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करतारपुर: दिलों के बीच की दूरियाँ तो मिटेंगी, पर कुछ ख़तरा भी बढ़ेगा?

करतारपुर: दिलों के बीच की दूरियाँ तो मिटेंगी, पर कुछ ख़तरा भी बढ़ेगा?

भारत-पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों द्वारा अपने-अपने देश की हदों में किए गए उद्घाटन समारोहों के बाद, 9 नवंबर से करतारपुर गलियारा बाक़ायदा शुरू हो गया। इससे दिलों के बीच की दूरियाँ तो मिटेंगी, लेकिन क्या राजनीतिक ख़तरे नहीं बढ़ेंगे?

भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों द्वारा अपने-अपने देश की हदों में किए गए उद्घाटन समारोहों के बाद, 9 नवंबर से करतारपुर गलियारा बाक़ायदा शुरू हो गया। इससे दिलों के बीच की दूरियाँ तो मिटेंगी, लेकिन इसी के साथ कुछ सवाल भी उठने लगे हैं, जो भारत, पाकिस्तान, पंजाब के कतिपय सियासतदानों को घेरेंगे। पाक प्रधानमंत्री इमरान ख़ान, वहाँ के सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा, पहले बीजेपी और बाद में कांग्रेस से बाग़ी हुए नवजोत सिंह सिद्धू, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, अकाली सरपरस्त पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, शिरोमणि अकाली दल प्रधान सुखबीर सिंह बादल, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और श्री अकाल तख्त साहिब करतारपुर कॉरिडोर अथवा गलियारे से जुड़े अहम सियासी किरदार हैं। तीन अन्य अहम किरदार अब परिदृश्य में नहीं हैं। वे हैं मरहूम अकाली नेता जत्थेदार कुलदीप सिंह वडाला, दिवंगत भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और भूतपूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़।

वडाला कई दशकों तक करतारपुर कॉरिडोर के लिए संघर्षरत रहे। वाजपेयी ने उनके पुरजोर दबाव के बाद यह मामला शरीफ़ के सामने उठाया था और तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने इसके लिए हामी भर दी थी लेकिन बदले हालात में यह मामला हाशिए पर चला गया। फिर बरसों बाद यह उठा, इमरान ख़ान के शपथ ग्रहण समारोह में।

नवजोत सिंह सिद्धू वहाँ समारोह में शिरकत के लिए गए थे और उन्होंने नवनियुक्त प्रधानमंत्री तथा सेना प्रमुख के आगे यह मामला उठाया तो तत्काल सहमति दे दी गई। सिद्धू की दोस्ती का सदक़ा तो था ही, एक और ख़ास पहलू व तथ्य इसके पीछे है जिससे बहुत कम लोग वाक़िफ़ हैं। करतारपुर पाकिस्तान के शहर नावारोल के पास पड़ता है और नारोवाल से कुछ दूरी पर पाक सेना प्रमुख जनरल बाजवा का पुश्तैनी गाँव है। बाजवा पंजाबी जट्ट हैं और नवजोत सिंह सिद्धू से उनकी दोस्ती के पीछे एक वजह यह तो बनी ही, दूसरे वह कहीं न कहीं गुरुनानक देव की प्रासंगिकता से भी पाक हुक्मरानों से कुछ ज़्यादा वाक़िफ़ हैं। इससे भी कि करतारपुर कॉरिडोर उन्हें भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ मक़बूलियत दिला सकता है!

खुला सच है कि नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब सरकार में मंत्री थे और कैप्टन अमरिंदर सिंह की नाराज़गी को धत्ता बता कर इमरान ख़ान के शपथ ग्रहण समारोह में शिरकत करने पाकिस्तान गए थे, जहाँ उन्होंने करतारपुर कॉरिडोर बनाने की माँग की थी। पाकिस्तान से ऐसा करके लौटने के बाद सिद्धू के समीकरण बिगड़ते गए और अंततः वह कांग्रेस की राजनीति में भी हाशिए पर आ गए तथा मंत्री पद तक से हाथ धोना पड़ा। अब उन्हें करतारपुर कॉरिडोर के उद्घाटन के लिए पाकिस्तान जाने के लिए अपने देश में ख़ासी फ़ज़ीहत उठानी पड़ी, जबकि वहाँ (पाकिस्तान में) उन्हें अतिरिक्त सम्मान हासिल हुआ। उसी दिन वहाँ गए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह, बादल परिवार और भारत से गए अन्य प्रबुद्धजनों ने इमरान ख़ान से निश्चित दूरी बनाए रखी तो नवजोत सिंह सिद्धू, इमरान ख़ान की ऐन बगल में तो बैठे ही बल्कि इमरान ने जमकर उनकी प्रशंसा भी की। इधर केंद्र और राज्य सरकार ने सिद्धू की इस यात्रा में ख़ूब अड़चनें डाली थींं। 

अब अहम सवाल यह है कि भविष्य में करतारपुर कॉरिडोर के संदर्भ में नवजोत सिंह सिद्धू की भूमिका और राजनीति क्या होगी और उसकी कितनी प्रासंगिकता होगी। 

एक तरह से देखा जाए तो नवजोत सिंह सिद्धू करतारपुर कॉरिडोर के निर्माण के 'महानायक' हैं लेकिन कांग्रेस और बीजेपी उन्हें 'खलनायक' कहने से गुरेज नहीं करतींं। उनकी जिस पाकिस्तान यात्रा की बदौलत यह कॉरिडोर वजूद में आया, उस यात्रा को ख़ासा विवादास्पद बताकर सिद्धू को पाक एजेंट तक कहा गया। अब लाखों श्रद्धालु एक साल के भीतर पाकिस्तान जाकर श्री करतारपुर साहिब गुरुद्वारे के खुले दर्शन करेंगे।

भारत-पाक संबंधों में शाश्वत तनाव के बीच ऐसा काम करवा जाना क्या इतना आसान और संभव था? करतारपुर कॉरिडोर से जुड़े भारतीय पक्षों को यह बख़ूबी मालूम है लेकिन वे शायद ही इस पर निष्पक्षता और बगैर पूर्वाग्रह बोलें।

लेकिन 'श्रेय' की झूठी राजनीति का खेल पंजाब में शुरू हो चला है। कभी टूटने तो कभी जुड़े रहने के कमज़ोर पुल पर खड़ा अकाली-बीजेपी गठबंधन और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की अगुवाई में पंजाब कांग्रेस, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और कुछ अन्य सिख संगठन अपने-अपने तौर-तरीक़ों के साथ इस दौड़ में हैं। उद्घाटन के मौक़े पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आए और प्रचार की अपनी चिर-परिचित शैली का खुला प्रदर्शन कर गए। 

इसे अकाली बीजेपी गठबंधन लपक रहा है तो कांग्रेस की समूची प्रदेश इकाई और मुख्यमंत्री सहित तमाम मंत्री ज़ोर शोर से कहते फिर रहे हैं कि ऐसा राज्य सरकार ने संभव बनाया।

श्रेय लेने में कैप्टन अमरिंदर सिंह भी पीछे नहीं

कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी अपने दोनों कार्यकाल में पंथक अथवा सिख मामलों की तलवार को अपने म्यान में रखने की कोई कसर शेष नहीं रखी। करतारपुर कॉरिडोर प्रकरण में भी उन्होंने खुलकर ऐसा किया और कर रहे हैं। सर्वोच्च सिख संस्था श्री अकाल तख्त साहिब के मुख्य जत्थेदार को खुले तौर पर यह प्रभाव दिया कि पंजाब की कांग्रेस सरकार उनके आगे नतमस्तक है, उनसे बाहर नहीं है! यह अकालियों को उनकी भाषा में उनका जवाब है। 

आस्था के बीच का यह राजनीतिक खेल अवाम के बड़े तबक़े को हाल-फ़िलहाल खुलकर दिखाई नहीं दे रहा। जिन्हें जो करना है, वे सूझ-बूझ के साथ आराम से कर रहे हैं। होड़ लेने की राजनीति का ही नतीजा था कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने दो बार मंत्रिमंडल की आधिकारिक मीटिंग सुल्तानपुर लोधी और बाबा बकाला में की। ऐसा पहली बार था। कांग्रेस और अकाली-बीजेपी गठबंधन ने करतारपुर कॉरिडोर को हाल में संपन्न हुए पाँच उपविधानसभा चुनाव में भी ख़ूब भुनाया। खैर, करतारपुर कॉरिडोर के उद्घाटन समारोह व सुल्तानपुर लोधी में जारी आयोजनों में शिरकत के लिए 9 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनके कई वरिष्ठ मंत्री, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल सहित कई सियासी दिग्गज और धार्मिक रहनुमा आए और अपनी-अपनी भूमिका निभा कर चले गए। 

करतारपुर कॉरिडोर का श्रेय लेने वालों में से एक की भी चिंता में यह शुमार नहीं था कि महान गुरु नानक देव जी की यह सरजमींं ‘नशे के छठे दरिया’ में कैसे तब्दील हो रही है और यहाँ से घर लौटकर जाने वाले कितने किसान ख़ुदकुशी करेंगे।

प्रसंगवश, करतारपुर कॉरिडोर की बाबत कुछ धुंधलके ऐसे हैं जो आने वाले दिनों में साफ़ होंगे। पाकिस्तान में उद्घाटन के मौक़े पर और वहाँ की सरकार द्वारा सिखों की अद्भुत मेहमाननवाज़ी ने इमरान ख़ान को एकबारगी इस समुदाय का बहुत बड़ा तरफ़दार घोषित कर दिया है। सरगोशियाँ हैं कि पाक सेना को हरगिज यह बर्दाश्त नहीं कि उसके कठपुतली प्रधानमंत्री के कद में किसी भी स्तर पर इज़ाफा हो। उधर, भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बरती गई ऐसी ज़बरदस्त उदारता व सदाश्यता के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इशारा देखा जा रहा है, जो लंबे अरसे से सिखों के बीच पैठ बढ़ाने में सक्रिय है। 

यह भी मौंजू है कि दशहरे के मौक़े पर नागपुर में हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के सिलसिले में संघ प्रमुख मोहन भागवत के बयान का दुनिया भर के बड़े सिख तबक़े ने मुखर तथा तार्किक विरोध किया था। ख़ुद श्री अकाल तख्त साहिब के मुख्य जत्थेदार ने आरएसएस को सिख विरोधी संगठन बताते हुए इस पर प्रतिबंध की माँग की थी। हाल-फ़िलहाल खालिस्तानी ताक़तें भी अपेक्षाकृत खामोशी अख्तियार किए हुए हैं। किसी प्रमुख संगठन का बयान तक नहीं आया। जानकारों का मानना है कि यह किसी साज़िश का हिस्सा हो सकता है। श्री ननकाना साहिब में सक्रिय रहने वाले अलगाववादी संगठन, करतारपुर साहिब कॉरिडोर के इस्तेमाल की बाबत कैसे ख़ामोश बैठे रह सकते हैं! तो यह ख़तरा भी अपनी जगह कायम है।

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