जस्टिस मुरलीधर के तबादले को हरी झंडी क्यों नहीं दे रहा केंद्र?
ओडिशा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एस. मुरलीधर के तबादले को लेकर केंद्र सरकार चुप है जबकि उसने कॉलेजियम के द्वारा सुझाए गए एक अन्य जज के तबादले के लिए अपनी स्वीकृति दे दी है। ऐसे में सवाल यह खड़ा होता है कि जस्टिस मुरलीधर के तबादले के लिए अभी तक केंद्र सरकार ने हरी झंडी क्यों नहीं दी है।
केंद्र सरकार ने मंगलवार को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के चीफ जस्टिस पंकज मित्तल के राजस्थान हाई कोर्ट में तबादले को हरी झंडी दे दी है। बताना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने 28 सितंबर को जस्टिस मुरलीधर का तबादला मद्रास हाई कोर्ट में चीफ जस्टिस के पद पर जबकि जस्टिस पंकज मित्तल का तबादला राजस्थान हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के पद पर करने की सिफारिश केंद्र सरकार से की थी। यह साफ है कि केंद्र सरकार ने कॉलेजियम की ओर से की गई सिफारिश में से एक नाम को मान लिया है लेकिन दूसरे नाम के लिए वह तैयार नहीं दिखती।
दिल्ली दंगों के दौरान की कड़ी आलोचना
जस्टिस मुरलीधर जब दिल्ली हाईकोर्ट में थे तो उन्होंने साल 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के लिए दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना की थी। जस्टिस मुरलीधर ने दिल्ली दंगों के दौरान बीजेपी के नेताओं अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा, अभय वर्मा और कपिल मिश्रा के भड़काऊ बयानों को लेकर पुलिस से उनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कहा था। इसके बाद जस्टिस मुरलीधर का तबादला पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में कर दिया गया था।
जस्टिस मुरलीधर ने दिल्ली दंगों के मामलों की सुनवाई के दौरान कहा था कि हम भारत में 1984 जैसी घटना दोबारा नहीं होने दे सकते। बताना होगा कि साल 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगे हुए थे और दिल्ली में बड़ी संख्या में सिखों का कत्लेआम हुआ था।
जस्टिस मुरलीधर के तबादले के बाद उस वक्त बार एसोसिएशन ने कड़ा विरोध जताया था और दिल्ली के वकीलों ने 1 दिन काम नहीं किया था। यह मामला तब काफी सुर्खियों में रहा था। हालांकि केंद्र सरकार ने कहा था कि जस्टिस मुरलीधर का तबादला नियमित प्रक्रिया के तौर पर किया गया है और इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने उस साल फरवरी के महीने में सिफारिश की थी।
बिना पैसे लिए लड़ा केस
जस्टिस मुरलीधर ने वकालत के दौरान भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों और नर्मदा नदी पर बनाए गए बांध की वजह से विस्थापित हुए लोगों का केस बिना पैसे लिए लड़ा था। जस्टिस मुरलीधर ने कांग्रेस के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को 1984 के सिख विरोधी दंगों में उम्र कैद की सजा सुनाई थी। जस्टिस मुरलीधर ने साल 1987 में हाशिमपुरा में हुए कत्लेआम के लिए भी पुलिसकर्मियों को सजा सुनाई थी। हाशिमपुरा के कत्लेआम में 42 मुसलमानों की हत्या कर दी गई थी।
जस्टिस मुरलीधर साल 2009 में हाई कोर्ट की उस बेंच का भी हिस्सा रहे हैं जिसने भारत में पहली बार होमोसैक्सुअलिटी को वैध घोषित किया था।
जस्टिस अकील कुरैशी का मामला
राजस्थान हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस अकील कुरैशी को मध्य प्रदेश के चीफ जस्टिस के रूप में नियुक्त किए जाने की कॉलेजियम के द्वारा साल 2019 में की गई सिफारिश को भी केंद्र सरकार ने नहीं माना था और उनके नाम को वापस लौटा दिया था। तब यह बात सामने आई थी कि जस्टिस कुरैशी के द्वारा लिए गए कुछ फैसलों से केंद्र सरकार नाराज है।
जस्टिस जोसेफ का मामला
साल 2016 में उत्तराखंड हाई कोर्ट के जस्टिस जोसेफ का मामला भी काफी चर्चा में रहा था। 2016 में उत्तराखंड की तत्कालीन हरीश रावत सरकार में बड़ी बगावत हुई थी और उसके बाद केंद्र सरकार ने वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। लेकिन जस्टिस जोसेफ के फैसले के बाद उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन रद्द हो गया था और यह माना गया था कि इस वजह से बीजेपी राज्य में अपनी सरकार नहीं बना सकी थी। उस दौरान कानूनी मामलों से जुड़ी संस्थाओं और विपक्ष ने आरोप लगाया था कि सरकार ने जस्टिस जोसेफ का उत्पीड़न करने की कोशिश की।
जस्टिस जोसफ को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफ़ारिश को लेकर भी केंद्र और न्यायपालिका के बीच टकराव हुआ था। जस्टिस जोसेफ को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सिफारिश पर केंद्र ने दोबारा विचार करने के लिए कहा था। हालांकि बाद में केंद्र सरकार ने कॉलेजियम की सिफ़ारिश को स्वीकार कर लिया था।
क्या है कॉलेजियम?
कॉलेजियम शीर्ष न्यायपालिका में जजों को नियुक्त करने और प्रमोशन करने की सिफ़ारिश करने वाली सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठ जजों की एक समिति है। यह समिति जजों की नियुक्तियों और उनके प्रमोशन की सिफारिशों को केंद्र सरकार को भेजती है और सरकार इसे राष्ट्रपति को भेजती है। राष्ट्रपति के कार्यालय से अनुमति मिलने का नोटिफिकेशन जारी होने के बाद ही जजों की नियुक्ति होती है।
सरकारें आम तौर पर कॉलेजियम के फैसलों को मानती रही हैं लेकिन जस्टिस जोसफ और जस्टिस अकील कुरैशी के मामलों के बाद यह बात सामने आई थी कि सरकार और न्यायपालिका के रिश्ते ठीक नहीं हैं।
पहले कार्यकाल में हुआ टकराव
यहां याद दिला दें कि मोदी सरकार अपने पहले कार्यकाल में कई बार न्यायपालिका से टकराती रही। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने एक बार कहा था कि भारत की न्यायपालिका लगातार विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों का अतिक्रमण कर रही है और अब केंद्र सरकार के पास केवल बजट बनाने का और वित्तीय अधिकार रह गए हैं। जेटली के इस बयान के बाद साफ हो गया था कि सरकार और न्यायपालिका में टकराव चरम पर है। मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में कॉलेजियम को नेशनल जुडिशल अपॉइंटमेंट कमीशन यानी एनजेएसी से रिप्लेस करने की कोशिश की थी।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने 2015 में इस प्रस्ताव को 4-1 से ठुकरा दिया था। तब कहा गया था कि एनजेएसी के जरिए सरकार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ख़ुद नियुक्तियां करना चाहती थी और इसके बाद सरकार और न्यायपालिका में विवाद बढ़ गया था।