दिल्ली दंगा- 4 हफ़्ते में एफ़आईआर, क्या यह न्याय है: जस्टिस लोकुर
पिछले दिनों जब मैंने दंगा प्रभावित इलाक़ों का दौरा किया तो मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी युद्ध क्षेत्र में आ गया हूँ। दुकान और मकान जले हुए थे और इलाक़े की हर गली का यही हाल था। यह भयावह था। संपत्ति को नये सिरे से खड़ा किया जा सकता है लेकिन क्या ज़िंदगी भी फिर से सँवारी जा सकती है? इन दंगों में 50 से ज़्यादा लोग मारे गए। इनका कोई कसूर नहीं था। इनको नफ़रत ने लील लिया। माता-पिता की सोच से बच्चे ताउम्र के लिए मानसिक पीड़ा से परेशान रहेंगे। यह न्याय है या अन्याय? क्या आर्थिक मदद इन माता-पिता और बच्चों की तकलीफ और पीड़ा को दूर कर पाएगी? और क्या इन्हें सिर्फ़ इतना ही दिया जा सकता है? जब मैं शिव विहार और दूसरे इलाक़ों से गुज़र रहा था तब यही सवाल मेरे दिमाग़ में गूँज रहे थे।
ईदगाह की बर्बादी को देखकर मन अवसाद से भर गया। ईदगाह में राहत शिविर लगे हुए थे और मुझे बताया गया कि वहाँ लगभग हज़ार लोग रह रहे थे। भले इंसानों ने और संगठनों ने इन पीड़ितों को कंबल, खाना, दरी, दवा और जो कुछ भी मदद हो सकती थी वो देने का प्रयास किया। वहाँ एक मीडिया सेक्शन भी था जहाँ दंगा पीड़ित अपनी कहानी बयाँ कर रहे थे। उम्मीद करता हूँ कि जब प्रशासन अपने आप को व्यवस्थित कर पाएगा तो उनकी आपबीती का इस्तेमाल जाँच में किया जा सकेगा। वहाँ मैंने एक चीज ग़ौर की कि जो कुछ भी राहत का काम चल रहा था उसे तमाम ग़ैर-सरकारी संगठन और आम नागरिक कर रहे थे। कल्याणकारी सरकार वहाँ नहीं थी।
दंगों को लेकर एक-दूसरे के ऊपर आरोप लगाने का खेल शुरू हो गया है और यह तब तक चलता रहेगा जब तक जाँच पूरी नहीं हो जाती या फिर जाँच आयोग अपनी रिपोर्ट नहीं सौंप देता। लेकिन एक निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि अगर सरकार में बैठा कोई शख्स, जिसको प्रशासन चलाना आता है और प्रशासन ने वक़्त रहते क़दम उठाए होते तो बहुत सारी ज़िंदगियों को बचाया जा सकता था और ढेरों संपत्ति बर्बाद होने से रोकी जा सकती थी।
सत्ता में बैठे हुए लोगों की अफ़सरी निष्क्रियता और तानाशाही रवैये ने सिर्फ़ एक दिन नहीं, बल्कि तीन दिन तक क़त्लेआम होने दिया। स्पष्ट है कि सत्ता में बैठी हुई कार्यपालिका और पुलिस कुंभकरणी नींद का शिकार हो गई थी। इसकी कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी। सोते हुए गार्ड को जगाने की ज़िम्मेदारी किसकी है?
क़ानून का विद्यार्थी होने के नाते न्याय-व्यवस्था की तरफ़ से किसी तरीक़े से सुगठित प्रतिक्रिया न पाकर मैं हैरान हो गया। क़ानून में इस बात का प्रावधान है कि किसी आपदा या जातीय हिंसा का शिकार हुआ व्यक्ति मुआवजा या किसी और चीज के लिए क़ानूनी सेवाओं का सहारा ले सकता है। संसद के क़ानून के तहत गठित द दिल्ली स्टेट लीगल सर्विसेज ऑथोरिटी (डीएलएसए) को अब तक पीड़ितों की मदद के लिए सामने आ जाना चाहिए था लेकिन दंगा प्रभावित इलाक़ों में वह कहीं दिखाई नहीं पड़ रही थी। ‘हर व्यक्ति को इंसाफ़ मिले’ यह सिर्फ़ एक नारा नहीं है, बल्कि एक तरीक़े की प्रतिबद्धता है। डीएलएसए ने दंगा होने के एक हफ़्ते बाद पाँच हेल्प डेस्क बनाए। लेकिन जब मैं इन हेल्प डेस्क के पास गया तो मुझे इस बात का अहसास हुआ कि कम से कम दो हेल्प डेस्क पर जो वकील थे उनको इस बात का कोई अंदाज़ा ही नहीं था कि उन्हें करना क्या है। वे पीड़ितों की मदद क्या करते, उन्हें तो ख़ुद मदद की दरकार थी। मैं इन वकीलों के प्रयासों का मज़ाक नहीं उड़ाना चाहता, लेकिन मुझे इस बात का अहसास है कि डीएलएसए की वार्षिक रिपोर्ट में यह लिखा जाएगा कि दंगा पीड़ितों के लिए कितना ज़बरदस्त काम किया गया। यही सचाई है।
हालाँकि जब राहत के लिए दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया गया तब वह फौरन हरकत में आया। उसने देर रात मामले की सुनवाई की और पीड़ितों को ज़रूरी राहत दिलाने का काम किया। साथ ही प्रशासन की जवाबदेही तय करने के लिए सवाल पूछे। लेकिन अगले ही दिन अदालत इस निष्कर्ष पर पहुँची कि अभी एफ़आईआर दर्ज करने का सही समय नहीं है और छह हफ़्तों के लिए सुनवाई टाल दी।
ज़रा सोचिए कि घरेलू हिंसा या बलात्कार पीड़ित एफ़आईआर दर्ज कराने के लिए जाती है और एसएचओ यह कहता है कि अभी एफ़आईआर दर्ज करने का उचित समय नहीं है क्योंकि पीड़ित दुबारा घरेलू हिंसा और बलात्कार की शिकार हो सकती है। है न हैरानी की बात!
इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली हाई कोर्ट से गुज़ारिश करनी पड़ी कि वह तुरंत मामले की सुनवाई करे। कितने लोग हैं जिनकी हैसियत सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने की है।
एफ़आईआर दर्ज होने के बाद किसी अपराध की जाँच प्रक्रिया शुरू होती है। अगर एफ़आईआर दर्ज नहीं होती है तो किसी तरह की जाँच नहीं होती है। ढेरों मामले पड़े हुए हैं जिसमें अदालतों ने पीड़ितों से यह सवाल पूछा है कि एफ़आईआर दर्ज कराने में क्यों देरी की? कई मामलों में देरी का कारण तो समझ में आता है लेकिन बहुत सारे ऐसे मामले हैं जब देरी की वजह से अपराधी छूट जाते हैं। किसी जाँच का शायद महत्वपूर्ण पहलू होता है सबूत इकट्ठा करना। और अगर ऐसा लगता है कि सबूतों से छेड़छाड़ की जा सकती है या गवाहों को बरगलाया जा सकता है तब जाँच अधिकारी आरोपी को गिरफ़्तार तक कर सकता है। ऐसे में अगर एफ़आईआर दर्ज करने में चार हफ़्ते से ज़्यादा का समय लगता है, जैसा कि दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने आदेश में लिखा है, तो शातिर आरोपी महत्वपूर्ण सबूतों को नष्ट कर और गवाहों को लालच व धमकी के ज़रिए बरगला कर पूरी जाँच को भटका सकता है। इसकी वजह से अपराधी साफ़ बच सकता है और ऐसे में पुलिस के पास केस बंद करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है। क्या इसे न्याय कहेंगे या अन्याय?
न्यायपालिका की भूमिका
दंगों के दौरान न्यायपालिका की भूमिका इसलिए महत्वपूर्ण होती है क्योंकि यह पूरे हालात को अराजकता में बदलने से रोक सकती है। न्यायपालिका के हाथ में तलवार नहीं होती है और न ही उसके पास सरकारी खजाना होता है। उसके पास इससे भी ज़्यादा ताक़तवर चीज होती है- नैतिक आभा और जनता का विश्वास। न्यायपालिका जो कहती है या जो करती है उसका ज़बरदस्त असर होता है और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसके हाथ में तलवार है और किसके हाथ में खजाने की कुँजी। ऐसे माहौल में जब फौरन क़दम उठाने की ज़रूरत होती है तब न्यायपालिका से उम्मीद नहीं की जाती कि वह वकीलों के माँगने पर सुनवाई स्थगित कर दे या फिर इस बात पर विचार करे कि अभी माहौल ठीक नहीं है। अक्सर अदालतों के दखल से माहौल बेहतर होता है और संविधान और क़ानून में दिए अधिकारों की वजह से सरकार ख़ासतौर पर पुलिस को और मज़बूती मिलती है। यह औपनिवेशिक विचार है कि अदालतों को तब तक कार्यवाही नहीं करनी चाहिए जब तक कि कोई उसका दरवाज़ा नहीं खटखटाए। इसकी जगह यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि जनहित के मामलों में अदालत को आगे बढ़कर कार्यवाही करनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होगा तो एडीएम जबलपुर के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला एक बार फिर हमारे सामने खड़ा हो जाएगा जो अभी भी हमें परेशान करता रहता है।
आपराधिक न्याय व्यवस्था में अभियोजन आख़िरी अध्याय होता है। हाल के उदाहरणों से यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि पुलिस ने बोलने की आज़ादी और भड़काऊ भाषणों के बीच फर्क करना बंद कर दिया है।
दिल्ली में ताक़तवर लोगों द्वारा भड़काऊ भाषण और नारे, जो हो सकता है कि राजद्रोह की श्रेणी में न आए, लेकिन उन्हें निश्चित तौर पर नफ़रती बयान कहा जा सकता है और ऐसे मामलों में पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। जबकि दूसरी तरफ़ कमज़ोर लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उनको सलाखों के पीछे कर दिया गया। जिनको राजद्रोही बताया गया वे दरअसल पानी के बुलबुले से ज़्यादा कुछ नहीं थे। उनके बारे में यह कहना कि वो भड़काऊ थे या लोगों को भड़काने का प्रयास कर रहे थे या सरकार के प्रति अविश्वास पैदा करने की कोशिश में जुटे थे, ये सब बेईमानी है। आरोप-प्रत्यारोप से अलग हटकर सवाल यह है कि जो लोग दिल्ली दंगों के गुनहगार हैं, क्या उनकी पहचान कभी हो भी पाएगी? क्या उनके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज होगा और क्या उन्हें कभी सज़ा मिलेगी? दिल्ली में हुए 1984 के दंगों में सज्जन कुमार को अपराधी ठहराने में हमारी न्याय व्यवस्था को 35 साल लग गए थे। ऐसे में मौजूदा व्यवस्था कब मौजूदा दंगों के गुनहगारों को सज़ा दे पाएगी? और वैसे भी किसे इस बात की परवाह है?
और अंत में हम अपने गौरवमयी संविधान की प्रस्तावना को पढ़ते हैं और चार महत्वपूर्ण शब्द- न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की सराहना करते हैं। क्या हमें इन सभी का या कुछ का या किसी का भी कोई अर्थ समझ में आता है या नहीं?
साभार: ‘द हिंदू’