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क्या आरपीएन सिंह के आने से बीजेपी को फायदा होगा?

क्या आरपीएन सिंह के आने से बीजेपी को फायदा होगा?

आरपीएन सिंह को अपने पाले में करके बीजेपी क्या पूर्वांचल में ओबीसी वोटबैंक में लगी सेंध की भरपाई कर पाएगी?

कांग्रेस के संगठन के मजबूत नेता और मनमोहन सिंह के शासन में केंद्रीय मंत्री रहे उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के नेता आरपीएन सिंह ने बीजेपी का दामन थाम लिया है। महज एक दिन पहले कांग्रेस ने उन्हें अपने स्टार प्रचारकों की सूची में रखा था। उत्तर प्रदेश की राजनीति में चुनाव जातीय गणित में सिमटता है, इसलिए स्वाभाविक रूप से आरपीएन की जाति की चर्चा सर्वाधिक है। विभिन्न समाचार माध्यमों में यह चर्चा गर्म रही कि आखिर आरपीएन की जाति क्या है और पूर्वांचल में उनकी जाति का कितना असर है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, महराजगंज, देवरिया, कुशीनगर, मऊ, आजमगढ़, खलीलाबाद और बस्ती के कुछ इलाकों में सैंथवार जाति बहुलता से पाई जाती है। यह मूल रूप से खेती बाड़ी से जुड़ी जाति है। बहुलता वाले इलाकों में इस जाति की स्वतंत्रता के पहले से जमींदारियां रही हैं। सैंथवार जाति का एक अपना अलग अस्तित्व रहा है, जो अमूमन 90 प्रतिशत सिंह सरनेम और 10 प्रतिशत मल्ल सरनेम लगाते हैं। क्षत्रियों में इनकी शादियां नहीं होतीं, लेकिन  1990 तक अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा की गोरखपुर इकाई में इस जाति के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष बनाए जाने की परंपरा रही थी।  

अगर राजनीतिक रुझान का विश्लेषण करें तो स्वतंत्रता की लड़ाई में इस जाति के लोग बड़ी संख्या में गांधीवादी रहे। 

देश स्वतंत्र होने के बाद उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कोटे से पंतनगर और मौजूदा उत्तराखंड में जमीनें दी गई। स्वतंत्रता के बाद इस जाति के अक्षयबर सिंह गोरखपुर के पिपराइच विधानसभा से लगातार 2 बार विधायक रहे। पार्टी संगठन में उनका इतना दबदबा था कि टिकट बांटने का काम उन्हीं के जिम्मे रहता था। उम्र का हवाला देते हुए 2 कार्यकाल के बाद उन्होंने राजनीति से सेवानिवृत्ति ले ली। इसके अलावा उसी दौर की समानांतर समाजवादी धारा में सुग्रीव सिंह विधायक हुए। 

उसके बाद की राजनीति में प्रमुख रूप से आरपीएन सिंह के पिता सीपीएन सिंह का नाम आता है, जो इंदिरा गांधी के कार्यकाल में केंद्रीय रक्षा राज्य मंत्री पद पर पहुंचने में सफल रहे।

विश्वनाथ प्रताप सिंह और जनता दल के अस्तित्व में आने के बाद पूर्वांचल के तमाम क्षत्रिय नेता जनता दल में शामिल हो गए। उसी लहर में सैंथवार जाति ने भी कांग्रेस छोड़कर जनता दल का दामन थामा। उस दौर के इस जाति के सबसे बड़े नेता रहे केदारनाथ सिंह को विश्वनाथ प्रताप सिंह का खास माना जाता था। उनके अलावा नंद किशोर सिंह भी जनता दल के विधायक बने। 

मूल रूप से कुर्मी जाति 

मंडल कमीशन लागू होने के बाद आरक्षण में न आने वाली जातियों की तरह इस जाति की राजनीति दिशाहीन होकर हाशिये पर चली गई। बाद में सैंथवार जाति के ऐतिहासिक साक्ष्य खोजे गए और उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग के सामने साक्ष्य दिया गया कि सैंथवार जाति मूल रूप से कुर्मी है। 

आयोग ने मान लिया और उत्तर प्रदेश में यह जाति भी कुर्मी-मल्ल और कुर्मी-सैंथवार नाम से पिछले दरवाजे से ओबीसी आरक्षण की लाभार्थी बन गई। बाद में जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी तो आरपीएन सिंह की कवायदों से 2006 में केंद्र की ओबीसी लिस्ट में भी कुर्मी-सैंथवार और कुर्मी-मल्ल नाम से इस जाति को ओबीसी आरक्षण में शामिल कर लिया गया।

ओबीसी आरक्षण में आने और बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के प्रभावशाली होने के बाद सैंथवार जाति ने इन दलों में अस्तित्व तलाशना शुरू किया।

समाजवादी पार्टी में अक्षयबर मल्ल और केदारनाथ सिंह पूर्वांचल में नेता बने, लेकिन सपा से इस जाति का कभी कोई व्यक्ति विधानसभा नहीं पहुंच पाए। अमूमन समाजवादी पार्टी ने इस जाति को विधानसभा या लोकसभा का टिकट नहीं दिया। वहीं बसपा ने गोरखपुर में देव नारायण सिंह और देवरिया में राजेश सिंह को आगे बढ़ाया, कुछ और भी स्थानीय नेता बनाए। लेकिन बड़ी आबादी को लुभाने में सफल नहीं रही। वहीं भाजपा ने 1990 के बाद अमूमन हर चुनाव में 3 विधान सभा टिकट सैंथवारों को दिया, संगठन में जगह दी और इस जाति को अपने पाले में कर लिया। 

 - Satya Hindi

गोरखनाथ मंदिर से जुड़ाव पहले से ही था। आरपीएन के रिश्तेदार और सैंथवार बिरादरी के बलदाऊ का स्कूल ही मंदिर से सटे या कहें मंदिर कैंपस में है, जो दिग्विजयनाथ के जमाने से ही मंदिर के प्रभावशाली लोगों में शामिल थे। सपा या बसपा ने कभी इस जाति को अपने पाले में करने की जरूरत ही नहीं समझी, उनके बगैर भी आराम से चुनाव जीतती रहीं। इस बीच पड़रौना विधानसभा से चुनाव जीतकर आरपीएन लगातार कांग्रेस की अलख जगाए रहे, लेकिन कांग्रेस के खत्म होने और सीपीएन सिंह की हत्या के बाद सैंथवारों पर उस परिवार का असर कम होने लगा।

मौजूदा स्थिति देखें तो बसपा में रहे सैंथवार जाति के नेता देवनारायण सिंह भाजपा के शरणागत हो चुके हैं। समाजवादी पार्टी में अक्षयबर सिंह के परिवार के नेता कृष्णभान सिंह एकमात्र सपा के टिकट के दावेदार हैं। अब सैंथवार जाति की कुल आबादी में से करीब 30 प्रतिशत आबादी खुद को कुर्मी और पिछड़ी जाति मानने लगी है। 

यह प्रभावशाली तबका है, जो मंडल आरक्षण के बाद सरकारी नौकरियों के माध्यम से अस्तित्व बचाने में सफल रहा है।

भाजपा सरकार द्वारा आरक्षण में कथित गड़बड़ियों और कथित रूप से ओबीसी विरोधी राजनीति के कारण सैंथवारों में भाजपा के खिलाफ आक्रोश है। इसमें सबसे ज्यादा खतरा योगी आदित्यनाथ को है, जिनके दाहिने बाएं हाथ और जिताने में अहम भूमिका निभाने वाले सैंथवार बिरादरी के लोग रहे हैं। 

सपा में सैंथवार जाति के एकदम हाशिये पर होने, बसपा में बहुत मामूली अस्तित्व और भाजपा की कथित ओबीसी विरोधी राजनीति के कारण यह जाति राजनीतिक त्रिशंकु की स्थिति में है। ऐसे में भाजपा ने आरपीएन सिंह को अपने पाले में करने की रणनीति अपनाई, जिससे उसका कोर और प्रभावशाली वोट छिटकने न पाए और उसे जातीय नेतृत्व के नाम पर रोका जा सके। 

हालांकि वैवाहिक रिश्तों के हिसाब से देखें तो आरपीएन परिवार का शादी ब्याह रजवाड़ों में होता रहा है और अभी अन्य जातियों में प्रेम विवाह हुए हैं, लेकिन पहले कुछ जमींदार सैंथवार परिवार में भी इनके रिश्ते रहे हैं। 

इस वजह से सैंथवार आरपीएन को अपनी बिरादरी मानते हैं। बसपा से टूटकर देवनारायण सिंह के भाजपा में आने से वह किक नहीं मिल रही थी, जिसकी भाजपा को तलाश थी। संभवतः आरपीएन के आने से  भाजपा को वह किक मिलने की उम्मीद बंधी है, जो पूर्वांचल में राजनीतिक जमीन बचाने के लिए उसके लिए बहुत जरूरी था।

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