सरकार ने कॉलेजियम की 70 सिफारिशें क्यों रोकीं? जानें सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
क्या केंद्र सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में हस्तक्षेप चाहती है? आख़िर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की सिफारिशों के अनुसार नियुक्ति में इतनी देरी क्यों हो रही है? एक सवाल यह भी है कि क्या कॉलेजियम की सिफारिशों पर फिर से सुप्रीम कोर्ट और केंद्र के बीच टकराव की स्थिति आएगी? ये सवाल इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सवाल किया कि केंद्र ने अभी तक उच्च न्यायालयों की सिफारिशें कॉलेजियम को क्यों नहीं भेजी हैं।
नामों को मंजूरी देने में केंद्र द्वारा देरी किए जाने का आरोप लगाने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा था। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने कहा कि वे मामले की बारीकी से निगरानी कर रहे हैं। न्यायमूर्ति कौल ने केंद्र से कहा, 'उच्च न्यायालय के कई नाम 10 महीने की अवधि से लंबित हैं। केवल एक बुनियादी प्रक्रिया है। आपका दृष्टिकोण जानना होगा ताकि कॉलेजियम निर्णय ले सके।' पीठ ने कहा कि 26 न्यायाधीशों का स्थानांतरण और संवेदनशील उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति लंबित है।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अगुवाई वाली पीठ ने भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी के साथ अपनी चिंता साझा की कि 11 नवंबर 2022 से सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा की गई सत्तर सिफारिशें केंद्र सरकार के पास लंबित हैं। इनमें से सात नाम ऐसे हैं जिन्हें कॉलेजियम ने दोहराया है। जस्टिस कौल ने खुलासा किया कि चार दिन पहले तक 80 फाइलें लंबित थीं और उसके बाद सरकार ने 10 फाइलों को मंजूरी दे दी। तो मौजूदा आंकड़ा 70 है।
जस्टिस कौल ने कहा, 'दोहराए गए नामों की संख्या 7 है। 9 नाम पहली बार प्रस्तावित किए गए हैं, 1 मुख्य न्यायाधीश की पदोन्नति, 26 स्थानांतरण... जिसका मतलब है कि 11 नवंबर, 2022 से 70 नामों की सिफारिश की गई है।' इस पर एजी वेंकटरमणी ने एक सप्ताह का समय मांगा।
वैसे, सुप्रीम कोर्ट लगातार सिफारिशों को लागू करने के लिए केंद्र पर तीखी टिप्पणियाँ कर रहा है, लेकिन केंद्र की ओर से सकारात्मक क़दम उठता हुआ नहीं दिख रहा है। पूर्व क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू तो सीधे-सीधे टकराव लेते रहे थे।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाते रहे हैं। इसी साल फरवरी महीने में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायपालिका की तुलना में विधायिका की शक्तियों का मुद्दा उठाया था।
उन्होंने संसद के कामों में सुप्रीम कोर्ट के 'हस्तक्षेप' पर नाराजगी जताई थी और कहा था कि संसद कानून बनाती है और सुप्रीम कोर्ट उसे रद्द कर देता है। उन्होंने पूछा था कि क्या संसद द्वारा बनाया गया कानून तभी कानून होगा जब उस पर कोर्ट की मुहर लगेगी।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा था- 'क्या हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं', इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा। केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं।
धनखड़ ने कहा था कि 1973 में एक बहुत गलत परंपरा शुरू हुई। उन्होंने कहा कि 'केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने मूल संरचना का सिद्धांत दिया कि संसद संविधान संशोधन कर सकती है, लेकिन इसकी मूल संरचना को नहीं। कोर्ट को सम्मान के साथ कहना चाहता हूँ कि इससे मैं सहमत नहीं।'
पूर्व क़ानून मंत्री रिजिजू ने इस साल फरवरी महीने में एक कार्यक्रम में कहा था कि 'मैंने समाचार में देखा कि उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी है। लेकिन इस देश के मालिक इस देश के लोग हैं। हम लोग सेवक हैं। अगर कोई मालिक है, तो यह जनता है। यदि कोई मार्गदर्शक है, तो वह संविधान है। संविधान के मुताबिक़ जनता की सोच से यह देश चलेगा। आप किसी को चेतावनी नहीं दे सकते।'
रिजिजू ने तब कहा था, 'जज बनने के बाद उन्हें चुनाव या जनता के सवालों का सामना नहीं करना पड़ता है... जजों, उनके फ़ैसलों और जिस तरह से वे न्याय देते हैं, और अपना आकलन करते हैं, उसे जनता देख रही है... सोशल मीडिया के इस युग में, कुछ भी नहीं छुपाया जा सकता है।'
न्यायपालिका और सरकार के बीच न्यायाधीशों की नियुक्ति और संविधान के मूल ढाँचा के सिद्धांत को लेकर चले आ रहे टकराव के बीच रिजिजू का वह बयान आया था।
किरेन रिजिजू ने कहा था कि 1947 के बाद से कई बदलाव हुए हैं, इसलिए यह सोचना गलत होगा कि मौजूदा व्यवस्था जारी रहेगी और इस पर कभी सवाल नहीं उठाया जाएगा।
कुछ महीने पहले सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में एक बड़ी भूमिका की मांग कर रही थी, यह तर्क देते हुए कि विधायिका सर्वोच्च है क्योंकि यह लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। कुछ महीने पहले एक रिपोर्ट आई थी कि तत्कालीन कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र लिखा था जिसमें मांग की गई कि जजों की नियुक्ति के मसले पर बनने वाली समिति में सरकार के प्रतिनिधि को शामिल किया जाना चाहिए। यानी जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में केंद्र और संबंधित राज्य सरकार के प्रतिनिधि को शामिल किया जाए। पत्र में लिखा गया था कि यह पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही के लिए ज़रूरी है।