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कविता कृष्णन के सवालों पर क्यों नहीं होना चाहिए विचार? 

कविता कृष्णन के सवालों पर क्यों नहीं होना चाहिए विचार? 

कविता कृष्णन ने जिन सवालों को उठाया, उन सवालों को उठाने के लिए उन्हें पार्टी से अलग होना पड़े, इसके लिए पार्टी को भी अपने बारे में सोचने की ज़रूरत है। 

यह इत्तेफ़ाक़ ही था कि मिखाईल गोर्बचेव के निधन के ही समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) की नेता कविता कृष्णन ने पार्टी के पदों से अलग होने की सूचना सार्वजनिक की। इसका कारण व्यक्तिगत नहीं था। न ही पार्टी की कार्यशैली को लेकर कोई आपत्ति थी। इसका कारण कविता को अपने वैचारिक सवालों से जूझने के लिए पर्याप्त स्वतंत्र अवकाश की ज़रूरत था। इस प्रसंग में सबसे आश्चर्यजनक लेकिन स्वागतयोग्य बात थी पार्टी का उनके निर्णय को लेकर सम्मानपूर्ण रवैया।

हालाँकि पार्टी ने कविता को प्राथमिक सदस्यता से भी मुक्त कर दिया जो वे बनाए रखना चाहती थीं। लेकिन पार्टी ने उनके निर्णय के अधिकार को स्वीकार किया। इसके बाद कविता पर वामपंथी दलों, ख़ासकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सदस्यों की तरफ़ से हुए अपमानजनक आक्रमण की भी सीपीआई (एमएल) ने भर्त्सना की। वह उसे चुपचाप देखती नहीं रही।

आज भारत में जिस तरह की कटु और विषाक्त राजनीतिक संस्कृति के हम आदी हैं, उसमें यह सब कुछ किसी और दुनिया की ख़बर जैसा ही लगता है। अमूमन पार्टी से अलग होनेवाले पार्टी पर ही आक्रमण करते हैं, अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए पार्टी-नेतृत्व की लानत मलामत करते हैं। जवाब में पार्टी भी वैसा ही करती है। 

शायद ही ऐसा हो कि दोनों, अलग होने के क्षण परस्पर सम्मान का ध्यान रखें और उसे प्रदर्शित भी करें। किसी ने अगर आपके साथ 20, 30 बरस गुज़ारे हैं, तो उसके साथ अलग होने के बाद मामूली शिष्टाचार भी न बरतना सभ्यता की भारी कमी की सूचना है।

जनतांत्रिक संस्कृति यही होनी चाहिए। वामपंथी राजनीति में यह कटुता कुछ और अधिक दिखलाई पड़ती है। पार्टी से अलग होने पर संशोधनवादी या ग़द्दार जैसे विशेषण फ़ौरन चस्पा कर दिए जाते हैं। कविता कृष्णन के प्रसंग में यह नहीं हुआ है, यह प्रसन्नता का विषय है।

जनतंत्र विरोधी सत्ताएँ 

कविता कृष्णन ने पार्टी से अलग होने के अपने निर्णय का जो कारण बतलाया है, वह मात्र कम्युनिस्ट पार्टी के लिए नहीं, बल्कि सारी पार्टियों के लिए विचारणीय है। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए तो अवश्य। उन्होंने कहा है कि वह सोवियत संघ हो या पूर्व साम्यवादी देश, वहां कम्युनिस्ट पार्टियों की सत्ता के ख़ात्मे पर मात्र यह कहकर अफ़सोस नहीं करना चाहिए कि वह समाजवाद के प्रयोग की असफलता है। बल्कि यह स्वीकार करना चाहिए कि वे सत्ताएँ जनतंत्र विरोधी, तानाशाही वाली थीं। यह कहना और उनके पतन पर अफ़सोस करना एक झूठ को बढ़ावा देना है।

प्रायः सोवियत संघ और अन्य पूर्वी यूरोप के देशों में साम्यवादी सत्ताओं के ढह जाने के बाद यह रोदन सुनाई पड़ता है कि यह एक महान स्वप्न भंग है। लेकिन वे सत्ताएँ उन देशों के लोगों के लिए दुःस्वप्न थीं! उसका टूट जाना ही अच्छा था। 

कविता ने यह ग़लत नहीं कहा कि पूँजीवादी जनतंत्र की सारी ख़ामियों के बावजूद स्वीकार करना चाहिए कि साम्यवादी तानाशाहियाँ उनके मुक़ाबले कहीं अधिक दमनकारी और जनविरोधी थीं। उनके आगे साम्यवादी विशेषण लग जाने से उनके पाप धुल नहीं जाते।

सर्वहारा की तानाशाही

साम्यवादी तानाशाही के लिए कई प्रकार के तर्क दिए जाते रहे हैं। एक तो यह कि वर्ग संघर्ष के कई चरण होते हैं, उनमें अनिवार्य है सर्वहारा की तानाशाही। पूँजीवाद की पराजय के बाद भी उसके अवशेष रह जाते हैं जिनकी सफ़ाई ज़रूरी है। वर्ग शत्रु छिपे हुए जीवित रहते हैं। उनका ख़ात्मा ज़रूरी है। नवजात साम्यवाद से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह संसदीय जनतंत्र को तुरंत अपना ले क्योंकि वह जमे-जमाए पूँजीवाद की समर्थक पार्टियों से मुक़ाबला नहीं कर सकता। इसलिए सर्वहारा की तानाशाही अनिवार्य है। इसका व्यावहारिक अर्थ है कम्युनिस्ट पार्टी की तानाशाही। 

पार्टी नेतृत्व का शासन

क्रांति के हिरावल दस्ते में क्या हर कोई शामिल हो सकता है? इसलिए सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर पार्टी की तानाशाही क़ायम की जाती है। वह सामाजिक विवेक की स्वामी है, उसकी प्रवक्ता है। उसे सब कुछ मालूम है। जनहित क्या है, यह उससे बेहतर कोई नहीं जानता। पार्टी चलती है जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद के सिद्धांत पर। इसलिए पार्टी का नेतृत्व ही सर्वोपरि होगा। तो साम्यवाद की स्थापना के लिए या वर्ग के विलोप के लिए बीच में सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करनी होगी जिसके मायने हैं पार्टी का शासन, जिसका अर्थ है पार्टी नेतृत्व का शासन।

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इस शासन में पार्टी के मत से जो वास्तव में नेता का मत होता है, किसी तरह के ऐतराज़ या उसकी आलोचना की कोई जगह नहीं है। पार्टी जिसे मार्क्सवाद कहती है, उसके अलावा जो कुछ है, वह संशोधनवादी भटकाव है। उसे उपेक्षित करना ख़तरनाक है, उसका संपूर्ण उच्छेद ही सर्वहारा के हित की रक्षा कर सकता है।

बोल्शेविक क्रांति

प्रायः इस सिद्धांत के लिए स्टालिन को जिम्मेदार ठहराया जाता है लेकिन इसके प्रणेता तो लेनिन ही हैं। जिस 1917 की क्रांति को बोल्शेविक क्रांति के नाम से जाना जाता है उसमें तो बोल्शेविकों के अलावा अन्य कई दल थे। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने उस क्रांति पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसमें शामिल दूसरे लोगों को प्रताड़ित किया, इस बात पर आज भी चर्चा नहीं होती। क्योंकि लेनिन आलोचना के परे हैं। 

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स्टालिन ने अपने विरोधियों या आलोचकों को निबटाने के लिए जो सार्वजनिक मुक़दमे चलाए थे उनकी शुरुआत लेनिन ने ही की थी। उन्होंने सोशलिस्ट धड़े के नेताओं के ख़िलाफ़ सार्वजनिक मुक़दमा चलाया था। आप इसे न्याय का तमाशा ही कह सकते थे। ऐसे मुक़दमों में सजा पहले से ही मालूम होती थी। ऐसे ही मुक़दमे भारत में माओवादी जनता सरकारों के नाम पर करते हैं जिनमें पार्टी न्याय करती है।

लेनिन का अकाल

लेनिन के दमन के कारण ही किसानों ने सहयोग से इंकार किया जिसका परिणाम उन्हें भुगतना पड़ा। लेकिन इस कारण रूस को भयानक अकाल का सामना भी करना पड़ा जो लेनिन के अकाल के नाम से कुख्यात है। लेनिन के दमन की आलोचना के कारण वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, लेखकों को देश छोड़ना पड़ा। ख़ुद लेनिन ने अपने मित्र लेकिन आलोचक गोर्की को देश छोड़ने को बाध्य किया।

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लेनिन की जल्दी मृत्यु होने के बाद स्टालिन ने पार्टी की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया। फिर सोवियत संघ को कोई 3.5 दशक का यातना काल झेलना पड़ा। पूर्वी यूरोप में जो साम्यवादी सत्ताएँ क़ायम हुईं, उन्होंने भी यही रास्ता अपनाया। बीच-बीच में अगर हंगरी या चेकोस्लाविया जैसे देशों में जनतांत्रिक सुगबुगाहट हुई तो उसे सोवियत टैंकों ने शांत कर दिया।

चीन ने इस दमन को इतना स्थायी बना दिया है कि अब उसपर कोई चर्चा ही नहीं करता। साम्यवाद के चिह्न बचे रहने के नाम पर क्यूबा की तानाशाही का भी समर्थन किया जाता रहा है।

चूँकि साम्यवादी देश पूँजीवादी देशों से घिरे हैं, इसलिए वहाँ पूँजीवाद लौटने का ख़तरा हमेशा बना रहेगा। इसलिए सर्वहारा की तानाशाही में कोई ढील नहीं दी जा सकती। यानी जिसे संक्रमणकालीन व्यवस्था कहा गया था, वह स्थायी बनी रहेगी।

विडंबना यह है कि साम्यवाद को सर्वोच्च या सर्वश्रेष्ठ जनतंत्र कहा जाता है। लेकिन साम्यवादी दलों ने, जहाँ भी वे सत्ता में रहे, जनतंत्र को ध्वस्त कर दिया। बल्कि उसे बूर्ज़ुआ जनतंत्र कहकर उसकी खिल्ली उड़ाई गई। यह भी साफ़ है कि वर्ग शत्रु के सफ़ाए को क्रांति का दायित्व माननेवाले किसी भी प्रकार मानवाधिकार के सिद्धांत में विश्वास नहीं कर सकते थे।

यह आश्चर्य की बात न थी कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियाँ, जो अपने देश में जनतंत्र और मानवाधिकार के लिए संघर्ष करती हैं, साम्यवादी देशों के लोगों के लिए इन्हें ग़ैर ज़रूरी मानती हैं। 

चीन की सांस्कृतिक क्रांति और आज वीगन मुसलमानों के साथ उसके व्यवहार पर भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने चुप्पी बनाए रखी है।

रूस में तो अब साम्यवादी शासन भी नहीं है। फिर भी यूक्रेन पर उसके हमले की सीपीआई (एमएल) को छोड़कर किसी कम्युनिस्ट पार्टी ने बिना शर्त निंदा नहीं की है।

ये सवाल किसी भी वामपंथी की नींद ख़राब करने को काफ़ी हैं। कविता कृष्णन इनसे जूझने की आज़ादी चाहती हैं। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें पार्टी से अलग होना पड़े, इससे पार्टी को भी अपने बारे में सोचने की ज़रूरत है। परस्पर शिष्टाचार की बात अलग है, लेकिन पार्टी में रहकर क्यों इन प्रश्नों पर विचार नहीं किया जा सकता, यह कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए भी विचारणीय है।

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