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भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती लालू और राहुल से

भाजपा को सबसे बड़ी चुनौती लालू और राहुल से

सुप्रीम कोर्ट द्वारा कांग्रेस नेता राहुल गांधी की मानहानि की सजा पर रोक लगाए जाने के बाद राहुल सबसे पहले लालू यादव से मिलने क्यों पहुँचे? जानिए, क्या हैं इसके निहितार्थ।

सर्वोच्च अदालत से मिली राहत के बाद राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता जल्द बहाल होना उनके लिए कानूनी और राजनीतिक दोनों लिहाज से एक बड़ी जीत है। गौर किया जाना चाहिए कि सर्वोच्च अदालत के फ़ैसले के बाद राहुल अपनी कार से लालू प्रसाद यादव की बेटी और राज्यसभा सदस्य मीसा भारती के आवास पर गए थे, जहां राजद सुप्रीमो उनके स्वागत के लिए मौजूद थे। अखबारों और सोशल मीडिया में आई तस्वीर में लालू राहुल को गले लगाते दिख रहे हैं। राजनीतिक रूप से यह बहुत दमदार तस्वीर है। इसके राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट हैं। राजनीतिक नफे-नुक़सान से परे इसका संदेश बहुत दूर तक जाने वाला है।

क्या यह तस्वीर 2024 की कोई तस्वीर पेश करती है? इसका जवाब यह नहीं है कि राहुल गांधी विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे। यह भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस की वैचारिकी को चुनौती देने वाली तस्वीर है, जिसमें दो ऐसे नेता नज़र आ रहे हैं,  जिनकी सेकुलर दृष्टि और भारत के विचार को लेकर समझ एकदम साफ़ है।

दरअसल, 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से आरएसएस की विचारधारा न केवल केंद्र में है, बल्कि उसे  सांस्थानिक रूप देने के सारे जतन किए जा रहे हैं। हिन्दुत्व की विचारधारा को पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से धार दी गई है, वह दिखाता है कि मानो लंबे अरसे से संघ परिवार को इसका इंतज़ार था। चाहे राम मंदिर का भूमि पूजन हो या संसद के नए भवन का शिलान्यास हो या उसका उद्घाटन, प्रधानमंत्री मोदी ने धार्मिक अनुष्ठान से गुरेज नहीं किया। इसे सारे देश ने टीवी के जरिये इनका सीधा प्रसारण किया है।

2014 से पहले और आज की भाजपा में यही सबसे बड़ा फर्क है।

दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दिया जाए, तो विपक्ष से भाजपा और आरएसएस को सिर्फ लालू प्रसाद यादव और राहुल गांधी ही वैचारिक रूप से चुनौती देते दिखते हैं। लालू और राहुल का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा से कभी कोई संबंध नहीं रहा है। इन दोनों नेताओं की धर्मनिरपेक्ष साख 26 दलों वाले विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की बड़ी ताक़त है।

लालू को लेकर राहुल के मन में पहले चाहे जिस तरह का भाव रहा हो, अभी दोनों एक पाले में हैं। वरना यूपीए शासन के दौरान चारा घोटाले पर एक महत्वपूर्ण फैसले के आने से ठीक पहले राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से उस अध्यादेश को फाड़ दिया था, जिसमें दोषी ठहराए गए जनप्रतिनिधियों को अयोग्यता से बचाया जा सकता था। यह खुला रहस्य है कि यूपीए ने यह अध्यादेश लालू प्रसाद की सदस्यता बचाने के लिए ही लाया था।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में किए गए संशोधन के कारण ही तब लालू प्रसाद की संसद से सदस्यता चली गई और उनके चुनाव लड़ने पर रोक लग गई।

राहुल ने जब अध्यादेश फाड़ा था, तब यह भी कहा गया था कि उन्हें शायद यह अंदाजा नहीं है कि 1996 में जब कांग्रेस के भीतर और बाहर उनकी मां सोनिया गांधी को विदेशी बताकर विरोध किया जा रहा था, तब लालू अकेले ऐसे नेता थे, जिन्होंने दमदारी के साथ उनका बचाव करते हुए उन्हें 'भारत की बहू' बताया था। यह भारत के विचार की ही पुष्टि थी।

लालू प्रसाद ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत भले ही 1974 में छात्र नेता और जेपी की अगुआई में हुए आंदोलन में कांग्रेस विरोध को लेकर शुरू की थी, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। आखिर उन्माद से भरी लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को रोकने और उन्हें गिरफ्तार करने का साहस भी उन्होंने ही किया था।

बेशक, लालू की राजनीतिक लड़ाई में भ्रष्टाचार का मुद्दा आड़े आता रहा है, जिससे उनकी साख को धक्का लगा है। लेकिन मोदी के नौ वर्ष के कार्यकाल में भ्रष्टाचार कानूनी से कहीं अधिक राजनीतिक भयादोहन और धारणा की लड़ाई का औजार बन गया है। एनसीपी का हाल का घटनाक्रम इसकी मिसाल है।

इसके बावजूद लालू की साख यही है कि वे भाजपा और संघ को विचारधारा के आधार पर सीधी चुनौती देते हैं। इसमें किसी तरह का विचलन नहीं है। यही बात राहुल के साथ है। इसकी झलक उनकी कन्याकुमारी से कश्मीर तक की गई चार हजार किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा में दिखी थी।

यह विचारधारा की लड़ाई है। जाहिर है, अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान राहुल इन मुद्दों पर सरकार को घेर सकते हैं।

असल में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के सामने एक स्पष्ट राह है कि वह भारत के विचार के साथ अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाए।  यह भारत का वही विचार है, जिसे भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों में व्यक्त किया गया है,  "हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए...."।

इस विचार को पिछले कुछ वर्षों में गहरा धक्का लगा है। इतना कि 1990 के दशक की राजनीति में खुद को सेकुलर बताने वाली पार्टियां तक इस शब्द से परहेज करने लगी हैं।

इस वक्त जब मणिपुर में जातीय हिंसा थमी नहीं है, नूंह सांप्रदायिक हिंसा की नई प्रयोगशाला के रूप में सामने आया है और एक चलती ट्रेन में रेलवे पुलिस का एक जवान धर्म के आधार पर पहचान कर कुछ लोगों की हत्या कर देता है, एक बड़ी चुनौती भारत के विचार यानी आइडिया ऑफ इंडिया को बचाने की भी है। मगर यह आसान लड़ाई नहीं है। धर्मनिरपेक्षता को बचाने के लिए धारणा और कथानक दोनों ही स्तरों पर संघर्ष करने की ज़रूरत है।

जनवरी, 2014 में लालू प्रसाद ने कहा था कि भविष्य में दो ध्रुवीय गठबंधन होंगे- सेकुलर और सांप्रदायिक। मगर 2019 में बिखरा विपक्ष मोदी और अमित शाह की अगुआई वाली हर दृष्टि से ताकतवर भाजपा के आगे टिक नहीं पाया।

विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ यदि धारणा और कथानक दोनों ही स्तरों पर भारत के विचार को केंद्र में लाने में सफल होता है, तो यह किसी भी चुनावी जीत से कहीं अधिक बड़ी जीत होगी। इसमें लालू और राहुल अहम भूमिका निभा सकते हैं।

( सुदीप ठाकुर पत्रकार होने के अलावा किताब ‘दस साल जिनसे देश की सियासत बदल गई’ के लेखक हैं) 

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