क्योंकि यह लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। क़रीब हफ़्ते भर पहले एक रिपोर्ट आई थी कि कानून मंत्री किरण रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र लिखा है जिसमें मांग की गई है कि जजों की नियुक्ति के मसले पर बनने वाली समिति में सरकार के प्रतिनिधि को शामिल किया जाना चाहिए। जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में केंद्र और संबंधित राज्य सरकार के प्रतिनिधि को शामिल किया जाए। पत्र में लिखा गया है कि यह पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही के लिए ज़रूरी है।

क़ानून मंत्री ने एक दिन पहले ही दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज के इंटरव्यू को ट्वीट किया है, 'एक जज की नेक आवाज: भारतीय लोकतंत्र की असली खूबसूरती इसकी सफलता है। जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से स्वयं शासन करती है। चुने हुए प्रतिनिधि लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं और कानून बनाते हैं। हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र है लेकिन हमारा संविधान सर्वोच्च है।'

केंद्रीय क़ानून मंत्री किरण रिजिजू दिल्ली हाई कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश की टिप्पणियों का हवाला दे रहे थे। दिल्ली के उच्च न्यायालय के रिटायर्ड न्यायाधीश आरएस सोढी ने लॉ स्ट्रीट यू-ट्यूब चैनल के साथ एक साक्षात्कार में कहा था, 'सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार संविधान का अपहरण कर लिया है। उन्होंने कहा है कि हम खुद न्यायाधीशों को नियुक्त करेंगे। सरकार की इसमें कोई भूमिका नहीं होगी।'

इस बीच भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने संविधान के मूल ढाँचा के सिद्धांत पर जोर दिया है। उन्होंने शनिवार को एक कार्यक्रम में इस सिद्धांत को 'नॉर्थ स्टार' जैसा बताया जो अमूल्य मार्गदर्शन देता है। उन्होंने कहा, 'हमारे संविधान की मूल संरचना, नॉर्थ स्टार की तरह है जो संविधान के व्याख्याकारों और कार्यान्वयन करने वालों को कुछ दिशा देता है।'

सीजेआई ने कहा कि 'हमारे संविधान की मूल संरचना या दर्शन संविधान के वर्चस्व, कानून के शासन, शक्तियों के पृथक्करण, न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, और राष्ट्र की एकता और अखंडता, स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा पर आधारित है।'

हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं। इसी महीने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका की तुलना में विधायिका की शक्तियों का मुद्दा उठाया था। उन्होंने संसद के कामों में सुप्रीम कोर्ट के 'हस्तक्षेप' पर नाराजगी जताई।

उन्होंने कहा था कि संसद कानून बनाती है और सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देता है। उन्होंने पूछा कि क्या संसद द्वारा बनाया गया कानून तभी कानून होगा जब उस पर कोर्ट की मुहर लगेगी।

उपराष्ट्रपति धनखड़ ने 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा था- 'क्या हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं', इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा। केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं।

धनखड़ ने कहा था कि 1973 में एक बहुत गलत परंपरा शुरू हुई। उन्होंने कहा कि 'केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने मूल संरचना का सिद्धांत दिया कि संसद संविधान संशोधन कर सकती है, लेकिन इसकी मूल संरचना को नहीं। कोर्ट को सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि इससे मैं सहमत नहीं।' 

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