‘अरुण भाई का मंद-मंद मुस्कराता चेहरा आँखों के सामने घूम रहा है’
अलविदा अरुण भाई!
सुबह से फ़ेसबुक पर शोक की एक नदी बह रही है जिसके हर क़तरे पर एक नाम है- अरुण पांडेय। यह नदी कई-कई शहरों से गुज़रती हुई विलाप को गहराती जा रही है। यह विलाप उनका भी है जो अरुण भाई से दस-पंद्रह साल बड़े थे या फिर इतने ही छोटे। किसी को यक़ीन नहीं हो रहा है कि हर मुश्किल को आसान बनाने वाले अरुण भाई, इस तरह हार जायेंगे।
कल विमल भाई (विमल वर्मा) का मैसेज आया कि अरुण भाई की हालत ख़राब है तो अनहोनी की आशंका ने परेशान कर दिया। अरुण जी के निकट रिश्तेदार और वरिष्ठ पत्रकार बृज बिहारी चौबे से फोन पर बात की तो उन्होंने भी यही कहा कि अब प्रार्थना ही कर रहे हैं। आख़िरकार काल की चाल भारी पड़ गयी। प्रार्थनाएँ काम नहीं आयीं।
अरुण भाई का मंद-मंद मुस्कराता चेहरा आँखों के सामने घूम रहा है। साथ ही चालीस साल का सफ़र भी। इंदिरा गाँधी की हत्या के कुछ दिन बाद के झंझावाती दिनों में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रगतिशील छात्र संगठन (पीएसओ) के कर्मठ नेता बतौर अरुण भाई से पहली मुलाक़ात हुई थी।
हम भी संगठन में शामिल हो गये थे और अरुण भाई के ज़रिये एक नयी दुनिया खुल रही थी। स्वराज भवन के ऐन सामने पीएसओ का दफ्तर था, पर अरुण भाई दूसरे छोर पर आनंद भवन के सामने एक चाय की गुमटी पर हमारे तमाम मूर्खतापूर्ण सवालों का समाधान करते थे। तब कम्युनिस्टों के बारे में इतना ही जानते थे कि चीन में '80 साल की उम्र होते ही गोली मार दी जाती है।'
वे इंडियन पीपुल्स फ्रंट (IPF) के तूफानी दिन थे। हर तरफ़ ज़बरदस्त उत्साह था। छात्र संगठन की ओर से हमेशा कोई न कोई आयोजन या आंदोलन होता था। याद आ रहा है 1985 में हुआ फ़ीस वृद्धि के विरुद्ध हुआ ज़बरदस्त आंदोलन। अरुण भाई तब बेहद दुबले पतले हुआ करते थे पर आंदोलन को धार देने में सबसे आगे थे। उनके साथ कुछ ऐसे 'ऐक्शन' भी किये गये, जिस पर अब यक़ीन नहीं होता। पीएसओ की लाइब्रेरी के नीचे जिस कमरे में वे रहते थे वहाँ हम भी अक्सर पड़े रहते थे। एक बार 'शान-ए-सहारा' में तानाशाही के ख़िलाफ़ छपी पाकिस्तान के एक शायर की ग़ज़ल - 'दोस्तों बारागहे क़त्ल सजाते जाओ, क़र्ज़ है रिश्ता-ए-जाँ क़र्ज चुकाते जाओ' गुनगुना रहे थे कि अरुण भाई ने पकड़ लिया। कहा-आप तो बढ़िया गाते हैं और कुछ दिन बाद ही यूनियन हॉल में आयोजित पीएसओ के किसी कार्यक्रम में हम मंच पर थे। वही गज़ल गा रहे थे। फिर कब संगठन की सांस्कृतिक संस्था 'दस्ता' के हिस्से बने और हाथ में ढफली उठाकर शहर-शहर घूमने लगे, पता ही नहीं चला।
कहने का मतलब कि अरुण भाई ज़बरदस्त ऑर्गनाइज़र थे। संसाधनों के अभाव के बावजूद बड़े-बड़े आयोजन उनकी वजह से संभव हो जाते थे। जब अगस्त 1990 में पीएसो जैसे तमाम राज्यों में सक्रिय छात्र संगठनों को मिलाकर ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) का गठन हुआ तो वे महत्वपूर्ण भूमिका में थे।
उसके आसपास ही वे लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्र संगठन बनाने की ज़िम्मेदारी लेकर गये थे, लेकिन वहाँ ज़रूर कुछ ऐसा हुआ कि कुछ समय बाद उनका रुख़ दिल्ली की ओर हुआ और वे पत्रकारिता की दुनिया में आ गये।
उस समय वे दिल्ली की मदर डेयरी के पीछे शायद चेतना अपार्टमेंट में रहते थे। उनका घर न जाने कितने बेरोज़गारों का अड्डा बना। तमाम लोगों को नौकरियाँ दिलवायीं। हमारे लिए भी तभी पत्रकारिता में आने का रास्ता खुला था, लेकिन एक तो नौकरी न करने का फ़ितूर दिमाग़ में था और दूसरा, पत्रकारों को उस समय के वेतन से ज़्यादा यूजीसी की फ़ेलोशिप थी, जो हमें मिल रही थी। ऐसे में नौकरी न करके बीच-बीच में दिल्ली में होने वाले आयोजनों में आता रहा, अरुण भाई का अड्डा, अपना अड्डा है के यक़ीन के साथ।
अरुण भाई राष्ट्रीय सहारा के शनिवारीय परिशिष्ट 'हस्तक्षेप' में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। 'पूर्व गूगल' दिनों में हस्तक्षेप का क्या महत्व था, यह उन दिनों के छात्रों से पूछा जा सकता है। एक ही विषय के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा कराने का यह उपक्रम, ख़ासतौर पर प्रतियोगी छात्रों के लिए इतना ज़रूरी बन गया था कि वे इसकी फाइल बनाकर रखने लगे थे। अरुण जी की ज़िंदगी की फ़ाइल भी व्यवस्थित हो रही थी। बलिया से आए फ़क्कड़ अरुण जी पत्रकारिता में झंडे गाड़ रहे थे। इलाहाबाद में उनकी शादी हुई तो उसका जश्न मनाने कई शहर वहाँ जमा हुए (जिसकी शायद पच्चीसवीं वर्षगाँठ कुछ साल पहले दिल्ली में मनायी गयी तो हम तमाम पुराने दोस्त शामिल हुए।) हम लोग भी अरुण जी की नयी भूमिका से ख़ुश थे।
2007 में हम भी स्टारन्यूज़ छोड़कर दिल्ली से लखनऊ आ गये। सहारा का राष्ट्रीय चैनल 'समय' की लांचिंग टीम का हिस्सा होकर। अरुण जी तब भी वहीं थे, लेकिन स्थिति कुछ बदली हुई लग रही थी। कुछ दिन बाद वे भी टीवी पत्रकारिता में चले गये। पहले न्यूज़ 24 और फिर इंडिया टीवी। कहना न होगा कि टीवी ने उस पुराने तेजस्वी अरुण को खा लिया जिसका हस्तक्षेप हिंदी पट्टी महसूस करती थी। टीवी पत्रकारिता के नाम पर जो हो रहा था, उसके साथ उनका मन किसी सूरत में नहीं बैठ सकता था, लेकिन वे कर रहे थे। कैसे कर रहे थे, यह कभी-कभार होने वाली बातचीत से पता चलता था। टीवी में उनके साथ काम करने वाले उन्हें बहुत 'शांत' बताते थे और हैं। वे उस तूफ़ान को कभी नहीं समझ सकते जिसे दबाकर अरुण जी शांत नज़र आते थे। कितना मुश्किल रहा होगा वह सब मैनेज करना, पर वे करते थे। इसने उन्हें अगर हाईपरटेंशन का मरीज़ बना दिया तो अचरज कैसा?
ख़ैर, यह क़िस्सा भी कुछ समय पहले ख़त्म हो गया। वे चैनल से भी बाहर आ गये थे। गाहे-बगाहे उनके लेख अख़बारों में दिखने लगे थे। बीच में एक-दो बार कुछ 'नया' करने को लेकर बातचीत भी हुई, लेकिन फ़क़त योजनाओं से क्या हो पाता! बीच में एक दिन ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसान आंदोलन पर उन्हें अभय कुमार दुबे और अजित अंजुम के साथ चर्चा करते यूट्यूब पर देखा तो ख़ुशी हुई। फिर वे अजित जी के यूट्यूब चैनल के लिए उनके साथ बंगाल चुनाव कवर करने चले गये। उन्हें वहीं कोरोना हुआ। हो सकता है कि शुरुआती लक्षणों को उन्होंने महत्व न दिया हो। चुनाव कवर करने का रोमांच एक पत्रकार ही समझ सकता है जिसके आगे वह अक्सर अपनी हालत को महत्व नहीं देता। लौटकर आते ही वे पड़ गये। फिर ठीक भी हो गये। फिर हालत बिगड़ी, फिर ठीक हुए.. वेंटीलेटर पर जाने और सकुशल आने की ख़बर आती रही...फिर...फिर..और फिर फ़ुर्र। हंस उड़ गया अकेला..!
कुछ दिन पहले अंबरीश राय भाई भी इसी तरह अचानक चले गये। अब अरुण भाई भी। शोक की नदी हर दिन विकराल रूप ले रही है। पता नहीं कौन बचेगा कौन नहीं। इस दुनिया को बदलने का जो सपना देखा गया था, वह अब भी पुकार रहा है, पर दुनिया बचेगी और वैसी ही बचेगी, इसका भरोसा नहीं रहा। मरने वाले के लिए तो बस खटका दबने जैसा मसला है, मृत्यु का असल अहसास तो उन्हें होता है जो जीवित हैं।
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे।
क्या ख़ूब, क़यामत का है गोया कोई दिन और..!
अलविदा अरुण भाई!
(पंकज श्रीवास्तव की फेसबुक वाल से)