अदालतों में आरक्षण क्यों चाहते हैं रविशंकर प्रसाद?
केंद्रीय क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद अब निचले स्तर की अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में भी आरक्षण की वकालत कर रहे हैं। लखनऊ में वकीलों की एक सभा में उन्होंने कहा कि निचले स्तर की अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति भी अखिल भारतीय परीक्षा से होनी चाहिए। ऐसा होने पर दलितों और आदिवासियों को अदालतों में भी आरक्षण का लाभ दिया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि अभी तक अदालतों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। निचले स्तर की अदालतों के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्य सरकारें करती हैं। हाल में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार और 2019 के लोकसभा चुनावों की सरगर्मी तेज़ होने के बाद प्रसाद का यह बयान अनायास नहीं है। पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी का गाय और राम मंदिर कार्ड बुरी तरह फ़ेल हो गया। छत्तीसगढ़ जहाँ क़रीब 31% आदिवासी आबादी है वहाँ तो बीजेपी का सफ़ाया हो गया। ऐसे में 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की नज़र दलित और आदिवासी मतदाताओं पर होना लाज़मी है।
आरक्षण पर संघ की राय
दलितों और आदिवासियों को लेकर बीजेपी और उसकी मातृ संस्था आरएसएस लगातार दुविधा में दिखाई देता है। एक ब्राह्मण नेतृत्व और ब्राह्मणवादी सोच पर आधारित आरएसएस आरक्षण का कभी समर्थन नहीं करता। 2015 में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। इस बयान पर काफ़ी बवाल हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के नेताओं ने भी साफ़ किया है कि उनका आरक्षण ख़त्म करने का कोई इरादा नहीं है।- संघ के नेता इस मामले में डॉ. आम्बेडकर के दिए एक भाषण को लगातार संदर्भ से काटकर दोहराते रहते हैं जिसमें डॉ. आम्बेडकर ने कहा था कि आरक्षण हमेशा के लिए नहीं हो सकता। जितना जल्दी हो इसकी ज़रूरत ख़त्म होनी चाहिए। संघ के नेता यह भूल जाते हैं कि डॉ आम्बेडकर यह भी चाहते थे कि आरक्षण के ज़रिए दलितों और आदिवासियों का सामाजिक और आर्थिक स्तर ऊपर उठे।
बीजेपी की क्या है दुविधा?
पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों से पहले संघ के प्रचार मंत्री मनमोहन वैद्य ने एक बार फिर आरक्षण पर सवाल उठाया है। संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने उस पर फिर सफ़ाई दी। आरएसएस का एक शक्तिशाली वर्ग हमेशा ही आरक्षण के ख़िलाफ़ रहा है। इसके चलते बीजेपी में भी दुविधा की स्थिति बनी रहती है। सबसे ज़्यादा लोक सभा सदस्यों को निर्वाचित करने वाले उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल तथा पंजाब जैसे राज्यों में दलितों की आबादी चुनावी रणनीति के हिसाब महत्वपूर्ण है।
- 2014 के मोदी लहर में दलितों का झुकाव बीजेपी की तरफ़ था इसलिए उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन किया और मायावती की बहुजन समाज पार्टी शून्य पर पहुँच गई। बाद में बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी से दलितों का मोहभंग साफ़ तौर पर सामने आया।
दलितों और बीजेपी में क्यों बढ़ रही दूरी?
पिछले कुछ वर्षों में दलितों और बीजेपी के बीच दूरी लगातार बढ़ती दिखाई दे रही है। और गोरक्षा के नाम पर अराजक गैंग की गाँव-गाँव में हिंसा इसका एक बड़ा कारण है। दलितों की कई जातियाँ जो चमड़े का काम करती हैं, ख़ास तौर पर क्षुब्ध हैं। आतंक के कारण उनका धंधा चौपट हो गया है और वे बेरोज़गार जैसी स्थिति में आ गए हैं। बीजेपी का स्वर्ण वोट बैंक आरक्षण ख़त्म करने की माँग लगातार करता रहता है। इसके चलते भी दलित डरे रहते हैं।
क्या दलित रीझेगा?
बीजेपी की ओर से दलितों को रिझाने की कोशिश कई बार पहले भी हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले के ज़रिए दलित उत्पीड़न के क़ानून को कुछ नरम बनाने की कोशिश की तो बीजेपी ने तुरंत संसद में बिल लाकर इस क़ानून की मज़बूती को क़ायम रखा। लेकिन बाद के विधानसभा चुनावों के नतीजे ये बताते हैं कि दलित बीजेपी के प्रति नरम नहीं हुए हैं। एक दलित को राष्ट्रपति का पद देकर भी बीजेपी ने भी दलितों को रिझाने की पूरी कोशिश की। लेकिन जातिवादी और सांप्रदायिक उन्माद में दलितों और आदिवासियों के साथ-साथ अन्य कमज़ोर वर्गों को भी सशंकित कर दिया।- एक नतीजा यह दिखाई दे रहा है कि दलित अपने पुराने गठजोड़ की तरफ़ लौट रहे हैं। उत्तरप्रदेश में मायावती फिर से मज़बूत होती दिखाई दे रही हैं। बिहार में जीतनराम माँझी जैसे दलित नेता एनडीए का खेमा छोड़कर कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल हो गए हैं।