हांडी में उत्तर प्रदेश की ‘कानून एवं व्यवस्था’
मुझे आशा है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पिछले कुछ समय पहले की घटनाओं को भूले तो नहीं होंगे। लेकिन जब भी वो उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था और महिला सुरक्षा पर खुद को शाबाशी दें, तब उन्हे उन्नाव बलात्कार मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की उस स्वतः संज्ञान टिप्पणी को जरूर याद कर लेना चाहिए; जिसमें न्यायालय ने कहा था “इस केस में विचलित करने वाली बात यह है कि कानून व्यवस्था की पूरी मशीनरी और सरकारी अधिकारी, इस अपराध के षड्यन्त्र में शामिल थे और कुलदीप सिंह सेंगर के सीधे प्रभाव में थे”।
उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था को हांडी में पक रहे चावल के दो दाने निकालकर देखना चाहिए ताकि यह पता चल सके कि प्रदेश में कानून व्यवस्था के नाम पर जीत का सपना देख रही बीजेपी सरकार के वास्तविक हालात क्या हैं।
मार्च 2017 में योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और सरकार बनने के 3 महीने बाद उन्नाव की बाँगरमऊ विधानसभा के भाजपा विधायक, कुलदीप सिंह सेंगर ने 4 जून 2017 को 16 साल की एक नाबालिग लड़की का बलात्कार किया।
दर-दर भटकने के बाद, जब मुख्य न्यायायिक मजिस्ट्रेट (CJM) ने CrPc156(3) पर सुनवाई शुरू की तो पीड़ित लड़की के पिता को फर्जी आर्म्स ऐक्ट में फँसाकर विधायक के भाई ने प्रशासन के सहयोग से उन्हें इतना पीटा कि पुलिस कस्टडी में उनकी मृत्यु हो गई। बलात्कार के लगभग 10 महीने बाद भी जब एफआईआर नहीं लिखी गई तो पीड़ित ने मुख्यमंत्री आवास के बाहर खुद को जलाने की कोशिश की।
बलात्कारियों का समर्थन
अप्रैल 2018 में ही कठुआ बलात्कार की निंदनीय घटना घट गई। कठुआ की घटना में भी कश्मीर के भाजपा के कई वरिष्ठ नेता बलात्कारियों के समर्थन में रैलियाँ करते दिखे। चारों तरफ से केंद्र व राज्य की बीजेपी सरकारें महिला सुरक्षा के मुद्दे पर घिर गईं। तब अप्रैल 2018 में उन्नाव की घटना के 10 महीने बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आलोचना का वक्त मिला और उन्होंने अप्रैल 2018 में इसकी निंदा की।
बीजेपी महिला मोर्चा की राष्ट्रीय महासचिव दीप्ति भारद्वाज इस मामले को लेकर अमित शाह से भी मिली लेकिन इन सबके बावजूद बीजेपी विधायक गिरफ़्तार नहीं हुआ। गिरफ़्तारी तब हुई जब उच्च न्यायालय ने संज्ञान लिया। उच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि कुलदीप सिंह सेंगर को पुलिस गिरफ़्तार करे। उच्च न्यायालय के कहने के बावजूद यूपी सरकार के ऐड्वोकेट जनरल ने कुलदीप सिंह सेंगर को गिरफ्तार न करने की जरूरत बताई। लेकिन न्यायालय सख़्त था और गिरफ़्तारी की गई।
अब सवाल ये उठता है कि क्या यही वो कानून व्यवस्था है जिसके नाम पर बीजेपी यह चुनाव जीतना चाहती है? मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री जैसे पदों पर आसीन लोगों तक इस अन्याय की गूंज पहुँचने के बावजूद, कुलदीप सिंह सेंगर के ख़िलाफ़ एक साल तक FIR नहीं हुई और 2 साल तक गिरफ़्तार नहीं किया गया। ये उस पार्टी की सरकार थी जो 17 साल बाद सत्ता में लौटी थी। इसके बावजूद इतना भीषण कुप्रशासन! ऐसी कानून व्यवस्था?
एक बलात्कार पीड़ित महिला को एक सत्ताधारी पार्टी के विधायक के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज करवानी थी तो उसे अपने पिता को खोना पड़ा। क्या इस अपराधी विधायक के बारे में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ नहीं जानते थे?
अगर उन्हे मुख्यमंत्री आवास पर आत्मदाह करने वाली महिला के दुःख और असहनीय पीड़ा का पता नहीं चल पाया तो मुख्यमंत्री उस नागरिक के साथ कैसे खड़े होंगे जो लखनऊ से और मुख्यमंत्री आवास से सैकड़ों किलोमीटर दूर, उत्तर प्रदेश की ‘कानून व्यवस्था’ का शिकार हो चुका/रहा है।
अभी बलात्कारी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर की गिरफ़्तारी के कुछ ही महीने हुए थे कि 14 सितंबर, 2020 को हाथरस में एक 19 वर्षीय दलित लड़की का चार लड़कों ने बलात्कार किया। जब तक उसकी चीख उसकी माँ के कानों तक पहुँच पाती लड़की बेसुध हो चुकी थी। तन पर कपड़े नहीं थे, रीढ़ की हड्डी में चोट से शरीर लकवा मार गया था और जीभ कट चुकी थी।प्रदेश की ‘कानून व्यवस्था’ पास के थाने में बैठी हुई थी। जब परिवार उस हालत में लड़की को लेकर थाने पहुँचा तो वहाँ की ‘कानून व्यवस्था’ ने बेइज़्ज़त करके पीड़ित सहित परिवार को भगा दिया। परिवार ने लकवाग्रस्त पीड़िता को जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज, अलीगढ़ में भर्ती कराया। जिले की ‘कानून व्यवस्था’ ने बलात्कार के 6 दिन बाद शिकायत दर्ज की और लगभग 8 दिन बाद उन्हे याद आया कि पीड़िता की फोरेंसिक जांच की जानी चाहिए।
लगातार संघर्ष के 15 दिनों बाद 29 सितंबर, 2020 को पीड़िता ने अस्पताल में दम तोड़ दिया। अभी भी मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अमित शाह की तरफ से कोई संज्ञान, नहीं आया। हमेशा की तरह सभी ने ‘रणनीतिक चुप्पी’ साध ली थी। 30 सितंबर रात 2 बजकर 30 मिनट पर प्रदेश की ‘कानून और व्यवस्था’ ने पीड़िता के शव को जबरदस्ती जला दिया। जल्दबाजी इतनी ज्यादा थी कि उचित तरीक़े से अंतिम संस्कार भी नहीं किया गया और इस दौरान पीड़ित के घरवालों को घर में ही बंद कर दिया गया। कुछ साहसी पत्रकारों ने कानून और व्यवस्था इस कुकृत्य को जब कैमरे में कैद कर लिया और बात देश विदेश तक पहुँचने लगी तब अगले दिन सुबह 30 सितंबर को पीएम मोदी को फिर घटना की निंदा करने की याद आई।‘कानून व्यवस्था’ द्वारा, संभवतया जानबूझकर, की गई इस लापरवाही का शोर पूरे प्रदेश में था लेकिन अभी प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जो हर चुनावी मंच पर कानून और व्यवस्था पर अपनी पीठ थपथपा चुके हैं, ने रणनीतिक चुप्पी साध रखी थी।
प्रधानमंत्री के बाद मुख्यमंत्री भी हरकत में आए; लेकिन तब तक पीड़िता जिंदा ही नहीं बची थी। उसके मरने के बाद भी उसका और उसके परिवार वालों का सम्मान सड़क पर उछालने के लिए बीजेपी विधायक सुरेन्द्र सिंह जैसे लोग तैयार बैठे थे उन्हें मृतक लड़की के संस्कारों में ही खामी दिखी।
‘राष्ट्रीय सवर्ण परिषद’ जैसे संगठन आरोपियों के पक्ष में खुलकर सामने आए। कई बीजेपी नेताओं ने आरोपियों के पक्ष में रैलियां की पर ‘कानून और व्यवस्था’ ने इन रैलियों में धारा 144 लगाकर इन्हे रोकने का प्रयास भी नहीं किया। कानून और व्यवस्था ने उन अहिंसक विरोध प्रदर्शनों को रोका जो पीड़ित के पक्ष में जंतर-मंतर और इंडिया-गेट में आयोजित किए गए थे।
महात्मा गाँधी के जन्मदिन 2 अक्टूबर को बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने एक वीडियो ट्वीट किया इस वीडियो ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना करते हुए पीड़ित का चेहरा उजागर कर दिया। लेकिन ‘कानून व्यवस्था’ ने नरेंद्र मोदी के खास इस शख़्स के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया। हाँ! ‘कानून और व्यवस्था’ को जल्द ही एक अलग कदम उठाने का मौका मिल गया। यूपी पुलिस ने 5अक्टूबर को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि खराब करने की ‘अंतर्राष्ट्रीय साजिश’ का हवाला देते हुए पूरे प्रदेश में 19 मामले दर्ज किए।
हाथरस कांड पर पुलिस के दावे
इससे पहले 1 अक्टूबर को ऐसी घटना घटी जो बेहद विचलित करने वाली थी। इस घटना के नायक थे प्रदेश के एडीजी (कानून एवं व्यवस्था) प्रशांत कुमार। 1990 बैच के मूलतः तमिलनाडु कैडर के आईपीएस अफसर प्रशांत कुमार को मुख्यधारा की मीडिया ‘सिंघम’ के रूप में प्रदर्शित करती रही है। प्रशांत कुमार उत्तर प्रदेश में ‘कानून व्यवस्था’ के सबसे बड़ी अधिकारी है।1 अक्टूबर, 2020 को प्रशांत कुमार ने FSL(फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी) रिपोर्ट के हवाले से दावा किया कि लड़की के साथ बलात्कार हुआ ही नहीं। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी होने की वजह से उन्हे निश्चित रूप से मालूम रहा होगा कि बलात्कार के लगभग 8 दिन बाद सीमेन और स्पर्म का सैम्पल लेने से कोई फ़ायदा नहीं होने वाला।
इस रिपोर्ट में तो कुछ आ ही नहीं सकता था। उन्होंने जानबूझकर उस 54 पेज की रिपोर्ट को दरकिनार कर दिया जो उस अस्पताल द्वारा जारी की गई थी जिसमें पीड़िता बलात्कार के दिन से ही भर्ती थी। इस रिपोर्ट ने न सिर्फ़ सामूहिक बलात्कार की पुष्टि की थी बल्कि पीड़ित के साथ जो निर्दयता की गई उसकी विस्तृतजानकारी रिपोर्ट में निहित थी। साथ ही प्रशांत कुमार ने यह भी दावा किया कि पीड़ित के शव को घरवालों की सहमति से ही जलाया गया था।
कानून व्यवस्था के सबसे बड़े अधिकारी, प्रशांत कुमार ने स्वयं न्यायाधीश की भूमिका निभानी शुरू कर दी थी। यह वास्तव में बहुत डराने वाला था। उन्हे इस बात की फ़िक्र नहीं थी कि प्रधानमंत्री इस घटना पर अपना रोष अभी एक दिन पहले ही जता चुके थे, उन्हे इस बात की भी फिक्र नहीं थी कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक दिन पहले ही स्वतः संज्ञान लेते हुए ‘जबरदस्ती अंतिम संस्कार’ व पूरे घटना क्रम को ‘अंतःकरणपर आघात’ कहा था। कानून व्यवस्था के प्रदेश के इस सबसे बड़े पहरेदार को शायद किसी बात का डर नहीं था और शायद यही हिम्मत हाथरस के डीएम के पास हस्तांतरित हो गई थी। जिनका वह वीडियो आज भी डरा देता है जिसमें वो घर वालों को लगभग धमकी के अंदाज में समझाते हुए कहते पाए गए कि-
“ये मीडिया तो 2-3 दिनों में चला जाएगा….हम ही आपके साथ खड़े हैं, कहीं हम भी न बदल जाएं तो मुश्किल होगी। 25 लाख मिल गया है अब मुँह बंद रखो। कोरोना से बेटी मर जाती तो इतना मुआवजा मिलता क्या”। (2012 बैच के आईएएस आफिसर प्रवीण कुमार) ये उस दौर के आईएएस हैं जब UPSC का नया कारनामा, CSAT ग्रामीण और वंचित तबकों के परीक्षार्थियों को कुचल रहा था।
कुछ ही महीनों में सीबीआई ने दिसंबर 2020 में चार्जशीट न्यायालय में पेश कर दी। चार्जशीट में ‘सामूहिक बलात्कार’ का जिक्र साफ था। चार्जशीट ने साफ संकेत कर दिया था कि प्रदेश की कानून व्यवस्था का सिपाही और राजा कोई भी न्यायोचित व्यवहार के मूड में नहीं था। सबने पीड़ित के साथ अत्याचार किया।
किसी ने उसके मरने के पहले किसी ने उसके मरने के बाद। लेकिन कानून व्यवस्था के ADG प्रशांत कुमार के खिलाफ उनके ‘लूज कमेन्ट’ (‘बलात्कार हुआ ही नहीं’) के लिए कोई कार्यवाही नहीं की गई। ये वही प्रशांत कुमार हैं जिन्होंने सरकारी वर्दी में हेलिकाप्टर से काँवड़ियों पर फूल बरसाए थे। उनमें से कुछ संवेदना के फूल उस पीड़ित के शव पर भी पड़ते तो शायद उसे कुछ सुकून होता।
जातीय और धार्मिक आचमन से चल रही वर्तमान सरकार हवनकुंड में उन लोगों को फेंकने में गुरेज नहीं कर रही है जो निर्बल हैं और वंचित तबके से आते हैं। हाथरस का बलात्कार और उसके बाद पीड़िता के शव के साथ जिस ‘कानून व्यवस्था’ का अभ्यास किया गया वो निर्ममता अतुलनीय है।
यह सच ही है कि जिस राजनैतिक नेतृत्व की खाल मोटी होती है उसके नीचे का प्रशासन संवेदनहीन हो जाता है। जिस ‘कानून व्यवस्था’ के नारे के साथ पीएम, सीएम और एचएम तमाम बड़े पद यूपी में डेरा जमाए हुए हैं वो इन दो उदाहरणों में मूक दर्शक बने रहे और अब जब सत्ता जाने का डर है तो अपने अंदर झाँकने से भी डर रहे हैं।
कानून आपके साथ है, कानून व्यवस्था भी आपके साथ है लेकिन सिर्फ तब तक, जब तक आप किसी ऐसे व्यक्ति की शिकायत करने सरकार के पास गए हैं जो या तो राजनैतिक व आर्थिक रूप से सशक्त नहीं है और या फिर वो सत्ता पक्ष का संबंधी नहीं है।ऐसी कानून व्यवस्था के नाम पर दोबारा सत्ता पाने की लालसा दुस्साहस की बात है और नागरिक अगर ऐसे लोगों को फिर से बिना सबक सिखाए सत्ता पर ले आते हैं तो यह भी ‘दुस्साहस’ की बात है।
उन्नाव और हाथरस की घटनाएं हांडी के सिर्फ दो चावल थे जिनसे पूरी हांडी में उपस्थित कानून व्यवस्था के चावलों का अंदाजा लगाया जा सकता है। ‘सत्ता के बाहुबलीकरण’ से कानून व्यवस्था का प्रतिबिंब नहीं दिखेगा, चंद गुंडों और बदमाशों के घर तोड़ने से कानून व्यवस्था बहाल नहीं होती। कानून व्यवस्था तब बहाल होगी तब सशक्त होगी जब देश के नागरिक उन खास लोगों को कानून का आईना दिखा पाएंगे जो सत्ता के करीब हैं और शोषण में लिप्त हैं। अन्यथा,
“एक स्वप्न में उठे थे, उसी स्वप्न में सो जाना है
न्याय कब मिला था तुम्हें, जो अब मिल जाना है।” (रामलखन ‘क़हर’)
लेख लिखे जाने तक मेरठ से एक और मामला ट्विटर पर दर्ज था जिसमें 7 लोगों ने एक बच्ची को अपहृत करके उसके साथ गैंगरेप किया, पुलिस ने ट्विटर पर जवाब भी दिया, कि सुसंगत धाराओं में अभियोग पंजीकृत है अग्रिम वैधानिक कार्यवाही की जा रही है, मेरा डर है कि अपराधी सत्ता का संबंधी निकला तो क्या फिर से ‘कानून और व्यवस्था’ वही कार्यवाही करेगी जो उन्नाव और हाथरस के मामले में किया गया?
‘कानून व्यवस्था’ के अबूझ, अधकचरे और मौकापरस्त नैरेटिव के बजाय आवश्यकता है एक ऐसी चेतना की जो महिलाओं का राजनैतिक सशक्तीकरण कर सके। देश की महिलाओं के राजनैतिक सशक्तिकरण के लिए एक ऐसे वादे की जरूरत है जिसके पूरा होते ही पुरुष वर्चस्व की हर राजनैतिक जमीन पर कम से कम 50% महिलायें खड़ी मिलें।