कर्नाटक के चुनाव नतीजों से तय होगा भाजपा के क्षत्रपों का भविष्य
भारतीय जनता पार्टी में वाजपेयी-आडवाणी का युग खत्म होने और मोदी-शाह का युग शुरू होने के बाद कई चीजें बदली हैं। लेकिन वाजपेयी-आडवाणी के दौर के कई सूबेदार यानी प्रादेशिक क्षत्रप आज भी चुनाव के लिहाज से पार्टी के लिए अपनी प्रासंगिकता और जरूरत बनाए हुए हैं। मोदी-शाह चाह कर भी इन क्षत्रपों को किनारे नहीं कर पाए हैं। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे, कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा, झारखंड में बाबूलाल मरांडी और बिहार में सुशील कुमार मोदी ऐसे ही क्षत्रपों की श्रेणी में आते हैं।
इस समय कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, जिस पर भाजपा के इन क्षत्रपों की निगाहें लगी हुई हैं। इन क्षत्रपों का राजनीतिक भविष्य काफी कुछ कर्नाटक के चुनाव नतीजों से तय होगा। भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर गुजरात फॉर्मूला लागू होगा या नहीं, इसका फैसला कर्नाटक से होना है। इस लिहाज से कह सकते हैं कि कर्नाटक का चुनाव भाजपा के लिए एक बड़ा प्रयोग है। बीएस येदियुरप्पा को हटा कर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाना और उनकी कमान में चुनाव लड़ने के लिए उतरना एक बड़ा दांव है, जिसकी सफलता से भाजपा की राजनीति में बहुत कुछ तय होगा।
एक समय था जब बीएस येदियुरप्पा कर्नाटक विधानसभा में भाजपा के अकेले विधायक होते थे। उन्होंने ही राष्ट्रीय राजनीति में मोदी-शाह की आमद से पहले भाजपा को दक्षिण भारत में जीत का स्वाद चखाया था और कर्नाटक में सरकार बनाई थी। वे 2007 से लेकर 2021 के बीच चार बार मुख्यमंत्री बने। जुलाई 2021 में उन्हें बड़ी मुश्किल से मुख्यमंत्री का पद छोड़ने के लिए राजी किया गया था लेकिन कुछ ही महीनों बाद पार्टी नेतृत्व को अहसास हो गया कि उन्हें किनारे करके पार्टी कर्नाटक में चुनाव नहीं जीत सकती। हालांकि येदियुरप्पा इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं लेकिन चुनाव के लिहाज से उनकी प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई है।
पिछले तीन-चार महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भी कर्नाटक के दौरे पर गए हैं तो उन्होंने येदियुरप्पा को अपने साथ रखा है और सार्वजनिक रूप से उनकी बढ़-चढ़ कर तारीफ की है। राज्य प्रभावशाली और पार्टी परंपरागत समर्थक लिंगायत समुदाय में येदियुरप्पा की गहरी पैठ के चलते पार्टी ने उम्मीदवारों के चयन में भी उनकी पसंद-नापसंद का पर्याप्त ध्यान रखा है। जब उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था तब उन्होंने ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में बसवराज बोम्मई का चयन किया था। हालांकि यह और बात है कि पार्टी ने बोम्मई को इस चुनाव के लिए मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया है। पार्टी घोषित तौर पर नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ रही है।
यह पहली बार हो रहा है कि कर्नाटक का विधानसभा चुनाव भाजपा येदियुरप्पा की बजाय मोदी के चेहरे पर लड़ रही है। अगर उनके चेहरे पर भाजपा जीतती है तो यह तमाम प्रादेशिक क्षत्रपों के लिए बड़े ख़तरे का संकेत होगा। इसका मतलब होगा कि भाजपा को किसी भी राज्य में जीतने के लिए किसी खास क्षत्रप की ज़रूरत नहीं है।
अगर भाजपा कर्नाटक में चुनाव नहीं जीत पाती है तो इस साल हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में होने वाले चुनावों में भाजपा के प्रादेशिक क्षत्रपों की पूछ और ताकत बढ़ेगी। फिर गुजरात मॉडल पर अमल कुछ दिन और टलेगा।
वाजपेयी और आडवाणी की भाजपा में जो प्रादेशिक क्षत्रप पैदा हुए थे उनमें सबसे मुश्किल काम को येदियुरप्पा ने पूरा किया था। उन्होंने दक्षिण में भाजपा के पैर रखने की जगह बनाई थी। मुख्यमंत्री पद से हटा दिए जाने के बाद भी वे अभी पार्टी के अपरिहार्य बने हुए हैं। उनके अलावा गुजरात में पहले केशुभाई पटेल और फिर नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ मे रमन सिंह पार्टी के बड़े क्षत्रप नेता थे। येदियुरप्पा को चुनावी राजनीति से निवृत्ति दे देने के बाद अब शिवराज, वसुंधरा और रमन सिंह बचे हैं। इन तीनों के राज्यों में इस साल के अंत में चुनाव हैं। अगर भाजपा मोदी के चेहरे पर कर्नाटक में जीत जाती है तो वह बाकी तीन राज्यों में भी जोखिम लेने की स्थिति में होगी। लेकिन अगर हार जाती है तो फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तीनों पुराने क्षत्रपों को कमान मिलेगी।
कर्नाटक के चुनाव नतीजे बिहार और झारखंड में भी भाजपा की राजनीति को प्रभावित करेंगे। ये दोनों राज्य भी ऐसे ही हैं, जहां मोदी-शाह ने नए क्षत्रप तैयार करने की कोशिश की लेकिन वे पुराने क्षत्रपों को किनारे करने या उन्हें अप्रासंगिक बनाने में कामयाब नहीं हो सके। बिहार में नया नेतृत्व तैयार करने के लिए कई प्रयोग किए और कई चेहरों को आजमाया लेकिन वाजपेयी-आडवाणी युग के सुशील मोदी ही आज भी सबसे बड़े नेता बने हुए हैं। बाकी नेताओं को उनका सहयोग करना पड़ रहा है। इसी तरह झारखंड में भी 2014 से 2019 तक पूरे पांच साल सत्ता में रहने बाद भाजपा हारी तो उसे आगे की राजनीति के लिए बाबूलाल मरांडी को वापस पार्टी में लाना पड़ा। मरांडी साल 2000 में अलग झारखंड बनने के बाद उसके पहले मुख्यमंत्री बने थे। बाद में मुख्यमंत्री पद से हटा दिए जाने के बाद उन्होंने भाजपा से अलग होकर अपनी नई पार्टी बना ली थी लेकिन 2019 में उनकी पार्टी का भाजपा में विलय हो गया और वे विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता बनाए गए।
अगर कर्नाटक में भाजपा जीत जाती है तो इन दोनों राज्यों में नेतृत्व के स्तर पर पार्टी कोई नया प्रयोग कर सकने की स्थिति में होगी अन्यथा पुराने चेहरों से ही काम चलाना पड़ेगा।