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संस्कृत और मुसलिम: धर्म-जातियों में बाँधेंगे तो घुटकर मर जाएगी भाषा

संस्कृत और मुसलिम: धर्म-जातियों में बाँधेंगे तो घुटकर मर जाएगी भाषा

रुढ़िवादी, कट्टर धार्मिक सोच के पिछड़े लोगों ने फ़िरोज़ ख़ान को संस्कृत पढ़ाने के योग्य क्यों नहीं माना? क्या भाषा किसी धर्म और जाति में बँधी हुई है? ऐसे में क्या कोई भाषा ज़िंदा रह पाएगी?

भाषा के कई कौतुक होते हैं।

अभी हाल ही के दिनों में, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत के विद्वान श्री फ़िरोज़ ख़ान के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान प्रभाग में हुई नियुक्ति को लेकर कुछ हिंदूवादी संगठनों ने काफ़ी हंगामा खड़ा किया। उनकी नियुक्ति के ख़िलाफ़ धरना-प्रदर्शन किया गया और नियमों के ख़िलाफ़ अत्यधिक दबाव में आकर विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी नियुक्ति दूसरे विभाग में कर दी। ग़ौरतलब है कि फ़िरोज़ ख़ान की बोलचाल की भाषा आंचलिक अवधी/हिंदी/उर्दू की मिली-जुली भाषा है, उनकी शिक्षा-दीक्षा संस्कृत में हुई, लेकिन चूँकि उनका धर्म इसलाम है, रुढ़िवादी, कट्टर धार्मिक सोच के पिछड़े लोगों ने उन्हें संस्कृत पढ़ाने के योग्य नहीं माना, जबकि वे उस पद के आवेदनकर्ताओं में श्रेष्ठ योग्यता प्राप्त थे।

कहना नहीं होगा कि यह अत्यंत दुखद है।

ख़ासतौर से उस देश में जहाँ सदियों से भाषा निहायत खुले ढंग से पुष्पित पल्लवित हुई। उसे कभी धर्म और जातियों में बाँट कर नहीं देखा गया।

भाषा की कहानी अनेक बानगियों से भरी है। सभ्यता के विकास में वह सहचरी रही है तो मानवीय गुणों, दुर्गुणों, सुखों, दुखों, प्रेम और वैमनस्य की संवाहक भी। जब वह ख़ोज, अनुसंधान की राह चल पड़ती है तो विज्ञान और दर्शन की अनगिनत अवधारणाओं को स्थापित कर देती है। वह निरंतर गतिशील बनी रहती है, किसी पहाड़ी झरने समान कल-कल की ध्वनि से भरी हुई।

चीनी विद्वानों ने भारतीय विचार, भाषा और धर्म निर्वहन का अपनी भाषा में विशद वर्णन किया है। नालंदा और विक्रमशिला के बौद्ध पीठों ने न सिर्फ़ बौद्ध धर्म बल्कि भाषा का भी विकास किया। संस्कृत के अलावा आम जनों की भाषा ‘पाली’ ने भी अपने पंख पसारे। उधर दक्षिण भारत में तमिल ने अपने समृद्ध, प्राचीन उद्भव को और परिष्कृत किया।

भारतीय सभ्यता की गहरी चमक को अरबी और फ़ारसी दुनिया ने भी ख़ूब सराहा। वहाँ की दुनिया ने संस्कृत को ‘देवों की भाषा’ कहा और अरब और ईरान के अनेक विद्वानों ने उसे सीखने का प्रयत्न किया। भारत में भी फ़ारसी का चलन ख़ूब बढ़ा और वर्ष 1000-1700 के दरम्यान यहाँ जितनी फ़ारसी कविता लिखी गयी उतनी संभवतः फ़ारसी के देश- ईरान में नहीं लिखी गयी। रिचर्ड एम ईटन ने इसे अपनी किताब ‘इंडिया इन द पर्शियनेट एज’ में ख़ूबसूरती से रेखांकित किया है।

संस्कृत में लिखित शिलालेखों में अरब और ईरान से आने वाले लोगों को मुसलमान न कहकर तुरुष्क अर्थात तुर्क कहा गया है। संस्कृत में उन्हें ‘घोड़ों पर चढ़ने वाले बादशाहों’ की उपाधि भी दी गयी है। इस दौर में आपसी युद्धों और संहारों के बावजूद हिन्दू-मुसलमानों की मिली-जुली संस्कृति पनपने लगी थी। हिन्दू राजा उस दौर में अपने को सुल्तान कहने लगे थे और मुसलमान राजा अपने को विष्णु के अवतार। इस तरह भाषा भी परवान चढ़ने लगी थी और अठारहवीं शताब्दी तक आते–आते बोलचाल वाली भाषा में दक्खनी, फ़ारसी, तुर्की, अरबी, संस्कृत से उपजी भाषाओं और आंचलिक भाषाओं के शब्दों ने अपनी जगह बना ली थी।

आज के इस विषाक्त दौर में सिर्फ़ हमारे देश का पर्यावरण ही ज़हरीला नहीं हुआ है, लोगों की भाषा भी प्रदूषित हो गयी है। फ़िरोज़ की नियुक्ति का मसला इसकी सबसे ताज़ा मिसाल है।

बोलचाल के शब्दकोशों से मानव कल्याण, प्यार, मोहब्बत के शब्द कम होते जा रहे हैं और वैमनस्य और अलगाव के शब्दों का चोला पहन, भाषा कुछ लोगों का विषाक्त अंतर्मन बखान करने लगी है। और हम इस नफ़रत की संस्कृति में भूल गए हैं कि भाषा के पैर में चक्र होता है।

तभी तो आज हम मुग़ल सम्राट अकबर को जब याद करते हैं तो उसके मुसलमान होने को याद करते हैं, और संस्कृत में रचे गए महाभारत और रामायण के फ़ारसी में अनुवादों को भूल जाना चाहते हैं, जिन्हें अकबर ने करवाया था। इसी तरह लेखक निज़ाम का लिखा अफसाना लैला-मजनू जो आज हमारी भी सांस्कृतिक धरोहर बन चुका है, दरअसल फ़ारसी से चलकर भारत आया था। मुग़लों ने ब्राह्मणों, पंडितों को लगातार अपने दरबार में आमंत्रित कर वेदों और उपनिषदों का ज्ञान अर्जित किया और कभी अपने इसलाम धर्म को ख़तरे में नहीं पाया। उस दौर में भाषा फ़ारसी, संस्कृत, अवधि और ब्रज के चोलों में अठखेलियाँ करती रही और हिन्दुस्तानी भाषा और अमीर होती गयी।

दारा शिकोह और संस्कृत

उसी दौर में दारा शिकोह हिन्दू पंडितों की मदद से वेदों और क़ुरान का समन्वय करते हैं और उपनिषदों में एक वैज्ञानिक दर्शन ढूंढ कर सिर्री –ए अकबर अर्थात ‘सबसे बड़ा रहस्य’ रच देते हैं। सुप्रिया गाँधी, जो अमेरिका के येल विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं, अपनी किताब ‘द एम्परर हु नेवर वास : दारा शिकोह इन मुग़ल इंडिया’ में बताती हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी के हिन्दू सुधारक, कन्हैयालाल अलकधारी ने दारा शिकोह के लिखे ग्रंथ का उर्दू में तर्जुमा करवाया जिससे वह जनमानस तक पहुँचे। 

इसका मतलब यह हुआ कि उन्नीसवीं शताब्दी में जन मानस के बड़े तबक़े में उर्दू भाषा बोली जाती थी और उसका धर्म से कोई वास्ता नहीं था।

हाल ही में मेरी मुलाक़ात एक ऐसे नौजवान से हुई, जिसके पिता उत्तर प्रदेश के एक मंदिर में पुश्तैनी पुजारी हैं। उसने बताया कि उसके दादा नफ़ीस उर्दू बोला और लिखा करते थे। मंदिर में उर्दू अफसानानिगारों की महफ़िल हुआ करती थी। उसके दादा ने भी रामायण का उर्दू अनुवाद किया है, यह एक दिल को छू लेने वाली बात है।

दरअसल भाषा की फितरत बंधने की नहीं है। यदि हम उसकी हदबंदी करेंगे तो वह घुट-घुट कर मर जायेगी। भाषा तो सबके साथ मेल मिलाप कर, गलबहियाँ डाल ही जीवन पाती है।

हमें यह याद रखना चाहिए कि भारत में 22 से अधिक सूचित भाषाएँ हैं और उससे अधिक बोलियाँ हैं, जिन सबका अपना लोकतांत्रिक वजूद भी है।

हमारा लिखित संविधान भी इसकी पूरी आज़ादी देकर हमें मज़बूत बनाता है। इसे हम कैसे बिसरा सकते हैं यह देश हमें बहुत सारे संघर्षों के बाद मिला है, इसकी अनेकता में एकता के भाव को हम कुछ सिरफिरे तर्कों की वजह से कैसे नष्ट होने दे सकते हैं

गाँधी ने सभी की भाषा को अपनी भाषा दी और अंग्रेज़ों से कहा ‘भारत छोड़ो।’

इस देश की अखंडता और सर्वधर्म समभाव बना रहे इसके लिए गाँधी ने अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए! वह परम त्याग और बलिदान की भाषा थी। 

आज जब विघटनकारी फिर से सर उठा रहे हैं, तब यह ज़रूरत आन पड़ी है कि हम अपनी भाषा के प्रति ख़ूब चौकस और सचेत हो जाएँ। इसे सुंदरता से बरतें। इतनी सुंदरता से कि ‘हम सब भारत के नागरिक हैं समवेत भाव से’- यह सच मज़बूती से बारम्बार प्रतिबिंबित हो, फ़िरोज़ ख़ान की भाषा में और हम सबकी अपनी–अपनी भाषाओं में।

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