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हाथरस के बाद लखीमपुर: नेताओं ने कुछ नहीं सीखा?

हाथरस के बाद लखीमपुर: नेताओं ने कुछ नहीं सीखा?

देश में निर्भया, हाथरस जैसी बलात्कार की जघन्य वारदात हुई हैं और अब लखीमपुर का मामला एक ताजा उदाहरण है। लेकिन तमाम बड़े नेता इन मामलों पर चुप क्यों हैं, बोलते क्यों नहीं। 

16 सितंबर को भारत के पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द और भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन ने, अंबेडकर एंड मोदी: रिफॉर्मर्स आइडियाज, परफॉर्मर्स इम्प्लीमेंटेशन, नाम की एक पुस्तक का विमोचन किया। संगीतकार और राज्यसभा सदस्य इलैयाराजा ने इस पुस्तक के लिए प्रस्तावना लिखी है।

12 अध्यायों में तैयार इस पुस्तक में अंबेडकर और नरेंद्र मोदी की तुलना की कोशिश की गई है। वर्तमान इंसानों की महान लोगों से तुलना कोई गलत बात नहीं है लेकिन इस पुस्तक के संदर्भ में यह मात्र एक दिमागी फैंटेसी नजर आती है। अंबेडकर के संबंध में पहला विचार उनके द्वारा किए गए संविधान निर्माण में उनके योगदान के संदर्भ में आता है। 

लेकिन सच तो यह है कि अंबेडकर का निर्माण जातिगत शोषण और उसके खिलाफ उनके सशक्त संघर्ष के दौरान, पहले ही हो चुका था। अंबेडकर होने का प्राथमिक अर्थ है शोषण के खिलाफ ‘पहली आवाज’ बनना। अंबेडकर के पास शोषण के विरुद्ध लड़ने के लिए कोई तराजू नहीं था जिसे वह बोलने और एक्शन लेने से पहले ‘तौलने’ में इस्तेमाल करते। यही वास्तविक भीमराव अंबेडकर हैं। 

संविधान निर्माण तो उनकी योग्यता का एक परिणाम था। लेकिन अंबेडकर से तुलना करने के लिए ‘पात्र’ व्यक्ति को शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने में ‘राजनैतिक तराजू’ का इस तरह इस्तेमाल रोकना होगा! क्या पीएम मोदी ऐसा कर पाए हैं? मुझे नहीं लगता! 

सितंबर, 2020 को हाथरस बलात्कार मामले में, जिसमें 19 साल की एक दलित लड़की को गैंगरेप के बाद मार दिया गया था, जब पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ था, प्रधानमंत्री जी को 15 दिन बाद याद आया कि इस पर प्रतिक्रिया दी जाए। यह अंबेडकर का तरीका नहीं है। आज जब फिर से लखीमपुर में दो दलित नाबालिग लड़कियों की गैंगरेप के बाद हत्या कर पेड़ से लटका दिया गया है तो भी प्रधानमंत्री चुप हैं। यह भी अंबेडकर का तरीका नहीं है। पुस्तक विमोचन में शामिल पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द (दूसरे दलित राष्ट्रपति) ने न बिलकिस बानो के मामले में एक शब्द बोला है और न ही लखीमपुर बलात्कार और हत्या मामले में, यही हाल पुस्तक विमोचन में शामिल पूर्व CJI बालाकृष्णन (पहले दलित मुख्य न्यायाधीश) और पुस्तक की प्रस्तावना लिखने वाले दलित संगीतकार इलैयाराजा का है। 

आश्चर्य की बात तो यह है कि भारत की वर्तमान और पहली जनजातीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी कुछ नहीं बोलीं। यह निश्चित रूप से अंबेडकर का रास्ता नहीं है।

कोई कह सकता है कि यह लॉ एंड ऑर्डर का मुद्दा है और यह राज्य का विषय है तो हर बात पर पीएम मोदी क्यों बोलें? एक दृष्टिकोण से यह सच लग सकता है लेकिन जब बात एक पूरे जेन्डर की सुरक्षा की होने लगे, देश की 50% आबादी के मौलिक विकास और अधिकारों की होने लगे, जब देश की हर महिला इस डर से भयभीत हो जाए कि कभी भी कोई उसके साथ अभद्रता, छेड़खानी और बलात्कार कर सकता है तो भारत के प्रधानमंत्री का दायित्व बनता है कि वो आगे आकर हर बलात्कार के खिलाफ अपनी आवाज को देश की सभी महिलाओं की आवाज से जोड़ें ताकि अपराधियों को कठोर संदेश जा सके। 

सिर्फ न्यायपालिका और पुलिस के भरोसे यह जंग नहीं जीती जा सकती। इसमें राजनैतिक इच्छाशक्ति की पुरजोर आवश्यकता है। 

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बिलकिस बानो का मामला 

बिलकिस बानो का ही मामला ले लीजिए। 15 अगस्त, 2022 को बिलकिस बानो और उसकी बच्ची के साथ दरिंदगी करने वाले 11 आरोपियों को छोड़ दिया गया। लेकिन प्रधानमंत्री कुछ नहीं बोले। ‘अलग राजनीति’ करने आए ‘मिस्टर क्लीन’ अरविन्द केजरीवाल इतनी अलग राजनीति करने लगे कि अपनी शिक्षा और वादों को भुला बैठे। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को गुजरात में चुनाव लड़ना है और बिलकिस बानो एक मुस्लिम महिला हैं और गुजरात में हिन्दू-मुस्लिम को लेकर लगातार संघर्ष की स्थिति पैदा की जाती रही है। अपने पीछे भगत सिंह और अंबेडकर की फोटो लगाने वाले केजरीवाल जी का साहस ‘एक्सपायर’ हो चुका है। जो व्यक्ति शोषितों और वंचितों के धर्म को देखकर शब्द निकालता है, वह व्यक्ति न ही नेता है और न ही उसमें नेतृत्व क्षमता है! 

नरेंद्र मोदी और अरविन्द केजरीवाल दोनों ही अनुसूचित जातियों के मध्य यह संदेश देना चाहते हैं कि उनसे बड़ा अंबेडकरवादी कोई नहीं। लेकिन दोनों का यह प्रयास निरर्थक है क्योंकि यह दोनों लोग कर्मवादी अंबेडकर के उलट मात्र भाषणवादी हैं। ‘एक्शन’ बोलते और लेते तभी हैं जब सामने कैमरा हो।

दिल्ली में महिलाओं संग अपराध 

राष्ट्रीय राजधानी का उदाहरण ले लीजिए जहां एक नेता मुख्यमंत्री के पद की वजह से निवास करता है तो दूसरा प्रधानमंत्री के पद की वजह से। सामान्य नागरिकों से अधिक वीआईपी के निवास स्थल वाली इस दिल्ली में महिलाओं की दशा बद से बदतर होती जा रही है। ‘निर्भया’ मामले से न दिल्ली ने कुछ सीखा और न ही भाषणवादी नेताओं ने। दिल्ली पुलिस के अनुसार, इस साल अगस्त तक, राष्ट्रीय राजधानी में हर दिन कम से कम छह बलात्कार के मामले और छेड़छाड़ के सात मामले दर्ज किए गए हैं। 

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार 2021 में राष्ट्रीय राजधानी में 1,226 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए थे। जबकि 2022 के शुरुआती छह महीनों में ही दिल्ली में रेप के 1,100 से ज्यादा मामले दर्ज किए जा चुके हैं। अभी तक यह दर 2021 के मुकाबले लगभग दो गुनी है। दिल्ली देश का एकमात्र महानगरीय शहर है जिसने 1,000 से अधिक बलात्कार के मामले दर्ज किए हैं।

क्या यह आँकड़े देश के प्रधानमंत्री के पास नहीं पहुंचे होंगे? क्या यह आँकड़े दिल्ली के मुख्यमंत्री की उस मेज पर नहीं पहुंचे होंगे जिसके पीछे अंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीर लगाई गई है? मुझे लगता है जरूर पहुंचे होंगे! लेकिन इसके बावजूद इन दोनों ने इस मुद्दे पर चुप रहना ज्यादा बेहतर समझा।

महिलाओं के मुद्दों को लेकर, विशेषतया रेप, नेता और नेतृत्व दोनों ही ‘विलुप्त प्रजाति’ हैं। चीता तो विलुप्त होने के बाद अफ्रीका से ले आया गया है लेकिन नेता और नेतृत्व कहाँ से लाया जाएगा? ऐसा नहीं है कि नेतृत्व का संकट सिर्फ इन्ही दो नेताओं में है बल्कि देश के लगभग हर राजनैतिक दल में व्याप्त है। महिलाओं के खिलाफ बढ़ते यौन अपराध पुरुष वर्चस्व वाली राजनैतिक व्यवस्था की उदासीनता का परिणाम है। 

मोहन भागवत का बयान 

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को लगता है कि बलात्कार शहरी और ग्रामीण इलाकों के बीच भेद का परिणाम है। 2013 में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि "आप देश के गांवों और जंगलों में जाएं वहाँ सामूहिक बलात्कार या यौन अपराधों की ऐसी कोई घटना नहीं होगी। ये कुछ शहरी क्षेत्रों में प्रचलित हैं।” यद्यपि यह बयान पुराना है लेकिन उन्होंने आजतक इसका कभी खंडन भी तो नहीं किया। और वक्त गवाह है कि बदायूं, हाथरस और लखीमपुर खीरी में हुए गैंगरेप और हत्या के अपराध किसी शहरी क्षेत्र में नहीं हुए हैं। क्या लापरवाही और बिना किसी आंकड़ों की उपस्थिति में दिए गए इस बयान को उदासीनता नहीं माना जाना चाहिए? क्या ऐसा संगठन सांस्कृतिक नेतृत्व देने में सक्षम है? 

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खट्टर और चौटाला का बयान 

हरियाणा के मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता मनोहर लाल खट्टर, बलात्कार और महिलाओं से सार्वजनिक अभद्रता को कपड़े से जोड़कर देखते हैं। उनका मानना है कि "अगर एक लड़की को शालीनता से कपड़े पहनाए जाते हैं, तो लड़का उसे गलत तरीके से नहीं देखेगा। अगर आप आजादी चाहते हैं, तो वे नग्न होकर क्यों नहीं घूमते? स्वतंत्रता सीमित होनी चाहिए।” शायद सीएम खट्टर को नहीं पता कि निर्भया, बदायूं, हाथरस और लखीमपुर खीरी की घटनाओं में महिलायें पश्चिमी कपड़ों में नहीं थीं इसके बावजूद उनको यातनाएं सहनी पड़ीं। मसला कपड़ों का नहीं सोच का है और जब मुख्यमंत्री की सोच ऐसी होगी तो पुलिस प्रशासन और आम पुरुषों के दृष्टिकोण को पढ़ना कठिन नहीं है। 

हरियाणा के ही पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला का बयान जिसमें वो लड़कियों की शादी कम उम्र में करने की वकालत सिर्फ इसलिए कर रहे थे ताकि उनके बलात्कार को रोका जा सके, एक कायराना वक्तव्य था। जो नेता अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए आपको जिम्मेदारियाँ लेने के लिए धकेल दें उन्हें सत्ता में कभी नहीं आने देना चाहिए। 

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अभद्र बयानों का सिलसिला

ममता बनर्जी को लगता है कि बलात्कार का कारण ‘पुरुष और महिलाओं का खुलकर बातचीत करना’ है। ममता बनर्जी की ही पार्टी, तृणमूल कॉंग्रेस के नेता तपस पॉल ने एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि "अगर विपक्ष में से कोई या उनकी पत्नियां और बहनें यहां हैं, तो सुनो, अगर आपके लोगों में से कोई भी टीएमसी से किसी को छूएगा तो मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा, मैं उन्हें नहीं छोड़ूंगा। मैं अपने लड़कों को भेजूंगा और वे लोग बलात्कार करेंगे।" 

2020 में तपस पॉल की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी लेकिन उन्हें कभी अपनी इस बदसलूकी की वजह से पार्टी से निष्कासित नहीं किया गया। इसी संदर्भ में कर्नाटक के कॉंग्रेस नेता रमेश कुमार को भी याद किया जाना चाहिए। 2021 में, रमेश कुमार ने कर्नाटक विधानसभा में एक बयान दिया था कि "जब बलात्कार अपरिहार्य है, तो लेट जाओ और आनंद लो।" इनके इस बयान पर बीजेपी के नेता और तत्कालीन विधानसभा स्पीकर .. को ‘हंसी’ आ गई। जितना यह वक्तव्य हिंसक है उतनी ही हिंसक है स्पीकर की हंसी। 

आश्चर्य है कि इतने अकर्मण्य, उदासीन और असंवेदनशील नेताओं को जनता चुनती ही क्यों है? रमेश कुमार पहली बार 1978 में चुने गए थे और इस बयान के बाद भी काँग्रेस ने उन्हें पार्टी से बाहर नहीं निकाला! कितना भी बड़ा चुनावी और वोट आधारित कारण क्यों न हो महात्मा गाँधी की विरासत वाली कॉंग्रेस को यह बिल्कुल शोभा नहीं देता कि ऐसे व्यक्ति एक पल के लिए भी पार्टी में रहने दिये जाएं। 

भारत में 2021 के दौरान कुल 31,677 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए - या औसतन हर दिन लगभग 87 बलात्कार के मामले - राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के नवीनतम संकलन से यह पता चलता है। देश में बलात्कार के सबसे ज्यादा मामले राजस्थान में दर्ज हुए, जबकि इसके बाद मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में हैं।

एनसीआरबी की 'क्राइम इन इंडिया 2021' रिपोर्ट के अनुसार, 2020 की तुलना में 2021 में बलात्कार के मामलों में 19.34% की वृद्धि हुई थी। लगभग 20% की वृद्धि क्या सिर्फ आंकड़ा है? क्या यह बात किसी ‘मन की बात’ का हिस्सा नहीं होनी चाहिए? 2021 में देश भर में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4,28,278 मामले दर्ज किए गए। सबसे अधिक 56,083 मामलों के साथ उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है। लगातार 6 सालों से सत्ता में विराजमान यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस मुद्दे पर अपने विचार प्रकट करते हुए नहीं सुना गया होगा। क्या उन्हें अपने प्रदेश में बढ़ते महिला अपराधों को लेकर जनता को संबोधित नहीं करना चाहिए? या सरकारें सिर्फ अपनी तारीफ़ों के ही हिमालय खड़े करना चाहती हैं? 

एनसीआरबी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है, "आईपीसी के तहत महिलाओं के खिलाफ अपराध के अधिकांश मामले 'पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता' (31.8%) के तहत दर्ज किए गए थे, इसके बाद 'महिलाओं पर शालीनता का अपमान करने के इरादे से हमला' (20.8%), ' महिलाओं का अपहरण' (17.6%) और 'बलात्कार' (7.4%)। यह अपराध तब और भयावह रूप धारण कर लेते हैं जब इनकी सालों तक सुनवाई चलती रहती है। हाल ही में केन्द्रीय कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने बताया कि जुलाई 2022 तक अदालतों में 3 लाख 28 हजार से अधिक मामले लंबित थे। 

बलात्कार की प्रताड़ना झेलने वाली महिला को सालों तक अदालतों के चक्कर कटवाना पीड़ित के साथ की गई प्रक्रियागत हिंसा है जिसे रोका जाना चाहिए।

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

इन सबके बावजूद समय-समय पर न्यायालय से ऐसी टिप्पणियाँ आ जाती हैं जिनसे पीडिताओं का मनोबल टूट जाता है। दिल्ली उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ जो मैरिटल रेप पर सुनवाई कर रही थी, के एक जज ने कहा कि "पत्नी और पति के बीच सेक्स ... पवित्र है" अर्थात इसे किसी भी हालत में रेप नहीं माना जा सकता। जबकि NFHS-5 के नवीनतम आँकड़े बताते हैं कि देश की 29% महिलाओं ने पति द्वारा की गई यौन हिंसा को स्वीकार किया है। 15 जुलाई, 2020 को बिहार की एक सिविल कोर्ट ने अदालती कार्यवाही में बाधा डालने के आधार पर एक सामूहिक बलात्कार पीड़िता को जेल भेज दिया था। न्यायालय द्वारा की गई ये टिप्पणियाँ और कार्यवाहियाँ संख्या में काफी कम हो सकती हैं लेकिन इस आधार पर अदालतों की असंवेदनशीलता को कम करके नहीं आँका जा सकता। 

खासकर तब जब हर रोज बलात्कार पीड़ितों की संख्या तीव्र गति से बढ़ रही हो और बिलकिस बानो जैसे मामले के अपराधियों के हौसलों को उड़ान मिल रही हो।    

बलात्कार की घटनाएं 

किसी भी सप्ताह के समाचार पत्रों को खंगाल कर देख लें तो पता चल जाएगा कि महिला अपराध किस कदर भयावह होते चले जा रहे हैं। सितंबर के दूसरे सप्ताह के ही अपराधों पर नजर डाली जा सकती है। हैदराबाद में 14 साल की बच्ची को नशा देकर उसके साथ बलात्कार किया गया फिर उसे बस स्टैंड में फेंक दिया गया; सूरत में 5 लोगों ने एक 27 साल की महिला के साथ गैंगरेप किया और इस दौरान उसके पुरुष मित्र को मारा और बांध दिया; वडोदरा में 13 साल की एक लड़की का रेप उसके सोशल मीडिया से बने दोस्त ने अपने बेडरूम में किया जबकि उस दौरान लड़के के परिवारजन अनजान बाहर बैठे रहे; पुणे में 12 साल की एक लड़की का एक फार्म हाऊस में बलात्कार किया गया; बलिया में 27 साल के आदमी को कक्षा 2 की बच्ची के रेप में गिरफ्तार किया गया; तमिलनाडु के एक पादरी को एक नाबालिग के बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार किया गया; भोपाल में स्कूल बस में नर्सरी की बच्ची के साथ बलात्कार हुआ। ऐसे ही और भी मामले हैं जो सिर्फ पिछले 1-2 सप्ताह के दौरान ही घटे हैं।        

वोट बैंक की चिंता

बलात्कार पीड़िता को जितनी असहनीय पीड़ा बलात्कार के दौरान होती है उससे भी अधिक पीड़ा का दौर तब शुरू होता है जब वह खुद को एक ऐसे समाज में पाती है जहां पुलिस, न्यायपालिका और राजनैतिक नेतृत्व की शून्यता उसे और अधिक जख्मी कर देती है। वास्तव में, राजनैतिक नेतृत्व के नाम पर भारत में आज ‘हिन्दू’ और ‘मुस्लिम’ नेताओं के साथ जाति व समुदाय आधारित ‘पाटीदार’, ‘दलित’, ‘यादव’, ‘निषाद’, ‘लिंगायत’ जैसी तमाम अनगिनत प्रजातियाँ विकसित हो चुकी हैं। लेकिन इनमें से सभी अपने अपने समुदायों के अंदर बैठे डरों को लगातार बनाए रखकर अपने नेतृत्व आधार को जीवित रखते हैं।

कहीं कोई राष्ट्रीय नेता नजर नहीं आता जो महिलाओं और अन्य वंचित वर्गों के खिलाफ होने वाले अपराधों को लेकर बिना वोट बैंक की चिंता किए लगातार मजबूत पिलर की तरह खड़ा रहे। कभी कभी यह क्षमता कॉंग्रेस नेता राहुल गाँधी के अंदर जरूर दिखाई पड़ जाती है लेकिन जब तक यह प्रवृत्ति सतत और मजबूत नहीं होगी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की गति को धीमा नहीं किया जा सकेगा।  

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