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मोदी को हाई कोर्ट जज की चिट्ठी, 'सुप्रीम कोर्ट में परिवारवाद, जातिवाद'

मोदी को हाई कोर्ट जज की चिट्ठी, 'सुप्रीम कोर्ट में परिवारवाद, जातिवाद'

न्यायालयों की भर्ती प्रक्रिया में विसंगतियों को लेकर एक बार फिर चर्चा हो रही है। न्यायमूर्ति रंगनाथ पांडेय ने इस संबंध में प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा है। 

न्यायालयों की भर्ती प्रक्रिया में विसंगतियों को लेकर एक बार फिर चर्चा हो रही है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के न्यायमूर्ति रंगनाथ पांडेय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है। उन्होंने पत्र में लिखा है, “उच्च एवं उच्चतम न्यायालय दुर्भाग्यवश वंशवाद और जातिवाद से बुरी तरह ग्रस्त हैं। यहाँ न्यायाधीशों के परिवार का सदस्य होना ही अगला न्यायाधीश होना सुनिश्चित करता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति का हमारे पास कोई निश्चित मापदंड नहीं है। प्रचलित कसौटियाँ परिवारवाद और जातिवाद ही हैं।” यह पत्र उच्च और उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सवाल उठाता है।

न्यायमूर्ति रंगनाथ पांडेय ने पत्र में लिखा है कि चाय पार्टी के दौरान ही जजों का चयन हो जाता है और कई न्यायाधीशों को क़ानून की सामान्य जानकारी भी नहीं होती है। उन्होंने यह भी लिखा है कि कॉलीजियम के सदस्यों का पसंदीदा होना ही चयन का आधार है और हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट में जजों की तैनाती का कोई मापदंड नहीं है।

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इससे नीचे की न्यायिक व्यवस्था की चयन प्रक्रिया भी विसंगतियों से भरी पड़ी है। परीक्षा के माध्यम से चयनित अभ्यर्थियों को भी ऊपर के पदों पर पहुँचने में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

अगर आप लॉ ग्रेजुएट हैं, पढ़ने-लिखने में तेज़ तर्रार हैं, 21 साल उम्र हो गई है तो परीक्षा पास करके सिविल जज (जूनियर डिवीजन)/जुडीशियल मजिस्ट्रेट बन सकते हैं। अगर ऐसा नहीं हो पाया तो निराश होने की ज़रूरत नहीं है। न्यायालय में जाइए, 7 साल वकालत कीजिए। हायर जुडीशियल सर्विसेज की सीधी परीक्षा दीजिए और आपके जिन मेधावी सहपाठियों ने आपसे जुडीशियल मजिस्ट्रेट पद झटक लिया था, सीधे उनके बॉस बन जाइए, क्योंकि उस परीक्षा में जुडीशियल मजिस्ट्रेट बैठ ही नहीं पाते हैं। न्यायिक भर्तियों में यही व्यवस्था है।

जिला स्तर की न्यायिक व्यवस्था में शीर्ष पर डिस्ट्रिक्ट जज होते हैं। उसके बाद एडिशनल डिस्ट्रिक्ट जज (एडीजे), सिविल जज (सीनियर डिवीजन)/चीफ़ जुडीशियल मजिस्ट्रेट (सीजेएम), सिविल जज (जूनियर डिवीजन)/जुडीशियल मजिस्ट्रेट शामिल हैं।

जिला न्यायपालिका में जुडीशियल मजिस्ट्रेट पहला पायदान होता है, जिसमें कोई भी लॉ ग्रेजुएट राज्य लोकसेवा आयोग द्वारा कराई जाने वाली परीक्षा और साक्षात्कार देकर पहुँच सकता है, जिसकी उम्र 21 साल से ऊपर हो। इसमें किसी अनुभव की ज़रूरत नहीं होती है। इसके बाद सीजेएम पद पर नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर होती है। उत्तर प्रदेश में जुडीशियल मजिस्ट्रेट को सीजेएम बनने में क़रीब 4 से 8 साल लग जाते हैं, जबकि बिहार में क़रीब 15 से 20 साल लगते हैं।

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असल खेल इसके बाद शुरू होता है। एडीजे पद पर नियुक्ति में 75 प्रतिशत पद प्रमोशन के आधार पर भरे जाते हैं, जबकि 25 प्रतिशत पदों पर प्रतिस्पर्धी परीक्षा के माध्यम से सीधी भर्ती होती है। अलग-अलग राज्यों में प्रमोशन में अलग-अलग समय होने का नुक़सान राज्यवार उठाना पड़ता है। वहीं, सीधी भर्ती में योग्यता यह तय की गई है कि अगर किसी व्यक्ति का वकील के रूप में 7 साल का अनुभव है और उसकी उम्र 35 साल है तो वह परीक्षा में शामिल हो सकता है। इस परीक्षा में जुडीशियल मजिस्ट्रेट या सीजेएम नहीं बैठ पाते हैं।

होता यह है कि जो अभ्यर्थी जुडीशियल मजिस्ट्रेट की परीक्षा में फ़ेल हो चुके हैं, वकील के रूप में 7 साल पंजीकरण का अनुभव लेकर हायर जुडीशियल सर्विस की सीधी भर्ती में बैठते हैं, बहुत सीमित प्रतिस्पर्धा में वह चयनित होते हैं और बॉस बन जाते हैं। यह वही अभ्यर्थी होते हैं, जो लगातार 7 साल तक जुडीशियल मजिस्ट्रेट से लेकर एपीओ की परीक्षा में असफल हो चुके होते हैं, और चयनित होकर सीधे एडीशनल डिस्ट्रिक्ट जज होते हैं और आगे प्रमोट होकर हाई कोर्ट में पहुँचते हैं। जो लॉ ग्रेजुएट प्रतिभाशाली होते हैं और जुडीशियल मजिस्ट्रेट पद पर भर्ती हो जाते हैं, वह बमुश्किल उच्च न्यायालय पहुँच पाते हैं। जबकि जो जुडीशियल मजिस्ट्रेट की भर्ती परीक्षा में फ़ेल हो चुके होते हैं, वे उच्च न्यायालयों में पहुँच जाते हैं।

कमज़ोर तबक़े के साथ भेदभाव

भर्ती की यह प्रणाली समाज के कमजोर तबक़े के लिए भी घातक है। मध्य वर्गीय, समाज के कमजोर तबक़े, अनुसूचित जाति व जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग के परिवारों के विद्यार्थियों के पास इतने पैसे नहीं होते हैं कि वे लंबे समय तक वकालत का अनुभव ले सकें। उनके ऊपर धन कमाने, परिवार की आर्थिक मदद करने की मजबूरी होती है। इस वर्ग के विद्यार्थियों की मजबूरी होती है कि वे सिविल जज जूनियर डिवीजन, असिस्टेंट प्रॉसिक्यूटिंग अफ़सर, लॉ अफ़सर आदि की परीक्षा दें और जल्द से जल्द एक सम्मानित वेतन पा सकें।

और इन नौकरियों में भर्ती होने के बाद वे हायर जुडीशियल सर्विस की सीधी भर्ती की परीक्षा में शामिल नहीं हो सकते। इसके बाद प्रमोट होकर उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में पहुँच पाना उनके लिए सपना हो जाता है। इस तरह से यह व्यवस्था समाज के कमजोर तबक़े के साथ साफ़ भेदभाव करती है।

इस तरह का भेदभाव सिर्फ़ न्यायपालिका में चल रहा है। अगर कोई व्यक्ति संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास कर आईपीएस या आईएफ़एस बन जाता है, तो उसे स्वतंत्रता होती है कि वह परीक्षा देकर आईएएस बनने की कोशिश करे। लेकिन न्यायिक क्षेत्र में आपने अगर जूनियर डिवीजन की नौकरी पकड़ ली तो भले ही आपको न्यायिक क्षेत्र में ही अनुभव है, लेकिन हायर जुडीशियल सर्विसेज के लिए होने वाली सीधी भर्ती में शामिल होने का आपका अधिकार छिन जाता है।

नेशनल जुडीशियल पे कमीशन, जिसे शेट्टी कमीशन के नाम से भी जाना जाता है, ने अपनी सिफ़ारिशों में 7 साल अनुभव वाले जुडीशियल अफ़सरों को भी वकीलों की तरह सीधी भर्ती में शामिल होने की अनुमति देने की सिफ़ारिश की थी। शेट्टी कमीशन ने कहा था, “इसकी कोई वजह नहीं है कि न्यायाधीशों के रूप में काम कर रहे अधिकारियों को सीधी भर्ती से बाहर कर दिया जाए।”

भर्ती का यह मामला उच्चतम न्यायालय में चल रहा है। जस्टिस चेलमेश्वर ने अपने एक फ़ैसले में 7 साल तक वकालत करने वाले, 7 साल तक जूनियर जज रहे या वकालत व जूनियर जज दोनों मिलाकर 7 साल का अनुभव रखने वाले अभ्यर्थियों को सीधी भर्ती की परीक्षा में शामिल होने का अंतरिम फ़ैसला दिया था। हालाँकि यह मामला अभी भी धीरज मोर बनाम दिल्ली मामले की संविधान पीठ के पास लंबित है।

इस मामले में केंद्र सरकार और उसका विधि मंत्रालय कोई हस्तक्षेप नहीं कर सका। संविधान के अनुच्छेद 233 (1) में जिला जज की नियुक्ति हाई कोर्ट की सलाह पर राज्यपाल करते हैं। वहीं 233 (2) के मुताबिक़, जो व्यक्ति राज्य या केंद्र की न्यायिक सेवा में नहीं हैं और 7 साल से वकालत कर रहे हैं, वे हायर जुडीशियल सर्विस की परीक्षा में शामिल होकर जज बनते हैं और प्रमोट होकर उच्च न्यायालय पहुँचते हैं। 

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अंग्रेजों के जमाने में यह व्यवस्था थी कि इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले ही जिला जज बनते थे। स्वतंत्र भारत में न्यायपालिका से कार्यपालिका को अलग कर दिया गया, इंडियन सिविल सर्विस का नाम बदलकर इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आईएएस) कर दिया गया, लेकिन 7 साल वकालत करके सीधी भर्ती से हायर जुडीशियल सर्विस में जाने का प्रावधान अब तक बना हुआ है। पत्र के अंत में जस्टिस पांडेय ने प्रधानमंत्री से कहा है कि वह इस विषय पर विचार करते हुए न्याय संगत तथा कठोर निर्णय लेकर न्यायपालिका की गरिमा को पुनर्स्थापित करने के लिए क़दम उठाने की माँग की है।

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