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अयोध्या: अब काशी और मथुरा पर सवाल

अयोध्या: अब काशी और मथुरा पर सवाल

श्रीराम जन्म भूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद दबे स्वर में यह सवाल उठाया जा रहा है कि इसके बाद क्या वाराणसी और मथुरा के विवादित मसजिदों को लेकर भी आंदोलन शुरू हो सकता है?

श्रीराम जन्मभूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद दबे स्वर में यह सवाल उठाया जा रहा है कि इसके बाद क्या वाराणसी और मथुरा के विवादित मसजिदों को लेकर भी आंदोलन शुरू हो सकता है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने जन्मभूमि विवाद पर फ़ैसले के थोड़ी देर बाद ही साफ़ किया कि मथुरा और काशी (वाराणसी) उनके एजेंडे में नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा कि आंदोलन संघ का काम नहीं। उसका काम चरित्र निर्माण है और आगे संघ यही काम करेगा। मोहन भागवत के इस बयान से धार्मिक स्थलों के विवाद पर पूर्ण विराम लगने की उम्मीद जगती है। लेकिन विश्व हिंदू परिषद का रुख अभी साफ़ नहीं है। राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान ख़ास कर 1992 में बाबरी मसजिद को तोड़े जाने के बाद परिषद का एक नारा था- 'बाबरी मसजिद झाँकी है, काशी- मथुरा बाक़ी है'। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से विश्व हिंदू परिषद के आक्रामक रुख में नरमी दिखायी दे रही है। लेकिन परिषद का अगला एजेंडा क्या होगा, यह तय नहीं है।

धार्मिक स्थलों को लेकर विवाद पर एक राहत की बात यह है कि केंद्र सरकार ने 1991 में एक क़ानून बनाकर तय कर दिया था कि 15 अगस्त 1947 यानी आज़ादी के दिन धार्मिक स्थलों की जो स्थिति थी उसे बरक़रार रखा जाएगा। यह क़ानून मंदिर, मसजिद, चर्च, गुरुद्वारा और अन्य सभी धार्मिक स्थलों के स्वरूप को बरक़रार रखने की गारंटी देता है। 'द प्लेसेज़ ऑफ़ वर्शिप (स्पेशल प्रोविज़न) एक्ट 1991' के इस क़ानून से राम जन्मभूमि और बाबरी मसजिद के विवादित स्थल को अलग रखा गया था। 

इस क़ानून का एक मक़सद एक तरह से मुसलमानों और दूसरे धर्म के लोगों को यह आश्वस्त करना था कि राम जन्मभूमि के अलावा सभी धर्म स्थलों को उसी रूप में सुरक्षित रखा जाएगा जिस रूप में वे 15 अगस्त 1947 को थे। यह क़ानून उस समय बना था जब केंद्र में कांग्रेस और धर्म निरपेक्ष पार्टियों का दबदबा था। अब देश का राजनीतिक माहौल बदल चुका है। भारतीय जनता पार्टी की नीति देश की बाक़ी पार्टियों से अलग है। राम जन्मभूमि मंदिर सीधे तौर पर बीजेपी के एजेंडे का हिस्सा था। हालाँकि काशी और मथुरा बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे पर अभी तक नहीं रहे हैं। भविष्य में विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का रुख इस मुद्दे पर महत्वपूर्ण होगा।

काशी और मथुरा के विवादित स्थल पहले ज़्यादा चर्चा में नहीं रहे। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि विवादित स्थल संबंधित धर्म के लोगों के क़ब्ज़े में हैं। अयोध्या में स्थिति 1949 में बदल चुकी थी। 22 दिसंबर की रात यहाँ बाबरी मसजिद के भीतर मूर्तियाँ रख दी गयी थीं और यह हिंदुओं के क़ब्ज़े में ही था, क्योंकि वहाँ लगातार पूजा होती रही थी। यही मुद्दा हिंदुओं के पक्ष में फ़ैसला आने का प्रमुख कारण बना। 

वाराणसी के ज्ञानवापी मसजिद का मामला भी इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहुँच चुका है। यह मसजिद वाराणसी के मशहूर विश्वनाथ मंदिर के क़रीब है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर एक मुक़दमे में दावा किया गया कि 1664 में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने एक मंदिर को तोड़वाकर यहाँ मसजिद का निर्माण कराया। दावा यह भी किया गया कि मंदिर का निर्माण सम्राट विक्रमादित्य ने कराया था। काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट भी इस विवाद को उच्च न्यायालय ले गया लेकिन धार्मिक स्थल सुरक्षा क़ानून 1991 के चलते इस पर कार्रवाई आगे नहीं बढ़ी।

मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि और ईदगाह का विवाद भी औरंगज़ेब के दौर का ही है। आरोप है कि औरंगज़ेब ने 1669 में एक मंदिर को तुड़वाकर यहाँ ईदगाह और मसजिद का निर्माण कराया। यह विवाद अँग्रेज़ों के जमाने में भी अदालत तक पहुँचा था।

कुछ दस्तावेज़ों में ज़िक्र किया गया है कि 1935 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फ़ैसला दिया कि ज़मीन पर मालिकाना हक़ वाराणसी के राजा का है। बाद में 1944 में उद्योगपति युगल किशोर बिड़ला ने यह ज़मीन ख़रीद ली। 1951 में बिड़ला ने श्रीकृष्ण जन्म भूमि ट्रस्ट बनाया और ज़मीन ट्रस्ट को सौंप दी। 1968 में यह विवाद एक तरह से ख़त्म हो गया क्योंकि ट्रस्ट और ईदगाह कमेटी ने एक समझौता किया कि क़रीब साढ़े 13 एकड़ ज़मीन जिस पर ईदगाह और मसजिद बनी है उस पर ईदगाह कमेटी का प्रबंधन का हक़ बना रहेगा। इससे लगी ज़मीन पर जहाँ कभी बदहाल अवस्था में केशवनाथ मंदिर था वहाँ अब श्रीकृष्ण जन्म भूमि मंदिर है।

'धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं'

काशी और मथुरा की मसजिदों को फ़िलहाल 1991 के क़ानून के मुताबिक़ सुरक्षा मिली हुई है, क्योंकि 15 अगस्त 1947 को इन दोनों जगहों पर मसजिदें मौजूद थीं। जब तक 1991 के क़ानून में बदलाव नहीं होता तब तक इन दोनों मसजिदों और बाक़ी सभी धर्मस्थलों पर 15 अगस्त 1947 की स्थिति को बरक़रार रखना सरकार की ज़िम्मेदारी है। श्रीराम जन्मभूमि पर अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी इसका ज़िक्र किया है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। विश्व हिंदू परिषद के नेताओं के बयान से भी यह लग रहा है कि फ़िलहाल उनका पूरा ध्यान अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण पर केंद्रित होगा और बाक़ी विवाद हाशिए पर पड़े रहेंगे। लेकिन राजनीति को भगवान के नाम पर अपने पक्ष में करने की नीयत हमेशा एक नहीं रह सकती है।

आगे क्या

भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार का अवसर राम जन्मभूमि आंदोलन ने दिया, इस बात के अनेक सबूत हाल के इतिहास में मौजूद हैं। 1990 में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या तक ऐतिहासिक यात्रा के दौरान पार्टी का जनाधार बढ़ा, हालाँकि राज्य स्तर पर उसके मुखर विरोधियों की संख्या भी बढ़ी। विश्व हिंदू परिषद ने 1984 में राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत की थी। उसकी परिणति 9 नवंबर 2019 को तब हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जगह को राम जन्मभूमि को देने का फ़ैसला दिया। लेकिन बीजेपी ने 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद तक पहुँचा कर राजनीति में अपना दम साबित करना शुरू कर दिया। बीजेपी अब प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में है और धार्मिक विवादों का भविष्य भी बीजेपी पर निर्भर होगा।

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