कांग्रेस और देशद्रोही? सिंधिया, कौन कुमति तोहें लागी!
कांग्रेस छोड़कर दो साल पहले बीजेपी में शामिल हुए ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की विचारधारा को ‘देशद्रोही’ बताकर सबको चौंका दिया है। कांग्रेस पर ऐसा हमला तो बीजेपी के खाँटी नेताओं ने भी कभी नहीं किया था। हैरानी की बात ये है कि 1857 में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों का साथ देने वाले ग्वालियर महाराज जयाजी राव सिंधिया के वंशज ज्योतिरादित्य को उस कांग्रेस की विचारधारा देशद्रोही लग रही है जिसने न सिर्फ़ भारत को अंग्रेज़ों के चंगुल से आज़ाद कराया बल्कि अथक संघर्ष और कुर्बानियाँ देकर एक लोकतांत्रिक और आधुनिक गणतंत्र की आधारशिला भी रखी।
ज्योतिरादित्य सिंधिया यह भी भूल गये कि उनकी दादी विजय राजे सिंधिया शुरू में कांग्रेस की ही सांसद थीं। उनके पिता माधव राव सिंधिया भी लंबे समय तक कांग्रेस में रहे। क्या वे देशद्रोही विचारधारा का साथ दे रहे थे? ख़ुद ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस के सांसद और दस साल तक केंद्र में मंत्री रहे तो क्या वे देशद्रोही विचारधारा का झंडा उठाये हुए थे?
आख़िर इसके पहले कांग्रेस को ‘देशद्रोही’ कहा किसने, अंग्रेज़ों और उनके कारकूनों को छोड़कर? महात्मा गाँधी समेत कांग्रेस के तमाम बड़े नेता ‘देशद्रोह’ के आरोप में जेल भेजे गये थे क्योंकि वे अंग्रेज़ी राज को मिटाना चाहते थे। कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी में जाने के बाद सिंधिया को याद आ रहा है कि कांग्रेस की वजह से उनका राज-पाट चला गया? ऐसा न हुआ होता तो उन जैसे ‘महाराज’ को मुख्यमंत्री बनने की इच्छा पूरी करने को इतने दाँव-पेच न चलने पड़ते! दर-दर वोट की भीख न माँगनी पड़ती! पूछा जाना चाहिए कि क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया अंग्रेज़ों की आँख से कांग्रेस को देख रहे हैं या आरएसएस की नज़र में चढ़ने और मध्यप्रदेश के अगले चुनाव में बीजेपी के मुख्यमंत्री प्रत्याशी बनने की बेक़रारी उनसे यह कहला रही है? आज़ादी की लड़ाई से अलग रहने और अंग्रेज़ों का साथ देने का ऐतिहासिक दाग़ झेल रहे आरएसएस के लिए इससे बड़ा सुख क्या हो सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व के क़रीब रह चुका कोई शख़्स कांग्रेस को देशद्रोही कहकर हिसाब बराबर कर दे।
बीजेपी में ज्योतिरादित्य की हालत क्या है, इसका पता 2019 में उन्हें लोकसभा चुनाव हराने वाले उनके ही पूर्व कर्मचारी के.पी. यादव का एक बयान है। क़रीब महीना भर पहले उन्होंने गुना में आयोजित एक समारोह में कहा था कि “रानी लक्ष्मीबाई भी हमारे पास झांसी की ही थीं। उनके शौर्य के बारे में भी हम सभी जानते हैं। हम ये भी जानते हैं कि अगर उस समय कुछ लोगों ने उनके साथ गद्दारी नहीं की होती तो शायद भारत 75वी वर्षगांठ नहीं, बल्कि 175वीं वर्षगांठ मना रहा होता यानी हम 100 साल पहले ही आज़ाद हो गए होते।“
समझना मुश्किल नहीं है कि के.पी. यादव के बयान में ‘ग़ुलामी के सौ वर्ष बढ़ाने’ के ज़िम्मेदार ‘कुछ लोग’ कौन हैं! ज्योतिरादित्य ने बीजेपी के अंदर से आ रहे ऐसे बयानों का जवाब कांग्रेस को देशद्रोही बताकर दिया है ताकि वे मध्यप्रदेश में कांग्रेस विरोध की राजनीति की धुरी बन सकें, वरना सार्वजनिक मंचों से उन्हें ‘विभीषण’ कह चुके मुख्यमंत्री शिवराज चौहान तो उनके लिए कोई गुंजाइश छोड़ने को तैयार दिख नहीं रहे हैं।
दिक़्कत ये है कि इसी के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इतिहास के छत्ते में भी हाथ डाल दिया है। उनके देशद्रोही वाले बयान पर कांग्रेस की ओर से तीखा पलटवार स्वाभाविक था। पार्टी से ग़द्दारी करने के बाद उसे देशद्रोही कहना कांग्रेस कैसे बर्दाश्त करती।
मीडिया चेयरमैन जयराम रमेश ने सुभद्राकुमारी चौहान की अमर कविता ‘झाँसी की रानी’ की इस पंक्ति को ट्वीट किया कि ‘अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, ख़ूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।’ ज्योतिरादित्य चाहते तो इतिहास के इस सच के सामने चुप्पी साध लेते लेकिन उन्होंने जवाब में ‘कविता कम और इतिहास ज़्यादा पढ़ने’ की सलाह देते हुए जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक ‘विश्व इतिहास की झलक’ से यह कोट ट्वीट किया कि “इस प्रकार मराठों ने दिल्ली साम्राज्य को जीता। मराठा ब्रिटिश वर्चस्व को चुनौती देने के लिए बने रहे। लेकिन ग्वालियर के महादजी सिंधिया की मृत्यु के बाद मराठा शक्ति टुकड़े-टुकड़े हो गयी।”
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जिस तरह से अपने पुरखे महादजी सिंधिया की याद दिलाकर 1857 में अपने ख़ानदान की ग़द्दारी की कहानी पर पर्दा डालना चाहा है, वह आश्चर्यजनक है। 1857 में जयाजी राव सिंधिया की ग़द्दारी हर तरह से प्रमाणित है। यहाँ तक कि संघ शिविर के महानायक विनायक दामोदर सावरकर की किताब ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ भी इसकी तस्दीक करती है। रानी झाँसी को घेरने वाले अंग्रेज़ जनरल ह्यूरोज़ और दूसरे अफ़सरों के बीच चले पत्रव्यवहार से पता चलता है कि “अंग्रेज़ इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि अगर सिंधिया ने बग़ावत का साथ दिया तो उन्हें भारत से बोरिया बिस्तर बांधना पड़ेगा।” निश्चित ही ज्योतिरादित्य अपने किसी पुरखे के किये-धरे के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, लेकिन सच्चाई स्वीकार न करके, उल्टा कांग्रेस को देशद्रोही बताना तो विकट उलटबाँसी है।
यह सच बात है कि महादजी सिंधिया पेशवा राज के कुशल सेनापति थे और उनके नेतृत्व में मराठों ने दिल्ली के मुग़ल बादशाह शाह आलम को सिर्फ़ नाम का बादशाह बना दिया था। महादजी सिंधिया को बादशाह ने वकील-ए-मुतलक का ख़िताब देकर राज्य व्यवस्था का भार सौंप दिया था और उन्होंने मुग़ल बादशाह के प्रतिनिधि बतौर कई युद्ध अभियान चलाये और बाग़ियों से लोहा लिया था। सिंधिया मूलत: महाराष्ट्र के सतारा ज़िले के कन्हेरखेड गाँव के रहने वाले सामान्य परिवार के लोग थे। रानोजी सिंधिया 1720 में मराठा सेना में भर्ती हुए और बाद में पेशवा बाजीराव के मशहूर जनरल बने। मराठा साम्राज्य के विस्तार में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। 1730 में मालवा विजय के बाद एक तिहाई हिस्सा रानोजी को मिला। बाक़ी दो इंदौर के होल्कर और धार के पवार को दिया गया। इस तरह सिंधिया एक राजघराने के रूप में अस्तित्व में आया। उज्जैन को राजधानी बनाया गया जो हिंदुओं की पवित्र कुंभनगरी थी। इससे इस घराने की प्रतिष्ठा बढ़ी। महादजी सिंधिया इन्हीं रानो जी के बेटे थे।
ज्योतिरादित्य सिंधिया को पूरा हक़ है कि वे महादजी सिंधिया को याद करें लेकिन इससे 1857 के दाग़ नहीं धुल सकते हैं।
क्या मराठे किसी ‘राष्ट्र’ का सपना लेकर लड़ रहे थे? उनके लिए अपना ‘राज्य’ ही सबकुछ था जिसके विस्तार के लिए उन्होंने सिखों, जाटों और राजपूतों से भी जमकर युद्ध किये। प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-1769) में मराठों और निज़ाम को साथ लेकर अंग्रेज़ों ने हैदर अली के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था। दूसरे युद्ध में भी मराठों की संधि अंग्रेज़ों से रही। तीसरा युद्ध टीपू सुल्तान के साथ हुआ तो भी मराठे अंग्रेजों के साथ थे और टीपू की पराजय के बाद मैसूर के कुछ प्रदेश भी उन्हें मिले। 1799 में तो टीपू सुल्तान की शहादत वाले युद्ध में अंग्रेज़ों, मराठों, और निज़ाम ने तीन ओर से उस पर आक्रमण किया था। 1775-1818 के बीच अंग्रेज़ों और मराठा संघ के बीच तीन युद्ध हुए।
18वीं सदी के उत्तरार्ध और 19वीं सदी के पूर्वार्ध के भारत का राजनीतिक परिदृश्य ऐसा ही था जिसके लिए किसी को दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक विराट राष्ट्रीय स्वप्न के साथ युद्ध करने की समझ तो बीसवीं सदी की शुरुआत में, ख़ासतौर पर कांग्रेस के जनांदोलन बनने के साथ ही विकसित हो पायी थी। 1915 में महात्मा गाँधी के भारत लौटने के बाद राजनीतिक परिदृश्य बदलने लगा था। कांग्रेस अर्ज़ी लिखने वाले क्लब से आम जनता के मंच में बदलने लगी थी। इससे जनता पर अत्याचार करने के लिए अंग्रेज़ों से लाइसेंस लेकर बैठे रियासतों के कान खड़े होने लगे थे। 1920 में असहयोग आंदोलन की लहरें उठीं तो सिंधिया राज ने हर तरह की राजनीतिक गतिविधि और संगठनों पर रोक लगा दी थी। वे खुलकर अंग्रेज़ों के साथ थे। इसके बावजूद कांग्रेस ने आज़ादी के बाद सबको साथ लेकर चलने की नीति अपनायी। विजयराजे सिंधिया के पति और अंतिम ग्वालियर नरेश जीवाजी राव सिंधिया को मध्य भारत का ‘राज प्रमुख’ बनाया गया। 1956 में मध्य प्रदेश का गठन होने तक वे इस पद पर रहे।
कांग्रेस ने अपने जनांदोलन की बदौलत टुकड़े-टुकड़े में बँटे देश को एक राष्ट्र में बदला। उसके आंदोलन का ताप ब्रिटिश भारत और रियासतों में एक साथ था। यही वजह है कि ‘स्वतंत्र’ होने की चाह दबाकर रियासतदारों को भारतीय संघ में विलय करना पड़ा। कांग्रेस ने आज़ादी दिलाने के साथ-साथ एक ऐसा अभूतपूर्व संविधान दिया जो समानता और विशिष्टता बनाये रखते हुए नागरिक अधिकारों से लैस रहने का हक़ देता है। कांग्रेस समन्वय की जिस परंपरा पर चली वह भारत का मूल दार्शनिक भूमि है। कांग्रेस की विचारधारा को ‘देशद्रोही’ बताकर ज्योतिरादित्य कांग्रेस के ही नहीं, देश के बारे में अपना अज्ञान प्रदर्शित कर रहे हैं। कबीर के शब्दों को थोड़ा बदलकर कहें तो पूछा जा सकता है- “सिंधिया, कौन कुमति तोहें लागी?”