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गुजरात दंगे: आयोग को तो मोदी को क्लीन चिट देनी ही थी!

गुजरात दंगे: आयोग को तो मोदी को क्लीन चिट देनी ही थी!

नानावटी आयोग ने जिस तरह गुजरात दंगों में मोदी तथा दूसरे बीजेपी नेताओं को क्लीन चिट दी उससे आयोग की कार्यशैली पर कई सवाल खड़े होते हैं। 

‘नानावटी आयोग ने मोदी को क्लीन चिट दी’, कुछ दिन पहले सारे अख़बारों में यह ख़बर प्रमुखता से छपी थी। पिछले 12 साल में आयोग के ट्रैक रिकार्ड को देखते हुए किसी बेवक़ूफ़ को ही यह उम्मीद रही होगी कि आयोग कुछ अलग फ़ैसला देगा। नानावटी आयोग को यह ज़िम्मेदारी दी गयी थी कि वह 27 फ़रवरी, 2002 के दंगे और साबरमती एक्सप्रेस में लगी आग के मामले की जाँच-पड़ताल करे। जिस भी व्यक्ति ने आयोग की बैठकों में हिस्सा लिया था उसको इस बात का एहसास था कि आयोग की दिलचस्पी सच का पता लगाने में कभी भी नहीं थी। 

जिस तत्परता के साथ जस्टिस जी.टी. नानावटी और जस्टिस के.जी. शाह ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और गुजरात के ईमानदार पुलिस अफ़सरों की गवाही को ख़ारिज किया था, उससे यह आशंका पुष्ट हो गयी थी कि आयोग को यह कहा गया है कि उसे दंगा फैलाने वाले कुछ लोगों को बचाना है। ‘उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे’ वाली कहावत इस आयोग पर सच साबित होती है। हक़ीक़त तो यह है कि इस आयोग की नियुक्ति ही ग़लत मंशा के साथ की गयी थी। 

अयोध्या से लौट रहे 58 यात्रियों की गोधरा में जघन्य हत्या के एक हफ़्ते के अंदर ही बीजेपी सरकार ने रिटायर्ड जस्टिस के.जी. शाह की अगुवाई में एक सदस्यीय आयोग का गठन किया था। हालाँकि संवैधानिक पदों पर नियुक्त लोगों के वैचारिक झुकाव पर चर्चा करना उचित नहीं होता। यह भी कहना उचित नहीं होता कि जज सुबह के व्यायाम के लिये किन लोगों के साथ जाते हैं और वहाँ पर विचारधारा की कौन सी घुट्टी पिलाई जाती है। लेकिन जस्टिस शाह की साख पर तब बड़े सवाल उठे थे जब उन्होने जिमखाना गैंग वार में हुए ख़ूनी संघर्ष मामले में आधा दर्जन मुसलमानों को बिना पुख़्ता सबूतों के आजीवन कारावास दे दिया था। 

जस्टिस शाह की मुसलिम विरोधी छवि को लेकर विपक्षी दल कांग्रेस और मानवाधिकार संस्थाओं ने जम कर हंगामा किया था और गुजरात सरकार ने तब जस्टिस जी.टी. नानावटी को आयोग का प्रमुख बनाकर इसे दो सदस्यीय कर दिया था।

जस्टिस शाह को लेकर उठी आशंकाएं तब सच साबित होने लगीं जब आईपीएस अधिकारी राहुल शर्मा ने कॉल डेटा रिकॉर्ड्स आयोग के सामने पेश किये। इससे पता चला था कि सत्ताधारी बीजेपी, उसके साथी संगठन विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल तथा स्थानीय पुलिस के अधिकारी लगातार दंगाइयों के संपर्क में थे। राहुल शर्मा के इस कॉल डेटा रिकॉर्ड्स के सच की पड़ताल वकील मुकुल सिन्हा ने की थी। 

सरकार और बीजेपी तथा दूसरे संगठनों के वकीलों के कुछ कहने से पहले ही जस्टिस शाह इस निष्कर्ष पर पहुंच गये कि हो सकता है कि पुलिस अधिकारियों ने अपने फ़ोन अपने परिवारवालों को दे दिये हों और वे उनके संपर्क में रहे हों जिनके ऊपर दंगा करने के आरोप लगे हैं। जज के इस रवैये से साफ था कि आयोग उस वक़्त के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट देगा ही।

दंगों के बाद मोदी को बीजेपी नेता और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। वाजपेयी की यह सार्वजनिक सलाह इस बात का सबूत थी कि 2002 के गुजरात दंगों के दौरान राजधर्म का पालन नहीं किया गया था। इस बयान के बाद भी नानावटी आयोग पर कोई असर नहीं पड़ा और इतिहास के इस सबसे बुरे दंगे में मोदी तथा दूसरे बीजेपी नेताओं को क्लीन चिट पर क्लीन चिट दे दी गयी। 

अगर आयोग की शुरुआत ग़लत थी तो अंत भी उतना ही संदिग्ध है। आयोग की अंतिम रिपोर्ट तब की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को नवंबर 2014 में सौंपी गयी और पाँच साल बाद इस रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया। जबकि इस रिपोर्ट को पूरा करने में 12 साल लगे थे और रिपोर्ट जमा करने के लिये भी हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर करनी पड़ी थी। 

आयोग मोदी को क्लीन चिट देगा इसका अंदाज़ा लोगों को पहले से ही था। लेकिन हैरानी की बात यह है कि रिपोर्ट ने हर उस व्यक्ति या संगठन जिसने आयोग के सामने दंगाइयों के ख़िलाफ़ सबूत पेश किये, उसकी साख पर बट्टा लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उस वक़्त के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (गुप्तचर) आर.बी. श्रीकुमार, भावनगर के पुलिस अधीक्षक राहुल शर्मा और पुलिस अधीक्षक (गुप्तचर) संजीव भट्ट के बारे में लिखा गया कि यह मोदी और उनकी आड़ में गुजरात की छवि को ख़राब करने के लिये ग़लत मंशा से काम कर रहे थे। यह अजब संयोग है कि संघ परिवार के कार्यकर्ता सरकार की आलोचना करने वाले हर शख़्स के बारे में इसी भाषा का प्रयोग करते हैं। 

ज़रा सोचिये कि इन तीन आईपीएस अधिकारियों की वे कौन सी हरक़तें थी जिन्हें ‘संदिग्ध’ कहा गया। श्रीकुमार ने दंगों के दौरान क़ानून और व्यवस्था और पुलिस को दिये गये ग़ैर क़ानूनी आदेश पर हलफ़नामा दिया था। राहुल शर्मा ने आयोग को बताया था कि उनसे मंत्री ने कहा था कि मदरसों से हुई फ़ायरिंग में मरने वालों की संख्या ग़लत है। मुसलमानों की तुलना में अधिक हिंदू मारे गये थे। लेकिन आयोग की रिपोर्ट में इसका ज़िक्र नहीं है। 

2700 पेज और दस खंडों की रिपोर्ट में यह लिखा गया है कि सत्ताधारी पार्टी का एक भी नेता दंगे में शामिल नहीं था। ऐसा तब है जबकि बीजेपी की विधायक डॉ. माया कोडनानी को नरोदा पटिया के नरसंहार में सजा मिल चुकी है। बाद में गुजरात हाई कोर्ट ने संदेह के आधार पर उन्हें छोड़ दिया पर इसका यह अर्थ नहीं है कि बीजेपी विधायक निर्दोष हैं। 

पूरी रिपोर्ट में एक बात पर ज़ोर है कि दंगे पूर्व नियोजित षड्यंत्र का हिस्सा नहीं थे। रिपोर्ट ने मुख्यमंत्री को इस आरोप से भी मुक्त कर दिया कि उन्होंने साबरमती एक्सप्रेस के S6 कोच में जाकर किसी भी जांच से पहले सबूत नष्ट कर दिये।

आयोग का निष्कर्ष था कि नरेंद्र मोदी S6 कोच में हुए हादसे को समझने गये थे न कि सबूत मिटाने। जबकि नानावटी आयोग ने जन संघर्ष मंच और सिटिजन्स फ़ॉर जस्टिस और पीस की भूमिका को नकारात्मक करार दिया। ढेरों सबूत इन ग़ैर सरकारी संस्थाओं ने दिये थे लोकिन आयोग कहता है कि इनका मक़सद था मोदी, गुजरात और गुजरातियों की छवि पर दाग लगाना। 

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