कर्नाटक चुनाव के बाद जे पी नड्डा को भारत से माफ़ी माँगनी चाहिए ?
जगत प्रकाश नड्डा भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और राज्यसभा के सदस्य भी हैं। लंबे समय से राजनीति में स्थापित जे पी नड्डा की शिक्षा पटना और हिमाचल प्रदेश दोनो ही जगह हुई है। वो पटना के प्रतिष्ठित मिशनरी ‘सेंट जेवीयर्स स्कूल’ से शिक्षा प्राप्त हैं इसलिए यह बात भी तय है कि वह एक होनहार और शानदार मेधा के छात्र रहे होंगे। लेकिन कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान जब वह अपने एक भाषण में 2014 के पहले के भारत के बारे में अपनी जानकारी देना शुरू करते हैं तो लगने लगता है कि उनकी राजनीतिक मजबूरी ने उनके बौद्धिक विकास को अंधेरे कोने में बिठा दिया है। एक चालाक चुनावी वक्ता की तरह वह जोर जोर से जनता के साथ एकदिशीय ‘संवाद’ स्थापित करने की कोशिश करते हुए सवाल करते हैं कि “9 साल पहले कैसा भारत था? भ्रष्टाचार के नाम से जाना जाने वाला भारत था!”
2014 के पहले के भारत को भ्रष्ट भारत......कहकर उन्हे अभी और भी कुछ कहना बाकी था इसलिए वह फिर से जनता से सवाल पूछकर तुरंत ही जवाब देने के अंदाज में कहते हैं “कैसा भारत था? फैसले नहीं लेने वाला भारत था!” भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष को बोलते समय बहुत आत्मविश्वास था और वे इस बात को सामने खड़ी जनता में इंजेक्ट कर देना चाहते थे कि 2014 के पहले का भारत फैसले तक नहीं ले पाता था। उन्हे शायद इसके बाद रुक जाना चाहिए था लेकिन सामने बैठी भीड़ के विश्वास और चुनाव में किसी भी तरह जीत हासिल कर लेने की प्रवृत्ति और सत्ता का उन्माद उन्हे वह कहने पर मजबूर कर गया जिस पर वह स्वयं एक दिन लज्जित हो सकते हैं। 2014 के पहले के भारत के बारे में उन्होंने कहा कि “कैसा भारत था? (हाथों से घुटनों के बल चलने की भाव भंगिमा बनाते हुए) घुटने टेक कर चलने वाला भारत था! और जब आपने मोदी जी को प्रधानमंत्री बनाया, तो दुनिया में सिक्का जमाने वाला भारत बन गया! इस बात को भी समझना चाहिए।”
सवाल ये है कि भारतीय राजनेता होने के नाते क्या सच में वह यह कहना चाह रहे हैं कि 2014 के पहले का भारत भ्रष्ट और कमजोर भारत था? फैसले न लेने वाला भारत था? और घुटने टेक कर चलने वाला भारत था? अच्छी शिक्षा और बेहतर मेधा के बावजूद शायद उन्हे नहीं मालूम कि 2014 के भारत के पहले का भारत एक अनंत काल से चला आ रहा भारत रहा है जिसने 2014 से पहले ही बहुत बार दुनिया भर में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी और तमाम सम्मान हासिल कर चुका था।
भारत की उपस्थिति और उपलब्धियों की जानकारी न होना एक व्यक्तिगत या दलगत समस्या हो सकती है पर यह तो तय है कि यह सम्पूर्ण भारत की समस्या नहीं है। भारत जब आजाद नहीं था, अंग्रेजों ने जब भारत के शोषण को युद्ध स्तर पर जारी रखा हुआ था, करोड़ों किसान अंग्रेजों की नीतियों की वजह से जान दे चुके थे तब भी भारत औपनिवेशिक सत्ता के आगे कभी नहीं झुका। हर बार नई नीतियों और रणनीतियों के साथ अलग अलग व्यक्तित्वों और विचारधाराओं के संगम से भारत ने एकता की वह मिसाल कायम की जिससे औपनिवेशिक सत्ता के पैर उखड़ गए।
15 अगस्त 1947 को मिली आजादी सिर्फ एक देश को मिली आजादी नहीं थी बल्कि महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, पटेल के नेतृत्व में, क्रांतिकारियों के साथ, सम्पूर्ण भारतीय जनमानस के सहयोग से भारत के स्वतंत्रता संघर्ष ने जो मिसाल पेश की वह अफ्रीका महाद्वीप और लैटिन अमेरिका के तमाम देशों के लिए आजादी का नया द्वार खोल गया। एक सर्वशक्तिमान सत्ता को जिसके साम्राज्य का सूरज कभी नहीं डूबता था, को अहिंसक हथियारों प्रेम और सत्य का सहारा लेकर विचारधाराओं और विवेक से मात दे देना ‘घुटनों के बल चलना’ नहीं था।
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स्वतंत्रता संघर्ष के दौर में जो घुटनों के बल चली वह थी झूठे राष्ट्रवाद के पीछे खड़ी देश को विभाजित करने वाली एक ऐसी सोच जिसे सिर्फ एक धर्म और उसमें अपने लिए छिपे एजेंडे के सिवाय कुछ नहीं सूझ रहा था। यदि जेपी नड्डा उसी सोच का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं या उसके बारे में बात कर रहे हैं तो यह सिर्फ़ उनके फायदे के लिए शायद ठीक हैं।
सवाल यह भी पैदा होता है कि जब जेपी नड्डा 2014 के पहले के भारत को ‘घुटने टेक कर चलने वाला भारत’ कहते हैं तब क्या उनका यह मानना है कि भारतीय फौज 2014 के पहले घुटने टेक कर चलती थी? वह फौज जिसने भारत की सीमाओं की रक्षा की, वह फौज जिसने पाकिस्तान जैसे राष्ट्रों की हर साजिश को नाकाम किया, वह फौज जिसे ‘स्थितियाँ बिगड़ने पर’ सरकारों द्वारा याद किया जाता है, क्या ऐसी फौज कभी घुटने टेक कर चल सकती है? उन्हे याद करना चाहिए कि यह वही भारत है जिसमें 1971 के युद्ध में परमवीर चक्र फ्लाइंग ऑफिसर निर्मल जीत सिंह सेखों श्रीनगर एयर बेस को बचाने के लिए अकेले पाकिस्तानी एयर फोर्स के 6 विमानों(F-86 विमान) से टकरा गए और श्रीनगर एयर बेस बचा लिया।
60 के दशक में जब भारत, पाकिस्तान और चीन के साथ युद्ध लड़ रहा था तब भारत में एक और समस्या पैर पसारे खड़ी थी, वह समस्या थी खाद्यान्न की कमी। औपनिवेशक ढांचे ने भारत की अर्थव्यवस्था और किसानों की रीढ़ तोड़ दी थी इसके बावजूद न तो भारतीय किसान और न ही तत्कालीन भारत सरकार; किसी भी देश के सामने ‘घुटने टेक कर’ नहीं चली। दो प्रधानमंत्रियों लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी के नेतृत्व मेंभारत रत्न सी सुब्रमण्यम ने हरित क्रांति को जन्म दिया, उनके नेतृत्व में भारत के किसानों, मजदूरों और एम एस स्वामीनाथन जैसे वैज्ञानिकों ने यह सुनिश्चित किया कि भारत भूखा नहीं रहेगा। भारत ने कभी भी, न ही वैश्विक समुदाय के सामने और न ही भूख के सामने घुटने टेके। आज भारत में इतना खाद्यान्न पैदा हो रहा है कि भारत की सरकार में यह हौसला आया है कि 2007-08 के राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन को 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का रूप दे दिया गया। 2013 से देश के हर गरीब और भूखे को यह अधिकार है कि भारत सरकार उसे और उसके परिवार को खाद्यान्न उपलब्ध करवाए। यह हरित क्रांति ही थी जिसके कारण वर्तमान की नरेंद्र मोदी सरकार को कोरोना काल में मुफ़्त खाद्यान्न का हौसला दिया। यह बात तो नड्डा जी के समझ में आ गई होगी कि भारत पिछले नौ सालों में ही खाद्यान्न में आत्मनिर्भर नहीं हुआ है!
भारतवर्ष जिसे नड्डा जी ‘घुटने टेक कर चलने वाला भारत’ कह रहे हैं उसने तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बावजूद पहले 1974 में ‘ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा’ और बाद में 1998 में ‘ऑपरेशन शक्ति’ के माध्यम से परमाणु हथियारों में सक्षमता हासिल की थी।
1969 में आज से 53 साल पहले जब इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं तब इसरो का निर्माण हुआ था जिसने आज के भारत को अंतरिक्ष विज्ञान में सक्षम बनाया। एक एक करके हजारों सीढ़ियाँ चढ़ चुका इसरो आज चाँद पर जाने को तैयार है। 2008 में चंद्रयान मिशन के बाद तुरंत ही तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने चंद्रयान-2 के लिए अनुमति प्रदान कर दी थी। अगर घुटनों के बल चलने वाला भारत होता तो 2013 में चंद्रयान-2 प्रोजेक्ट से रूस के पीछे हट जाने के बाद यह मिशन रुक जाता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भारतीय वैज्ञानिकों ने अपनी काबिलियत के दम पर आगे ही बढ़ते रहने का फैसला किया।
भाभा परमाण्विक केंद्र, आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थान घुटनों को टेक कर नहीं बने उसके लिए राजनैतिक नेतृत्व के साथ साथ भारतीयों की योग्यता का इस्तेमाल किया गया। शायद नड्डा जी को नहीं पता हो लेकिन औपनिवेशिक सत्ता के अधीन रहने के बाद राष्ट्रों के क्या हाल होते हैं उसे वह अफ्रीका महाद्वीप के देशों से सीख सकते है। भारत ने चाहे जो किया हो, लेकिन वह घुटने टेक कर कभी नहीं चला। उन्हे क्यों यह समझ नहीं आता कि वह भारत कैसे ‘घुटने टेक कर चलने वाला’ हो सकता है जहां दो-दो ऐसे प्रधानमंत्री रहे हैं जिन्होंने देश के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की और अतिवादियों के द्वारा मार दिए गए।
जेपी नड्डा को क्यों समझ नहीं आया कि ‘भारत घुटने टेक कर’ नहीं चल सकता था उसके पीछे उनकी एक और रैली में दिए गए उनके ही भाषण के इस अंश को समझना चाहिए जिसमें वह कहते हैं कि “जो मोदी जी का आशीर्वाद है उससे कर्नाटक कहीं वंचित न रह जाए इसलिए मेरा आपसे निवेदन है कि आपको कमल को जिताना है और कर्नाटक के विकास को आगे बढ़ाना है।” बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा अपनी पार्टी के नेता और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यक्तिनिष्ठ प्रशंसा में इतने मुग्ध हो गए कि उन्हे यह ख्याल ही नहीं रहा कि भारत एक लोकतंत्र में हैं जहां की जनता के द्वारा प्रतिनिधि चुने जाते हैं जहां जनता प्रतिनिधियों को आशीर्वाद देती है, जन प्रतिनिधि जनता के सामने दंडवत लेटता है, अनुनय, विनय करता है ताकि उसे उसका अमूल्य मत अर्थात वोट, चुनाव में मिल सके। कई बार वो जनता की गालियां भी सुनता है।
किसी नेता के कद को भारत की जनता के कद के सामने खड़ा कर देना, उससे ऊंचा साबित करने की कोशिश करना यह भारत का अपमान है, यह वह बात है जिससे भारत लज्जित हो सकता है। जिस भारत ने राजा-महाराजों की संस्कृति से लड़ाई करते हुए औपनिवेशिक दमन को झेला है वहाँ जनता को आशीर्वाद देने वाले नेता को चुने जाना या उसे चुने जाने के लिए तरह तरह के वैचारिक दबाव बनाना लोकतंत्र को अस्वस्थ बनाता है, मैं तो इसे ‘लोकतान्त्रिक अपराध’ की संज्ञा दूँगी।
किसी भी समृद्ध और संवेदनशील लोकतंत्र में चुनाव सिर्फ एक प्रक्रिया नहीं है बल्कि यह सत्तासीन दल और तमाम विपक्षी दलों के बीच एक जबरदस्त अभिक्रिया है जिसमें लोकतंत्र की व्यापकता को बढ़ाने और बनाए रखने के लिए एक निष्पक्ष चुनाव आयोग की उत्प्रेरक के रूप में केन्द्रीय भूमिका होती है। लेकिन जब किसी सत्तारूढ दल और उसके नेतृत्व को स्वयं के ब्रम्ह होने का एहसास होने लगता है तब लोकतंत्र के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया धीमी होने लगती है और अंततः एक जगह जाकर रुक जाती है।
किसी भी सूरत में चुनाव जीतने की कोशिश, भले ही किसी व्यक्ति, दल या कंपनी के लिए अहम हो लेकिन यह दृष्टिकोण लोकतंत्र के धागों को अक्सर छिन्न भिन्न कर देता है। हर हाल में चुनाव जीतने की सोच शब्दों और शैली में लगाम नहीं लगा पाती, और अक्सर यह उन संस्थाओं के अतिक्रमण के साथ बढ़ती चली जाती है जिन संस्थाओं पर लोकतंत्र को बचाए रखने का संवैधानिक दायित्व है। जेपी नड्डा और उनकी वैचारिकी उस भारत का निर्माण करना चाह रहे हैं जिसे संविधान सभा के नेतृत्व में पूरे देश के प्रतिनिधि 75 वर्ष पहले ही पूर्णतया नकार चुके हैं।
जेपी नड्डा के विचार और यह सोच कि भारत 2014 के पहले ‘घुटने टेक कर चलने वाला भारत’ था, भावी भारत के हित को देखते हुए नकार दी जानी चाहिए।
और अब लेख का समापन करते करते तो कर्नाटक चुनाव के परिणाम भी आ गए, परिणामों से साफ़ है कि इस सोच को न सिर्फ़ नकारा गया है बल्कि एक किरदार को लोकतान्त्रिक झटका मिला है। बीजेपी और नड्डा जी को समझ आ जाए तो अच्छा है अन्यथा जनता अपने लोकतान्त्रिक अधिकार का इस्तेमाल करते हुए ऐसे विचारों पर अपने तरीक़े से झटके देने में माहिर है।