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केंद्रीय प्रवेश परीक्षा: क्यों जेएनयू की कुलपति को सुनना ज़रूरी है?

केंद्रीय प्रवेश परीक्षा: क्यों जेएनयू की कुलपति को सुनना ज़रूरी है?

क्या जेएनयू कुलपति का स्नातकोत्तर कक्षाओं के लिए केंद्रीय प्रवेश परीक्षा की पद्धति में बदलाव की मांग करना किसी तरह का दुस्साहस है?

भारत के लोगों के लिए साहस इतना अपरिचित होता जा रहा है कि सूरज उगने पर दिन होता है जैसी बात कहना भी भारी साहस का प्रमाण माना जाने लगा है। ऐसी स्थिति में अगर कोई व्यक्ति तथ्य कथन से आगे बढ़कर अपनी राय दे और वह भी ऐसी जो राजकीय राय से भिन्न हो, तो वह दुस्साहस की श्रेणी में आएगा। और वह और भी बड़ा दुस्साहस है अगर वह व्यक्ति कोई अधिकारी है। यानी वह ऐसे पद पर है जिसके लिए राज्य की कृपा बनी रहनी चाहिए। 

इसीलिए जब यह सुना कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की कुलपति ने स्नातकोत्तर (एम.ए.) कक्षाओं के लिए राष्ट्रीय संयुक्त केंद्रीय प्रवेश परीक्षा की पद्धति पर संदेह व्यक्त किया तो हैरानी हुई। क्या वे हमारे बीच की ही अध्यापक प्रशासक हैं या कहीं और की हैं!

ध्यान रहे, कुलपति ने इस संयुक्त परीक्षा का विरोध नहीं किया, वे मात्र उसके तरीक़े में तब्दीली के लिए संघीय सरकार से अनुरोध कर रही हैं। 

कुलपति का यह कहना भी हैरतअंगेज़ माना जा रहा है। क्या आप ‘ऊपर’ के आदेश के विवेक की पूर्णता पर कोई संदेह कर सकते हैं?

इस साल के आरंभ में जेएनयू ने निर्णय किया कि वह राष्ट्रीय जाँच संस्था (एनटीए) के द्वारा आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा के ज़रिए स्नातकोत्तर कक्षाओं में दाख़िला लेगा। इस निर्णय के पहले इस प्रस्ताव का विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और शिक्षक-शिक्षिकाओं ने जबरदस्त विरोध किया था। 

स्थापना के समय से ही जेएनयू विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए अपनी प्रवेश परीक्षा आयोजित करता रहा है। उसपर आज तक किसी ने कोई सवाल नहीं किया है। जैसे, वैसे ही हम सब, यानी दिल्ली विश्वविद्यालय या हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, आदि अपनी-अपनी प्रवेश परीक्षाएँ आयोजित करते रहे थे।

इन परीक्षाओं में प्रश्न संबंधित पाठ्यक्रमों के अध्यापक ही बनाते रहे थे। यही उचित भी है। ये अध्यापक जानते हैं कि उनका पाठ्यक्रम कैसा है और उसमें दाख़िले के लिए किस प्रकार की योग्यता चाहिए।

कहने की ज़रूरत नहीं कि किसी भी परीक्षा में हमेशा सुधार की गुंजाइश बनी रहती है। हम जब सालों साल एम.ए. में प्रवेश परीक्षा के लिए प्रश्न तैयार करते थे तो हमारे विभाग में ख़ासी बहस, चर्चा हुआ करती थी। प्रश्न पत्र का एक हिस्सा बहुचयनात्मक होता था। प्रश्न और कई उत्तर, जिनमें से परीक्षार्थी को कोई एक चुनना है। ऐसे प्रश्न प्रायः सूचनापरक हो सकते हैं। 

अगर आपने नाम, तारीखें रट रखी हैं, तो इस रास्ते आप सुगमता से प्रवेश कर सकते हैं। लेकिन साथ ही निबंधात्मक प्रश्न भी होते थे। ऐसे प्रश्न जिनसे मालूम हो सके कि विद्यार्थी की अपनी विचार की और अभिव्यक्ति की क्षमता कितनी है। 

क्या स्नातकोत्तर स्तर पर उसे जो पढ़ना या करना होगा, उसके लायक तैयारी उसके पास है?

इसके साथ ही हमें इसका ख़याल भी करना होता था कि छात्र विविध प्रकार के विश्वविद्यालयों से पढ़कर आ रहे होंगे। इन सबका स्तर एक नहीं है। उनके पाठ्यक्रम भिन्न हैं और पढ़ाई का तरीक़ा भी भिन्न-भिन्न है। विविधता, विभिन्नता और स्तर-भेद के प्रश्नों से एक बेचारा प्रश्न पत्र कैसे पार पास सकता है? लेकिन यह संघर्ष तो होता था।

2009 में जब 16 नए केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित किए गए तो एक प्रस्ताव यह आया कि इनमें दाख़िले के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा हो। लेकिन इसमें शामिल होने न होने के लिए हर विश्वविद्यालय स्वतंत्र था। इसलिए नए विश्वविद्यालयों में से भी सब इसमें शामिल नहीं हुए। यह छूट तब थी कि विश्वविद्यालय अपना निर्णय कर सकते थे। आज यह छूट नहीं रह गई है। अभी भी ऐसा कोई आदेश नहीं है। लेकिन कुलपति सरकार की इच्छा और इशारा दोनों समझेंगे, यह सरकार जानती है।

एक विश्वविद्यालय दूसरे की प्रतिलिपि नहीं है। हरेक के पाठ्यक्रम में भिन्नता है। इसीलिए विद्यार्थी किसी एक में जाने को अधिक इच्छुक होते हैं, दूसरे में नहीं। भारत में आज भी समझना मुश्किल है कि क्यों किसी एक विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग की तुलना में किसी और विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग में प्रवेश के लिए किसी विद्यार्थी को कोशिश करनी चाहिए। 

आख़िर हर जगह भौतिकी की पढ़ाई ही तो हो रही है! विद्यार्थी के चुनाव में पाठ्यक्रम की विशेषता के अलावा अध्यापक भी महत्वपूर्ण होते हैं। कौन कहाँ है? जो विद्यार्थी अमेरिका या लंदन जाना चाहते हैं, आप उनसे पूछिए, वे प्रवेश के पहले विभाग के बारे में कितना शोध करते हैं।

 - Satya Hindi

दाख़िले के पहले इन विश्वविद्यालयों के विभाग अपने संभावित विद्यार्थियों को भी जान लेना चाहते हैं। इसलिए प्रवेश की प्रक्रिया में दोनों एक दूसरे के जितना क़रीब रहें उतना ही दोनों के लिए फ़ायदेमंद है। इसके पीछे एक उसूल भी है। विश्वविद्यालय अपने मामले में निर्णय लेने के लिए सक्षम माने जाते हैं। वे स्वायत्त हैं। इसलिए उनके यहाँ अध्यापक का चुनाव हो या विद्यार्थी का, यह कोई बाहरी सत्ता तय नहीं करेगी। दुनिया भर में जो श्रेष्ठ विश्वविद्यालय माने जाते हैं, उनके यहाँ यही व्यवहार है। दूसरा सिद्धांत विविधता का है। यह एकरूपता के ख़िलाफ़ है। एकरूपता और समानता एक नहीं हो, यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है।

विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण की कोशिश

भारत में यही सिद्धांत माना गया था। लेकिन पिछले दो दशकों में केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति बढ़ती गई है। सरकार विश्वविद्यालयों पर नियंत्रण करना चाहती है। उसका माध्यम विश्वविद्यालय अनुदान आयोग है। वह उनके पाठ्यक्रमों को एकरूप करना चाहता है। अब वह उनकी प्रवेश प्रक्रिया को भी केंद्रीकृत करके अपने क़ब्ज़े में ले लेना चाहता है।

यह काम नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) को दिया गया है। वह हर तरह की परीक्षाएँ आयोजित करने के क़ाबिल मान ली गई है। उसके पास अपनी कोई बौद्धिक क्षमता नहीं है। वह किनके सहारे बीसियों परीक्षाएँ लेती है, इसका पता नहीं है। उसी को कुछ साल पहले ज़िम्मा दे दिया कि वह स्नातकोत्तर स्तर की प्रवेश परीक्षा ले। उसमें भी यह तय कर दिया गया कि सवाल सिर्फ़ बहुचयनात्मक होंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि अब मामला सिर्फ़ रटकर याद कर पाने की क़ाबिलियत का रह गया है। 

साहित्य हो या राजनीतिशास्त्र या भौतिकी, प्रवेश परीक्षा एक ही तरीक़े से होगी।

जेएनयू ने अपनी प्रवेश परीक्षा को समाप्त करके एनटीए को यह काम दे दिया। कुलपति ने कहा है कि जब फ़ैसला हुआ, वे नहीं थीं। वरना वे ज़रूर इसका विरोध करतीं। वे ख़ुद जेएनयू की छात्रा रही हैं। वे अपनी विचारधारा के बावजूद जेएनयू की विशिष्टता जानती हैं। इसलिए अभी वे जो बोल रही हैं, उसका महत्व है। इसलिए भी कि वे उस सरकार की विरोधी नहीं हैं। वे इसी के द्वारा चुनी गई हैं।

प्रधानमंत्री के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर चुकी हैं हालाँकि क़ायदे से किसी विश्वविद्यालय के कुलपति के चयन में प्रधानमंत्री की कोई भूमिका नहीं होती है। लेकिन जो हो, वे जो कह रही हैं उसे सुना जाना चाहिए।

उनका कहना है कि वे सरकार से अनुरोध करेंगी कि वह प्रवेश पद्धति में बदलाव करे। लेकिन जैसा अध्यापकों ने ध्यान दिलाया, इसकी ज़रूरत नहीं है। यह पूरी तरह विश्वविद्यालय का अधिकार है कि वह इस केंद्रीय परीक्षा से निकलकर अपनी प्रवेश परीक्षा ख़ुद आयोजित करे। अपने अधिकार को स्वतः छोड़ देना, अपनी स्वायत्तता स्वयं ही किसी के हवाले कर देना : यह सत्ता की मदद करना ही है। सरकार कहेगी कि उसने तो मात्र प्रस्ताव दिया था। विश्वविद्यालय स्वेच्छा से उसमें शामिल हो रहे हैं। क्या इस ज़बरन पैदा की गई स्वेच्छा से जेएनयू निकल पाएगा? यह कुलपति की परीक्षा है। इसमें विशेष साहस की आवश्यकता नहीं।

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