हिन्दी की चिन्ता में कौन दुबला हुआ जा रहा है?
“अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चे अपनी संस्कृति और परंपराओं से दूर हो गए हैं।” मध्य प्रदेश के संस्कृति और पर्यटन मामलों के मंत्री धर्मेंद्र सिंह लोधी ने हिंदी दिवस के मौक़े पर यह दुख प्रकट किया। उनका कहना था कि ऐसे बच्चे पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करने लगे हैं।
मंत्री महोदय ने आगे हिंदी में इसका उदाहरण प्रस्तुत किया: “ हमारे पूर्वज कहा करते थे:असतो मा सद् गमय , तमसो मा ज्योतिर्गमय”। लेकिन अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में पढ़नेवाले बच्चे मोमबत्ती जलाकर उसे फूँक मारकर बुझा देते हैं, यानी वे प्रकाश से अंधकार में चले जाते हैं। और जिस केक पर मोमबत्ती फूँकी जाती है, जिसपर थूक पड़ता है, उसे सब खाते हैं और सोचते हैं कि वे प्रगतिशील हो गए हैं।”
मंत्री महोदय उस तस्वीर को भूल गए जिसमें उनके सर्वोच्च नेता अपने मार्गदर्शक के जन्मदिन पर केक काटकर उन्हें खिलाते दीख रहे हैं या ख़ुद भारतीय जनता पार्टी के सदस्य गण इस नेता के जन्मदिन पर केक काटने की प्रतियोगिता कर रहे हैं! कौन 71 किलो का केक काटेगा या 71 केक काटे जाएँगे या 71 फीट लंबा केक काटा जाएगा, आपस में इसकी प्रतियोगिता चल रही है। मंत्री महोदय शायद यह कहें कि वे जब केक काटते हैं तो वे उसका भारतीयकरण कर रहे होते हैं।
“पहले अपने जन्मदिन पर बच्चे मंदिर जाते थे, दीप प्रज्वलित करते थे और भोज-भात करते थे लेकिन अब वे इन सारी बातों से दूर हो गए हैं।” मंत्री महोदय की ये बातें हास्यास्पद मालूम होंगी लेकिन ऐसा सोचनेवाले वे अकेले नहीं हैं। और यह भी न मानें कि यह माननेवाले सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में हैं कि हिंदी में बोलने से हम अपनी संस्कृति के क़रीब आते हैं।
मंत्री महोदय की तरह सोचनेवालों ने हिंदी को एक संस्कृति विशेष या धर्मविशेष से इस कदर जोड़ दिया है और उनकी संख्या इतनी अधिक है कि हिंदी को हिंदुओं की भाषा मान लिया गया है।
हिंदी दिवस के मौक़े पर ही दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रतिष्ठित कॉलेज में स्वागत वक्तव्य में सुना कि हिंदी मात्र हमारी भाषा नहीं, वह हमारी पहचान भी है। ऐसे वाक्य बोलते समय यह विचार नहीं किया जाता कि यह ‘हम’ कौन है जिसकी पहचान हिंदी है। दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे परिसर में केरला, कर्नाटका, मणिपुर आदि के विद्यार्थी और अध्यापक और कर्मचारी मिलकर इस हम का निर्माण करते हैं। हिंदी इस ‘हम’ की पहचान कैसे हो सकती है?
असावधानीवश ही सही, प्रायः हिंदीवाले इस तरह दंभपूर्ण दावा करते है कि उनकी भाषा ही भारत की पहचान है। वह हिंदी जो इन राज्यों के नामों का उच्चारण भी क़ायदे से नहीं कर सकती। अभी अनुराधा भसीन ने याद दिलाया कि कश्मीर में सृनगर है श्रीनगर नहीं। लेकिन कश्मीर विजय को निकले योद्धा नगर के आगे श्री न जोड़ें, कैसे हो सकता है? हिंदीवालों में अन्य संस्कृतियों के प्रति जो लापरवाही है या उनका ‘हिंदीकरण’ करने की हिंसा है,वह उन्हें उससे दूर करती है।
मिज़ोरम या असम या तमिलनाडु ही नहीं, मधुबनी, अयोध्या, छपरा, डूँगरपुर या कैथल के लोग भी यह मानने से इनकार कर देंगे कि हिंदी उनकी पहचान है।मुझे बिहार के भोजपुरी प्रदेश के एक क़स्बे सीवान में गुज़ारे गए बचपन में दोस्तों की झिड़की याद आती है। जब भी मैं उनसे हिंदी में बात करता, वे पलटकर बोलते, “ढेर अंग्रेज़ी मत बुकौ।” हिंदी भोजपुरीवालों के लिए अंग्रेज़ी ही है। यानी सीखने की भाषा। जिसे स्कूल में सीखा जाता है। सीखा जाना चाहिए।
यह बात लोग नज़रअंदाज़ कर देते हैं कि एक स्तर पर ‘हिंदी प्रदेशों’ में भी हिंदी दूसरी भाषा है। पहली भाषा, जिसे प्रायः मातृभाषा कहकर गौरवान्वित किया जाता है, मैथिली, भोजपुरी, मालवी या हरियाणवी ही है। लेकिन इन सारे प्रदेशों में इन भाषाओं को बोलनेवाले जनगणना के समय भाषावाले कॉलम में हिंदी लिख देते हैं। इसलिए कि हम कह सकें कि भारत में हिंदी बोलनेवाले सबसे ज़्यादा हैं इसलिए भारत पर पहला अधिकार उनका है या भारत उनसे ही परिभाषित होगा। हिंदी अपने इस कृत्रिम संख्या बल के आधार पर भारत में अव्वल होने का दावा पेश करती है।
‘मातृभाषा’ की अवधारणा पर भी हमें विचार करने की ज़रूरत है। लाखों करोड़ों बच्चे इस देश में बिना माँ के पलते-बढ़ते हैं। माँ न होने पर भी उनकी भाषा तो होती ही है। वह सड़क पर, मोहल्लों में आस-पास बोली, इस्तेमाल की जानेवाली भाषा है।
हिंदी को ‘मातृभाषा’ मान लेने का प्रभाव स्कूल के शिक्षण पर पड़ता है। उसे सिखलाया जाना चाहिए,यह ख़याल हमें नहीं आता। इस वजह से हम इस तरह की खबर पढ़कर हैरान रह जाते हैं कि हिंदी की ‘मातृभूमि’ उत्तर प्रदेश में माध्यमिक स्तर की परीक्षा में तक़रीबन 8 लाख विद्यार्थी फेल कर गए। यह 2020 की खबर है लेकिन विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि यह हालत बदली न होगी। हाँ! लाज बचाने को अब हम इस तरह के आँकड़े जारी ही नहीं करते।यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि इस खबर के बाद उत्तर प्रदेश में हिंदी शिक्षण को लेकर किसी चिंता का कोई समाचार नहीं मिला। यह इतनी बड़ी दुर्घटना थी कि सरकार और शिक्षा जगत को आगे स्कूली हिंदी के विषय पर गहरे और व्यापक मंथन की शुरुआत करनी चाहिए थी। लेकिन कुछ भी न हुआ। अधिक से अधिक यह हुआ होगा कि परीक्षकों को निर्देश दे दिया गया होगा कि आगे से वे उदारतापूर्वक मूल्यांकन करें। हिंदी में फेल लोग जब तक हिंदी में माँ भारती, माँ भारती चिल्लाते हुए नफ़रत के नारे लगाते रहेंगे, हिंदीवालों को चिंता करने की ज़रूरत नहीं!
हिंदी सीखने-सिखाने की भाषा है, इस बात के प्रति लापरवाही का नतीजा हमें स्नातकोत्तर स्तर तक दिखलाई पड़ता है। देखकर तकलीफ़ होती है कि हमारे विद्यार्थी हिंदी का एक सुसंगत पैराग्राफ़ या वाक्य लिखने में ख़ुद से जूझते रहते हैं। उत्तर पुस्तिकाएँ देखते हुए हम एक साफ़-सुथरे वाक्य के लिए तरस जाते हैं। पीएच डी में भी कोई सुधार आता हो, ऐसा नहीं।
प्रायः अध्यापकों की चिंता यही रहती है कि वर्तनी और वाक्य रचना ठीक हो जाए। दिल्ली विश्वविद्यालय में यह मातम करते ख़ुद मुझे 20 साल से अधिक हो गए।लेकिन हमने इस सबको स्कूलों के मत्थे मढ़कर छुट्टी पा ली। इस चुनौती के चलते हमें स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम को संशोधित करने पर विचार करना चाहिए था। लेकिन हमने भी अंकों में उदारता का सिद्धांत अपना लिया जिसका नतीजा यह है कि हिंदी का यथार्थ कुछ और है लेकिन उसका पाठ्यक्रम उससे कहीं आँख नहीं मिलाता।हमने अपने लिए आसानी का रास्ता चुना।
जब दुनिया देखेगी कि कोई हिंदी विभाग हर साल 200 विद्यार्थियों को पीएचडी के लिए पंजीकृत कर रहा है तो वे यही सोचेंगे कि इस भाषा में न सिर्फ़ विचार विमर्श का स्तर बहुत ऊँचा है बल्कि शोध और विचार का समुदाय भी बहुत बड़ा है। यह ख़ुशफ़हमी पैदा करके असली समस्या से पीछा छुड़ा लिया जाता है। वह समस्या यह है कि हिंदी में पढ़ना और लिखना कैसे सीखें।
क्या हम सब पढ़ना जानते हैं? उसकी विधि क्या है? वह क्यों एक सचेत प्रक्रिया है जिसमें दीक्षित होना आवश्यक है? वही बात लिखने पर लागू होती है। हिंदी में 8 लाख विद्यार्थियों की फेल होनेवाली खबर में ही इसका कारण बतलाते हुए एक अध्यापिका ने कहा कि विद्यार्थी आत्मविश्वास की जगह कॉन्फिडेंस लिखता है और यात्रा की जगह सफ़र। यह एक वक्तव्य भाषा शिक्षण के प्रति रवैये का अच्छा नमूना है । अध्यापकों का ध्यान मात्र शब्दों की शुद्धता पर है: वे कितने हिंदी हैं और कितने नहीं! हम वाक्य तक पहुँचते नहीं। जब वहाँ ध्यान जाएगा तब हम सोच पाएँगे कि हिन्दी में तर्कसंगत वाक्य कैसे लिखा जाए, असली चुनौती यह है।