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भाजपा की हार को कमतर दिखलाना बेईमानी ! 

भाजपा की हार को कमतर दिखलाना बेईमानी ! 

कर्नाटक में भाजपा की हार को एक बौद्धिक तबका पचा नहीं पा रहा है और वो तमाम तरह के तर्कों से जवाब देने की कोशिश कर रहा है। लेखक और स्तंभकार अपूर्वानंद ने ऐसे ही बौद्धिकों की चुटीले अंदाज में खबर ली है। पढ़िएः 

कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी की फैसलाकुन जीत के चलते राजनीतिक विश्लेषकों और टीवी समाचार प्रवाचकों को थोड़ा आराम मिल गया है। चुनाव नतीजे जब आ ही रहे थे, कुछ समय तक ऐसा लगा कि कांग्रेस की सीटें कहीं 113 के आस पास ही न रह जाएँ। अगर ऐसा हुआ तो क्या होगा, यह सवाल बार बार पूछा जाने लगा। भारतीय जनता पार्टी के नेता, जो जनमत पर डाका डालने में महारत को चाणक्य नीति या कृष्ण नीति कहकर शेखी बघारते हैं, अपने प्लान बी की तरफ़ इशारा करने लगे। बहुत दिन नहीं गुजरे जब सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में इसी प्लान बी का इस्तेमाल करके सरकार गिराने की भाजपा की तिकड़म को ग़ैरक़ानूनी ठहराया था। लेकिन जो दल अनीति को चाणक्य नीति कहकर उसके लिए शाबाशी माँगता है और जिसकी इस तिकड़मबाज़ी की ढिठाई पर विश्लेषक वारी जाते हैं, उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय की इस लानत का क्या मतलब!

जब नतीजे आ गए और कांग्रेस पार्टी ने 135 सीटें जीत लीं तो कहा जाने लगा कि यह भाजपा की हार नहीं, कांग्रेस की जीत है। अब सीटों की संख्या पर नहीं, मत प्रतिशत की चर्चा की जाने लगी। आख़िर भाजपा ने 36% मत हासिल कर लिए हैं जो पिछले चुनाव जितने ही हैं तो फिर उसकी हार कहाँ हुई? 

भाजपा के मत प्रतिशत का स्थिर रहना अवश्य चिंता का विषय है। इसका अर्थ है कि मतदाताओं का  एक ऐसा हिस्सा है जो हिंदुत्व के नशे में अपनी रोज़मर्रा की तकलीफ़ भूल गया है। लेकिन एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जिसने पहले भाजपा को वोट दिया था और अब उसने कांग्रेस को चुना है। अगर जनता दल( सेक्युलर) के मतदाताओं ने अपनी प्राथमिकता बदली है तो वह भी महत्वपूर्ण है। यानी उनके लिए भाजपा को हराना अधिक फ़ौरी ज़रूरत थी। इसी से साफ़ होता है कि यह नतीजा भाजपा की निर्णायक हार और कर्नाटक के हर तबके के द्वारा उसका अस्वीकार ही है। इस बात को नकारना और इस हार के महत्त्व को कम करना एक तरह की बेईमानी ही है।

जैसे भाजपा की हार को कमतर दिखलाना बेईमानी है, वैसे ही कांग्रेस पार्टी की जीत में उसके केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका को नगण्य बतलाना भी बेईमानी है। कांग्रेस ने चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा। चुनावी संघर्ष की अगुवाई स्थानीय नेताओं ने की। ज़रूर उनकी मेहनत ज़िम्मेवार है इस जीत के लिए। कांग्रेस में दो बड़े स्थानीय नेताओं के गुटों की प्रतिद्वंद्विता चर्चा का विषय थी। कुछ की चिंता और कई की आशा थी कि इस गुटबंदी के कारण कांग्रेस बनी बनाई बाज़ी हार जाएगी। यह नहीं हुआ। शिवकुमार और सिद्धारमैया ने एक टीम की तरह मिलकर चुनाव लड़ा। अपनी महत्वाकांक्षा को बड़े लक्ष्य के आड़े नहीं आने दिया। यह अवश्य ही उनका निर्णय था लेकिन क्या इस टीम को बनाने और एक साथ ले चलने के पीछे कांग्रेस नेतृत्व की कोई भूमिका नहीं रही होगी? 

आख़िर केंद्रीय नेतृत्व ने ही शिवकुमार को राज्य कांग्रेस का प्रमुख बनाया।भाजपा सरकार ने जब शिवकुमार को जेल में डाल दिया तो कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जेल जाकर उनसे मुलाक़ात करके उनमें विश्वास ज़ाहिर किया। उनके निकट दिखलाई पड़ने से भाजपा और भाजपा का प्रवक्ता मीडिया उनकी सार्वजनिक छवि को धूमिल करने में कसर न छोड़ेगा, इस भय से कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने ख़ुद को उनसे दूर नहीं किया। फिर एक तरह से उनके नेतृत्व में ही कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने चुनाव प्रचार किया। क्या इस सबका कोई योगदान नहीं और क्या इसका उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए? क्या इसका ज़िक्र करना चापलूसी की संस्कृति है?

यह कहना भी कि राहुल गांधी के नेतृत्व में की गई भारत जोड़ो यात्रा का असर इस चुनाव में नगण्य था, बौद्धिक बेईमानी है। केरल से कर्नाटक में प्रवेश करने पर भारत जोड़ो यात्रा का जिस तरह स्वागत हुआ था और जिस उत्साह से कर्नाटक के लोग उसमें शामिल हुए उससे क्या कांग्रेस को स्थानीय स्तर पर कोई लाभ नहीं हुआ? क्या इस यात्रा ने कांग्रेस के प्रति जन समर्थन नहीं जुटाया? जिस समय यह यात्रा हो रही थी, कर्नाटक का चुनाव दूर था। यात्रा का उद्देश्य या लक्ष्य चुनाव के लिए मतदाताओं की गोलबंदी करना नहीं था। उस समय यही विश्लेषक ठीक इसी बात के लिए यात्रा का मज़ाक़ बना रहे थे कि यह किसी राजनेता का काम नहीं। राहुल गांधी चुनाव जीत कर दिखलाएं तो कोई बात है! देश को जोड़ने और प्रेम जैसी भावुकता का राजनीति के कठोर यथार्थ से क्या लेना देना?

यात्रा ने कर्नाटक के विषाक्त किए जाते माहौल में बिना कुछ बोले हस्तक्षेप किया था। क्या जनमानस पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा होगा? आंकड़ों से ही यथार्थ समझने वालों को यह बतलाया गया कि यात्रा 21 विधान सभा क्षेत्रों से गुजरी उनमें से 16 में वह विजयी हुई। पिछली बार इनमें से सिर्फ़ 5 ही वह जीत पाई थी। इनके आस पास के क्षेत्रों में भी कांग्रेस के समर्थन में बढ़ोतरी हुई, यह आँकड़ों से मालूम होता है। यात्रा के दौरान जिस तरह कर्नाटक के दोनों नेताओं ने उसका संगठन किया और इस यात्रा ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में उत्साह भरा और उन्हें सक्रिय किया। एक तरह से कॉंग्रेस में नई ऊर्जा भरी, ख़ुद को लेकर विश्वास पैदा किया। यात्रा के वक्त ही लोग नोट कर रहे थे कि इस उत्साह और संगठन का असर चुनाव पर सकारात्मक ही पड़ेगा।

हम सब जानते हैं कि इस प्रकार के अभियानों का प्रभाव समाज पर अप्रत्यक्ष ही पड़ता है। क्या महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम का सीधा प्रभाव उपनिवेशवादी आंदोलन पर पड़ा था? या कुछ भी असर नहीं हुआ था? दोनों में सीधा रिश्ता न होने पर भी उसका महत्व था या नहीं? फिर क्यों  यात्रा को कर्नाटक चुनाव नतीजों के लिए प्रायः अप्रासंगिक बतलाने की कोशिश की जा रही है?

यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार नहीं किया। इसकी आलोचना की गई थी। उनकी एकाग्रता की प्रशंसा की जगह यह कहा गया कि उनका मतलब तभी है जब वे चुनाव जीतें। इस बार राहुल गांधी ने सघन चुनाव प्रचार किया। लेकिन अब भी इस जीत में उनका कोई योगदान है, इसे मानने में हिचकिचाहट है। यह मानना कई बौद्धिकों के लिए कठिन है कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी में आपसी समझदारी है और राहुल हों या प्रियंका या सोनिया गाँधी, वे अपनी तय भूमिका निभा रहे हैं। खड़गे साहब को कांग्रेस ने तो अपना अध्यक्ष मान लिया है और वे उसकी तरह आचरण भी कर रहे हैं लेकिन हमारे बौद्धिक समाज का एक हिस्सा अभी भी इसे दिखावा मानता है। वह सोनिया गांधी के प्रति आदर को चापलूसी मानता है और इसे उनका अधिकार या प्राप्य नहीं मानता। यह उस महिला के बारे में समझ है जिसने कांग्रेस में जान फूंकी थी और जिसने कांग्रेस के इर्द गिर्द एक बड़ी राजनीतिक गोलबंदी की थी। उनकी राजनीतिक सूझबूझ को क़बूल करने को हमारे बौद्धिक तैयार नहीं।  

ये वे ही लोग हैं जो बजरंग दल पर पाबंदी लगाने की कांग्रेस के ऐलान को राहुल की टीम की मूर्खता बतला रहे थे और डर गए थे कि कांग्रेस को इसका नुक़सान होगा। देखा गया कि बजरंग बली का नारा जितनी बार नरेंद्र मोदी ने लगाया, उतनी बार उन्होंने भाजपा को पीछे धकेला। लेकिन बजरंग दल पर प्रतिबंध की घोषणा के कांग्रेस के नैतिक साहस की तारीफ़ करने का नैतिक साहस बौद्धिकों में उसी अनुपात में न था। यह भी कहा गया कि यह मुसलमानों को अपनी तरफ़ खींचने की कांग्रेस की चतुराई थी। इसकी जगह यह भी कहा जा सकता था कि कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों और ईसाइयों की असुरक्षा के प्रति संवेदनशीलता दिखलाई है। उसने यह घोषणा करके हिंदुओं के विवेक में भी अपना यक़ीन जतलाया कि वे ख़ुद ऐसे संगठन को नामंज़ूर करेंगे। इस पाबंदी के साथ पीएफ़आई पर प्रतिबंध की घोषणा में एक तरह का संतुलनवादी रवैया था लेकिन ऐसा करके कांग्रेस ने यह भी साफ़ किया कि अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा को किसी भी तरह  स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। धर्मनिरपेक्ष राजनीति का एक अर्थ है अल्पसंख्यकों के इज्जत के साथ जीने के अधिकार की हिफ़ाज़त।

कर्नाटक में कांग्रेस की इस भारी जीत का 2024 के आम चुनाव पर असर पड़ेगा या नहीं? यह सवाल  है लेकिन कर्नाटक के इस जनादेश की चमक को एक राष्ट्रीय आशंका से धूमिल नहीं होने दिया जा सकता। कर्नाटक की जनता की आवाज़ अगर उत्तर भारत, यानी उत्तर प्रदेश, आदि को नहीं सुनाई पड़ती तो इसमें किसका क़सूर है? उस आवाज़ को वहाँ तक पहुँचाने का काम जिनका है, अगर वे अपना काम न करें तो क्या कर्नाटक के जनादेश का महत्व कम हो जाता है? 

कर्नाटक की जनता ने अपने जीवन को सद्भाव और सद्भाव के साथ जीने के लिए एक अवसर पैदा किया है। इसका अधिकार उसे है। उसने अपनी संप्रभुता की रक्षा और घोषणा भी की है। यह किसी राष्ट्रीय हित का साधन करे न करे, अपने आप में वह साध्य है और उसका आदर किया जाना चाहिए।

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