अजय पंडिता की हत्या: अधिकांश मुसलिम कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ नहीं
कश्मीर के अनंतनाग ज़िले के एक गाँव में 40 साल के कश्मीरी पंडित सरपंच अजय पंडिता की आतंकवादियों द्वारा हत्या ने कश्मीरी पंडितों के पुराने घावों को न सिर्फ़ कुरेदा है बल्कि इस घटना ने पंडित समुदाय के साथ 1990 के दशक में कश्मीर घाटी में हुए भयंकर अत्याचार की छवि को पुनर्जीवित कर दिया है। ऐसी स्थिति होने के बावजूद इस समय सभी को शांत विचार-विमर्श की ज़रूरत है, न कि भावनात्मक प्रतिक्रिया की।
अजय पंडिता का परिवार 1990 के दशक में कश्मीर से पलायन कर गया था जब कश्मीरी पंडितों पर उग्रवाद और हमले अपने चरम पर थे। लगभग 2 साल पहले ही अजय पंडिता कश्मीर लौटे थे। उन्होंने अपने गाँव में सरपंच का चुनाव लड़ा और जीता। यह तथ्य कि शायद 95% मतदाता मुसलिम थे, यह दर्शाता है कि कश्मीरी मुसलमानों में से अधिकांश आज कश्मीरी पंडितों के ख़िलाफ़ नहीं हैं बल्कि उन्हें अतीत में पंडितों के प्रति किए गए घोर अपराध का एहसास है। यह केवल एक छोटा अल्पसंख्यक भाग है जो पंडितों के प्रति शत्रुता का भाव रखता है लेकिन चिंता की बात यह है कि यह अल्पसंख्यक भाग सशस्त्र है। बाक़ी के निहत्थे बहुमत लोग केवल अपनी जान गँवाने के डर से, मशीनगन से लैस कुछ मुट्ठी भर लोगों के सामने मूकदर्शक बने रहेंगे।
हालाँकि कश्मीरी पंडित लगभग 80 लाख कश्मीर की कुल आबादी में से केवल 4 लाख थे यानी सभी कश्मीरियों का लगभग 5%, वे सदियों से कश्मीरी मुसलमानों के साथ सौहार्द और सद्भाव से रहते थे। उनकी परेशानी केवल 1947 में शुरू हुई जब भारत का विभाजन निराधार दो राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुआ।
विभाजन का पूरा उद्देश्य जो ब्रिटिश शासकों द्वारा एक ऐतिहासिक झाँसा था, यह सुनिश्चित करना था कि एकजुट भारत पश्चिमी उद्योग के लिए चीन की तरह एक आधुनिक औद्योगिक विशाल और एक शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी के रूप में न उभरे। भारत में उपलब्ध सस्ते श्रम के कारण भारतीय उद्योग अपने उत्पादों को पश्चिमी उद्योगों के महंगे उत्पादों की तुलना में बहुत सस्ते दाम पर बेच सकते थे। अगर ऐसा होता तो पश्चिमी उद्योगों का महंगा माल कौन खरीदता क्या उनके बड़े पैमाने पर बंद होने के कारण बेरोज़गारी नहीं फैलती
इसलिए विकसित देशों का पूरा खेल भारत को चीन की तरह आधुनिक औद्योगिक विशालकाय देश बनने से रोकना है। और ऐसा करने के लिए वे अपने स्थानीय एजेंटों का इस्तेमाल कर लोगों के बीच धार्मिक, जातिगत, भाषाई, जातीय और क्षेत्रीय नफ़रत को बढ़ावा देते हुए इन सभी के बीच संघर्ष पैदा करते हैं।
एक बार जब हम विकसित देशों द्वारा रचे इस साज़िश को समझ लें तो कश्मीर सहित भारतीय उपमहाद्वीप में हो रही सभी चीज़ें पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाएँगी। मगर तब तक भड़काऊ एजेंट (जो कश्मीर में आतंकवादी हैं) का उपयोग करके सांप्रदायिक आग को बढ़ावा दिया जाता रहेगा।
मेरा मानना है कि 99% लोग अच्छे हैं, चाहे हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई आदि कोई भी हों। इसलिए 99% कश्मीरी मुसलमान अच्छे लोग हैं जिन्हें कश्मीरी पंडितों से कोई दुश्मनी नहीं है।
कश्मीर की समस्या का एकमात्र समाधान भारत और पाकिस्तान (बांग्लादेश सहित) के साथ एक धर्मनिरपेक्ष सरकार के तहत दृढ़ संकल्पित देशभक्त, आधुनिक दिमाग वाले नेताओं के नेतृत्व में, कश्मीर को साथ लेकर इस पुनर्मिलित भारत को तेज़ी से आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण की ओर ले जाना है। यद्यपि मुझे विश्वास है कि यह पुनर्मिलन अपरिहार्य है क्योंकि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश वास्तव में एक समान संस्कृति वाले देश हैं, मुग़ल काल से एक रहे हैं। यह अब से 10-15 साल बाद ही होगा। तब तक, मुझे यह कहते हुए दुख हो रहा है कि कश्मीर में अशांति बनी रहेगी और कश्मीरी पंडित कश्मीर में असुरक्षित रहेंगे।