+
एक पत्रकार की मौत, एक कोरोना वॉरियर का क्रूर शहादतनामा

एक पत्रकार की मौत, एक कोरोना वॉरियर का क्रूर शहादतनामा

विगत गुरुवार हिंदी के प्रमुख अख़बार 'दैनिक जागरण' के आगरा संस्करण के चीफ़ सब एडिटर पंकज कुलश्रेष्ठ कोरोना के विरुद्ध युद्ध हार गए। लेकिन क्या प्रशासनिक लापरवाही नहीं होती तो वह इतनी आसानी से वह हार मानते?

विगत गुरुवार हिंदी के प्रमुख अख़बार 'दैनिक जागरण' के आगरा संस्करण के चीफ़ सब एडिटर पंकज कुलश्रेष्ठ कोरोना के विरुद्ध युद्ध हार गए। संभव है पंकज यह लड़ाई जीत जाते लेकिन कोविड-19 को लेकर सारे देश में कुख्याति बटोर चुके आगरा के क्रूर और लापरवाह चिकित्सा और प्रशासकीय तंत्र ने मिलकर उन्हें परास्त हो जाने को मजबूर कर दिया। शुरू के 4-5 दिन वह अपनी जाँच के लिए यहाँ से वहाँ गिड़गिड़ाते घूमते रहे। किसी तरह ढेरों 'सोर्स' और 'सिफ़ारिशों' के बाद आख़िरकार जब जाँच हुई भी तो एक सप्ताह तक जाँच रिपोर्ट नहीं आयी। रिपोर्ट आयी तो शुरू के 2-3 दिन उनका ग़ैर-ज़िम्मेदाराना इलाज चला। अंतिम दो दिन ज़रूर उन्हें वेंटिलेटर प्रदान करने के सम्मान से नवाज़ा (!) गया लेकिन तब तक वायरस उनके भीतर सुरसा रूप ग्रहण कर चुका था। अंततः उन्हें 'कोविड वॉरियर' का शहादतनामा जबरन स्वीकार करना पड़ा।

पॉज़िटिव पाए जाने वाले आगरा जागरण के अन्य 12 पत्रकार भी शहर से 35 किलोमीटर दूर एक इंजीनियरिंग कॉलेज को तात्कालिक रूप से बदल कर तैयार हुए एक ‘दो टके’ के अस्पताल में दाखिल हैं। 'संस्थान' के एक संदेहास्पद पत्रकार और एक ग़ैर पत्रकार कर्मी को शहर के एक वृद्धाश्रम में क्वॉरंटीन किया गया है। उधर इसी संस्थान के 5 वरिष्ठ पत्रकार और ग़ैर पत्रकारों को ज़िलाधिकारी और सीएमओ की विशेष अनुमति के साथ अख़बार के दफ्तर में ही क्वॉरंटीन करके रखा गया है। आख़िर संस्करण भी तो छापना था। ऐसी ख़बर भी है कि संक्रमण के संदेह में संस्थान के कई दूसरे पत्रकारों ने ख़ुद को घरों में क्वॉरंटीन कर लिया है। 

यूँ तो मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, श्रीनगर, हैदराबाद, मंगलूर, कानपुर जैसे कई बड़े शहरों के अलावा छोटे शहरों के सैकड़ों पत्रकार भी कोविड-19 से संक्रमित होने के बाद जंग में जान हलाकान किये हुए हैं लेकिन आगरा में होने वाली यह मौत देश में महामारी के विरुद्ध होने वाले युद्ध में किसी पत्रकार के बलिदान की पहली कड़ी है जो आने वाले दिनों में ऐसे फौजियों के ‘संभावित नरसंहार’ का संकेत देती है जो मोर्चे पर गोला-बारूद का मुक़ाबला करने को खदेड़ कर लाए तो गए हैं लेकिन जिनके पास आत्मरक्षार्थ फुटुल्ली देसी तमंचा भी नहीं। पिछले 4 दशकों में अख़बारों के आंचलिक संस्करणों की बंदरबांट में समाचारों के आवागमन पर जिस तरह से रोकथाम की गयी है, वह यदि नहीं होती तो कोविड-19 के शहादतनामों में मीडिया जनों की तादाद सैकड़ों-सैकड़ों में आँकी जा सकती थी।

कोरोना की बिसात पर जो लोग 'फेन्स' के दूसरी तरफ़ चौसर लिए पाँव पसारे बैठे हैं, वे तत्काल ज्ञान बघार सकते हैं कि महाभारत में चक्रव्यूह के भीतर जब दूसरे घुस रहे हैं और हलाल हो रहे हैं तो मीडियाकर्मियों को लेकर काहे का स्यापा?

यह सही है कि गुज़रे 2 महीने में कोविड-19 सैकड़ों की तादाद में डॉक्टरों, नर्सों, पैरा मेडिकल स्टाफ़, सफ़ाई कर्मचारी और पुलिसकर्मियों को लील गया। यह भी सही है कि उनकी हौसला अफ़ज़ाई के लिए जिस दिन सारे देश से ताली और थाली बजवाई गयी, ठीक उसी दिन उनकी सुरक्षा के लिए पहली बार मेडिकल सूट (पीपीई) का अंतरराष्ट्रीय टेंडर भेजा गया। डॉक्टरों, नर्सों और पैरा मेडिकल स्टाफ़ और उनकी यूनियनों ने जब हो हल्ला मचाया तो कुछ कुछ सप्लाई शुरू की गयी। पेशेवर पीपीई तो कम ही लोगों को महफूज़ हुए, बाकियों को रेनकोट में लपेट कर प्राणघातक वायरस के सामने खड़ा कर दिया गया। मरता क्या न करता।

डॉक्टर और नर्स को प्लास्टिक कवच!

डॉक्टर और नर्स बेचारे कुछ प्लास्टिक कवच की ताक़त के दम पर और कुछ आत्मबल के रथ पर सवार होकर चक्रव्यूह भेदने को कूच कर गए। जो शहीद हो गए, देश ने उनकी क़ुर्बानी के जज़्बे को सलाम किया, फ़ौज ने बैंड बजाकर और एयरफ़ोर्स के जहाज़ों ने फूल बरसाकर उनका गुणगान कर लिया। उनके पीछे रोते-कलपते उनके बीबी बच्चों ने उनकी नौकरियों के ग्रुप इंश्योरेंस के झुनझुने से सब्र कर लिया। केजरीवाल के दिल्ली के शहीदों पर लगाए गए एक करोड़ के मरहम ने ज़रूर देश भर के कोविड शहीदों के बीबी बच्चों के सामने 'हाय हुसैन (हम दिल्ली में) न हुए' के वीतराग का पांसा फेंका लेकिन देश के बाक़ी मुख्यमंत्रियों ने अपने कान में सीसा उड़ेल लिया। चलिए इन लोगों की तो कुछ सुनवाई हुई। वे ख़ुद जिगरे वाले थे। चीख सकते थे, दहाड़ सकते थे। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास याचिका का कटोरा लेकर रिरिया सकते थे, मीडिया की मदद से देश भर में भोकाल बना सकते थे। कमज़ोर पड़ता देख उनकी यूनियनें इंक़लाब-ज़िंदाबाद कर सकती थीं।

पत्रकार बेचारा कहाँ जाए? उसके पास न तो भीतर का कवच है न बाहर का। पीपीई की बात दरकिनार, कंपनी एन-95 मास्क और सैनिटाइज़र भी ख़रीद कर नहीं दे सकती।

अपनी जेब से खरीदना पड़ता है तो बीबी से हाथ पाँव जोड़ पुरानी टीशर्ट कटवा के मास्क सिलवा लेता है और चेहरे पर 'इकोनॉमी आइटम' बांधकर चाहे जिस घटना-दुर्घटना में सारस की तरह अपनी गर्दन निकाल कर हाज़िर हो जाता है। ऑफ़िस को सैनिटाइज़ करने के नाम पर एडमिन वाले 5 सौ एमएल की सैनिटाइज़र की एक शीशी और 'एक्वा' के घालमेल से 1 हज़ार एमएल की तीन बोतल तैयार कर लेते हैं। पीपीई की माँग करते डॉक्टरों और नर्सों के आंदोलन की स्टोरी फ़ाइल करते हुए उसे बड़ी उबकाई आती है। उसका जी करता है कि सम्पादक जी या जीएम के सामने खड़ा होकर दहाड़े और 'पीपीई ज़िंदाबाद' के नारे लगाए। लेकिन मजबूर है। उसकी अपनी कोई यूनियन नहीं है। कुछ साल पहले 'नॉन जर्नलिस्टों' ने दफ्तर में प्लांट यूनियन बनाने की जब कोशिश की थी और हड़ताल हुई तब रात में अख़बारों के बण्डल कंधे पर ढो कर सर्कुलेशन की गाड़ियों तक वही पहुँचता था। 

मुख्यमंत्री की प्रेस कॉन्फ्रेंस में वह सोचकर जाता है कि सरकार की तरफ़ से विशेष कोविड इंश्योरेंस दिए जाने की माँग उठाएगा लेकिन उसका नम्बर ही नहीं आ पाता। हार कर वह चीफ़ सेक्रेटरी की डेली ब्रीफिंग में पत्रकारों को पीपीई दिए जाने का सवाल उठाना चाहता है। तब लेकिन उसे याद आता है कि यह तो एकतरफ़ा ब्रीफ़िंग है, सवाल पूछने की थोड़े ही होती है।

रोज़ सुबह एडिटोरियल मीटिंग में यह सोचकर वह जाता है कि सम्पादक जी और जीएम सर से पूछेगा कि ऐसे मौक़े पर, जबकि वह और उस जैसे उसके दूसरे साथी जान हथेली पर रखकर अपने कर्तव्य पालन को जूझ रहे हैं, उन्हें अतिरिक्त भत्ते मिलने की जगह आधी तनख्वाह में क्यों सिमटाया जा रहा है? कुछ पूछने से पहले ही संपादक जी और जीएम सर उसी से पूछ बैठते हैं- कोरोना के चक्कर में विज्ञापन और सर्कुलेशन लगातार गिरते जा रहे हैं, क्या करना चाहिए?

बच्चे बड़े समझदार हैं। उन्हें मालूम है कि पापा की तनख्वाह आधी हो गयी है। रोज़ सुबह घर से निकलते समय बेटे और बेटी को दुलारता है। वे हैरान हैं। सोचते हैं कि पापा को क्या हो गया है? हम तो अब कोई डिमांड करते नहीं। वे नहीं जानते कि पापा ये सोचकर दुलार रहे हैं कि मालूम नहीं शाम को इनका मुँह देखना नसीब होगा कि नहीं। क्या पता सीधे आइसोलेशन वार्ड भेज दिया जाऊँ। दिन में छह-आठ बार बीबी खरखराती आवाज़ में फ़ोन करके इश्क बघारती है तो उसे हँसी आती है। वह समझ जाता है, बेचारी तौल रही है - अभी तक ज़िंदा हूँ या कोविड-19 की भेंट चढ़ गया।

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें