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क्या प्रधानमंत्री की सहमति से निलंबित किए गए हैं श्रम क़ानून?

क्या प्रधानमंत्री की सहमति से निलंबित किए गए हैं श्रम क़ानून?

लॉकडाउन के बाद बिगड़ी स्थिति में मज़दूरों के साथ खड़े होने के बजाय राज्य सरकारें उनके पहले से मिले हक़ भी ख़त्म कर रही है। 

ऐसे वक़्त में जब कोरोना संक्रमण से पैदा हुई चुनौतियाँ बेक़ाबू बनी हुई हैं, राज्य सरकारों में एक नया संक्रमण बेहद तेज़ी से अपने पैर पसार रहा है। छह राज्यों ने 40 से ज़्यादा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को अपने प्रदेशों में तीन साल के लिए निलम्बित करने का असंवैधानिक और मज़दूर विरोधी फ़ैसला ले लिया।

पहले से ही तक़रीबन बेजान पड़े इन श्रम क़ानूनों को ताक़ पर रखने के संक्रमण की शुरुआत 5 मई को मध्य प्रदेश से हुई। दो दिन बाद इस संक्रमण ने उत्तर प्रदेश और गुजरात को अपनी चपेट में ले लिया। फिर 10 मई को ओडिशा, महाराष्ट्र और गोवा की सरकारों ने भी मज़दूरों के शोषण के लिए सारे रास्ते खोलने का एलान कर दिया। 

कितने कामगार

लॉकडाउन से पहले 130 करोड़ की आबादी में क़रीब 31 करोड़ कामग़ार थे। इसमें से 92 फ़ीसदी असंगठित क्षेत्र से जुड़े थे। ये असंगठित सिर्फ़ इसीलिए कहलाये, क्योंकि इन्हें किताबी श्रम क़ानूनों ने कभी संरक्षण नहीं दिया। कुल कामगारों में से अब तक क़रीब 12 करोड़ लोग बेरोज़गार हो चुके हैं।

दिहाड़ी मज़दूरों को तो कभी कोई पूछ रही ही नहीं, वेतन भोगी मज़दूरों को भी अप्रैल की तनख़्वाह नहीं मिली है। बेंगलुरू की अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के मुताबिक, 90 फ़ीसदी मज़दूरों को उनके नियोक्ता यानी इम्पलायरों ने बक़ाया मज़दूरी नहीं दी। ऐसे में मज़दूरों के जख़्मों पर मरहम लगाना तो दूर, राज्य सरकारें उन पर नमक रगड़ने पर आमादा हैं।

ट्रेड यूनियन्स से नफ़रत

पूँजीवादी मीडिया और समाज में सामाजिक सुरक्षाओं से सबसे ज़्यादा लाभान्वित सरकारी कर्मचारियों के तबक़े ने ‘ट्रेड यूनियन्स’ के प्रति ऐसी नफ़रत फैलायी कि आज सरकारों ने चुटकी बजाकर ‘मज़दूरों के अधिकारों’ को ख़त्म करने की हिम्मत दिखा दी। यही वजह है कि देश में ‘न्यूनतम मज़दूरी’ अब भी एक ख़्वाब ही है।

अभी जिन क़ानूनों को ख़त्म किया गया है उनमें से कई तो आज़ादी से पहले के हैं। जैसे 1883 का फैक्ट्रीज एक्ट, जिसने काम के लिए आठ घंटे की सीमा बनायी, बाल श्रम को निषेध बनाया, महिलाओं को रात की ड्यूटी पर नहीं लगाने का नियम बनाया।

इसी तरह 1926 में बने ट्रेड यूनियन एक्ट को संविधान में अनुच्छेद 19(1)(सी) के रूप में मौलिक अधिकार की ताक़त से जोड़ा गया। 1936 के पेमेंट ऑफ वेज़ेज एक्ट से मज़दूरों को हर महीने वेतन पाने का हक़ मिला।

संविधान से पहले के क़ानून

कुछ श्रम क़ानून तो ऐसे हैं जो संविधान से भी पहले के हैं, जैसे 1947 का इंडियन ट्रेड यूनियन्स एक्ट, 1948 का मिनिमम वेज़ेज एक्ट। दिलचस्प बात यह भी है कि कभी कोई ऐसा प्रमाणिक अध्ययन या शोध सामने नहीं आया कि इनकी वजह से ही भारतीय उद्योग पिछड़ा हुआ है। यह सही है कि इन क़ानूनों से जो इंस्पेक्टर राज पैदा होता था, उससे सरकारी भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता था।

ज़रूरत भ्रष्टाचारी तंत्र को सुधारने की थी, लेकिन इसकी जगह सरकारों ने उन क़ानूनों को ही बदल दिया जो मज़दूरों को झूठी दिलासा दिलाते रहते थे।

एकतरफा फ़ैसला

दिलचस्प बात यह भी है कि राज्यों ने चुटकी बजाकर जिस ढंग से अध्यादेश जारी करके केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को निलम्बित करने का रास्ता चुना, उसे संसद ने बरसों-बरस की मशक्कत और अनुभव से तैयार किया था। इसीलिए, राज्यों को फ़ैसला एकतरफ़ा नहीं हो सकता। उनके अध्यादेश को केन्द्र सरकार की रज़ामन्दी की बदौलत राष्ट्रपति की मंज़ूरी भी चाहिए।

साफ़ है कि बग़ैर सोचे-समझे, बिना पर्याप्त तैयारी के नोटबन्दी और लॉकडाउन जैसे कड़े फ़ैसले लेने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘मज़दूरों के अधिकारों’ और ‘ट्रेड यूनियन’ को ख़त्म करने के लिए अपनी सहमति दी होगी

किसका फ़ैसला

शिवराज सिंह चौहान, योगी आदित्य नाथ, विजय रूपाणी और प्रमोद सावंत जैसों की हिम्मत नहीं हो सकती थी कि वे अपनी मर्ज़ी से इतना बड़ा फ़ैसला लें। नवीन पटनायक भी बीजेपी की बी-टीम वाले नेता ही हैं। लेकिन यह बात समझ से परे है कि काँग्रेस और एनसीपी की बैसाखियों पर सवार उद्धव ठाकरे को बीजेपी जैसा काम करने की क्या पड़ी थी

क्या करेंगे राष्ट्रपति

क्या राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद छह राज्य सरकारों के असंवैधानिक अध्यादेश पर दस्तख़त करने से मना कर सकते हैं लगता तो नहीं है। आख़िर, 22 और 23 नवम्बर 2019 की उस ऐतिहासिक रात को उन्होंने रातों-रात महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटाने की अनुमति दी थी, ताकि सुबह 7 बजे राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी चटपट देवेन्द्र फड़नवीस की ताजपोशी करवा सकें।

कोविंद साहब ने ही 8 अगस्त 2019 को उस कोड ऑफ वेज़ेज, 2019 पर दस्तख़त किये थे, जिसे सरकार ने श्रम सुधारों का नाम देकर संसद से पारित करवाया था।

इस नये क़ानून की नौटंकी से भी कभी किसी का भला नहीं हुआ क्योंकि इसे लागू करने के लिए नियम बनाने की सरकार को फ़ुर्सत ही नहीं थी। लिहाज़ा, कोविन्द के अब तक के अनुभव को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि वह 2013 वाले ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की तरह मनमोहन सिंह सरकार को ऑफ़िस ऑफ प्रॉफ़िट को या 1987 वाले ज्ञानी जैल सिंह की तरह राजीव गाँधी सरकार को इंडियन पोस्ट ऑफ़िस बिल पुनर्विचार के लिए लौटा भी सकते हैं।

संघ का श्रम संगठन भी ख़िलाफ़

फ़िलहाल, ‘मोदी है तो मुमकिन है’ वाला दौर है। इसमें सरकार हर उस काम को अवश्य करती है, जिसकी ज़बरदस्त आलोचना हो रही हो। मोदी जी किसी की नहीं सुनते।

मोदी को इसकी भी परवाह नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ ने कहा है कि श्रम क़ानूनों की हत्या अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के सिद्धान्तों का सरासर उल्लंघन है।

बीएमएस अध्यक्ष शाजी नारायण का कहना है कि 'श्रम क़ानूनों को ख़त्म किये जाने से ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होंगी, जहाँ क़ानून के राज का नामोनिशान ही नहीं रहेगा।'

भारत ने अब तक आईएलओ के 39वें कॉन्वेंशन पर दस्तख़त किये हैं। इसके आठ बुनियादी कॉन्वेंशन को ही श्रम क़ानूनों में अपनाया गया है। मज़दूरों के हक़ का क़त्ल करने से दुनिया भर में भारत की ऐसी बेइज़्ज़ती होगी कि इसका प्रतिकूल असर उस काल्पनिक विदेशी निवेश पर भी पड़ेगा जिसकी उम्मीद में तमाम ऐतिहासिक मूर्खताएँ की जा रही हैं।

ऐसा लगता है कि कोरोना संकट के आगे हमारी सरकारें बदहवास हो चुकी हैं, अपनी सुध-बुध गवाँ चुकी हैं। इनकी मति मारी गयी है। इन पर सत्ता का ऐसा नशा सवार है कि इन्हें उचित-अनुचित का भी होश नहीं। 

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