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ज्ञानपीठ और विनोद शुक्ल के बहानेः क्या लेखकों/कवियों का सरोकार मर चुका है

ज्ञानपीठ और विनोद शुक्ल के बहानेः क्या लेखकों/कवियों का सरोकार मर चुका है

जीवित रचनाकार विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार सचमुच खुश करने वाली सूचना है। लेकिन इस बहाने से अब तक इस पुरस्कार को पा चुके जीवित लेखकों/कवियों के सरोकार पर भी बात करना जरूरी है। ये लोग तब चुप रहे थे जब रामभद्राचार्य को यही पुरस्कार मिला था। स्तंभकार अपूर्वानंद ने ऐसे ही साहित्यिकों की कथनी-करनी पर विचार किया है। पढ़िएः 

आज जीवित कुछ सबसे बड़े रचनाकारों में एक विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है।साहित्यिक जगत में इसका स्वागत हो,यह स्वाभाविक ही है। ख़ुद विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की है।कहा है कि उन्हें इसका ख़याल न था कि यह पुरस्कार उन्हें मिलेगा। इससे वे कुछ और लिख सकेंगे।उनके प्रशंसकों ने कहा है कि इससे ज्ञानपीठ पुरस्कार का मान बढ़ा है। 

इस पुरस्कार के प्रति लेखक और उनके पाठकों की प्रतिक्रिया देखकर यह लगा कि हमारा साहित्यिक वर्ग दो गुणों से धीरे धीरे वंचित होता दीखता है जो साहित्य से अभिन्न हैं। इनमें एक तो स्मृति है और दूसरा सामाजिक विवेक। वरना ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति ने ठीक एक साल पहले क्या किया है, इसे भूलकर आज यह वाहवाही न की जाती। इससे यह भी पता चलता है कि हमारे समाज में कोई ऐसी नैतिक रेखा हमने नहीं खींची है जिसका उल्लंघन करना अस्वीकार्य माना जाए। हमारे लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त कुछ भी नहीं। 

पिछले साल ज्ञानपीठ ने स्वामी रामभद्राचार्य और गुलज़ार को संयुक्त रूप से पुरस्कृत किया।यह ऐसा निर्णय था जिससे साहित्यिक समाज में घिन पैदा होनी चाहिए थी। रामभद्राचार्य को लेखक के रूप में नहीं जाना जाता। आज के अन्य हिंदू आध्यात्मिक नेताओं की तरह ही वे अपने  मुसलमान और दलित विरोधी वक्तव्यों के कारण  प्रसिद्ध हैं। भारत के सबसे बड़े मुसलमान विरोधी अभियान, यानी बाबरी मस्जिद को तोड़कर राम मंदिर बनाने एक अभियान में उनकी भूमिका से सब वाक़िफ़ हैं। पिछले साल उन्हें पुरस्कार देकर ज्ञानपीठ  ने घृणा, गाली गलौज और हिंसा के प्रचार को सांस्कृतिक और सर्जनात्मक क्रियाओं की पदवी प्रदान की।

हिंदी लेखकों ने इसकी भर्त्सना की। लेकिन ज्ञानपीठ मात्र हिंदी का नहीं। जिन्हें ज्ञानपीठ मिला है, उनमें कुछ तो अभी भी जीवित हैं।इस पुरस्कार के लिए ज्ञानपीठ की जितनी निंदा होनी चाहिए थी, नहीं हुई।विष्णु नागर ने दुख प्रकट किया: “भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार गुलज़ार और रामभद्राचार्य को मिला है। गुलज़ार को तो छोड़िए, इस पुरस्कार का रामभद्राचार्य को देना- जो राममंदिर आंदोलन के स्तंभों में से हैं- और जो राम को नहीं भजता, यह कहते हुए एक जाति विशेष के लिए अपमानजनक टिप्पणी के कारण हाल ही विवाद में रहे हैं, जिन पर 2009 में भी रामचरित मानस के साथ छेड़छाड़ का विवाद जुड़ा है,जिनके साहित्यिक अवदान के बारे में कोई नहीं जानता, उन्हें भी भारत का सर्वश्रेष्ठ माना जाने वाला पुरस्कार दिया जा सकता है तो फिर क्या बचा?

विनोद कुमार शुक्ल और हिंदी के अनेक और बड़े लेखकों की उपेक्षा करते हुए इस तरह का निर्णय हताश करनेवाला है।जिन विनोद कुमार शुक्ल को अंतरराष्ट्रीय पेन पुरस्कार मिल चुका है, वे भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए उपयुक्त नहीं पाए गए, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। जिन्होंने अपनी उत्कृष्ट रचनात्मकता से पिछले चार दशकों से अधिक समय से हिंदी और हिंदीतर दुनिया को चमत्कृत किया है, जिनकी अनूठी कविताओं और दो उपन्यासों( 'नौकर की कमीज़ 'तथा ' दीवार में एक खिड़की रहती थी') का भारतीय साहित्य में विरल स्थान है, उन और अनेक अन्य महत्वपूर्ण रचनाकारों की उपेक्षा करके रामभद्राचार्य को पुरस्कृत करना अपमानजनक है।’

वास्तव में ज्ञानपीठ ने साहित्य का ही अपमान किया था। उसने एक तरह से अब तक के बाक़ी पुरस्कृत लेखकों का भी अपमान किया जब उनकी पंक्ति में रामभद्राचार्य को खड़ा कर दिया।कल्पना कीजिए अमिताभ घोष, दामोदर माऊजो और रामभद्राचार्य एक ही पंक्ति में खड़े हैं! ज्ञानपीठ के पहले पुरस्कृत लेखकों ने भी मुखर विरोध नहीं किया।

इस बार लगता है ज्ञानपीठ ने तय किया कि वह विनोद कुमार शुक्ल को पुरस्कृत कर अपनी प्रतिष्ठा वापस हासिल कर लेगा। जिस तरह इसकी प्रशंसा हो रही है, उससे यह अनुमान सही लगता है। स्वयं पुरस्कृत लेखक ने इस प्रसंग का ज़िक्र नहीं किया। 

विनोद कुमार शुक्ल के मुझ जैसे पाठकों को लेकिन इससे चोट पहुँचना बहुत अस्वाभाविक नहीं। यह तो कहने की ज़रूरत ही नहीं कि उन्हें प्रतिष्ठा के लिए इस पुरस्कार की आवश्यकता न थी। इससे जुड़ी धन राशि की भले हो और वह नाजायज़ नहीं। लेकिन जितनी सहजता से पिछले साल की निराशा इस साल के इस के हर्ष वर्षण में बदल गई उससे समाज में और वह भी साहित्यिक समाज में बढ़ती बेहिसी का अन्दाज़ मिलता है।

लेखकों ने ज्ञानपीठ से रामभद्राचार्य को सम्मानित करने के उसके निर्णय को लेकर कोई  जवाब तलाब नहीं किया। उसे बाध्य न किया कि वह इसके लिए माफ़ी माँगे। ज्ञानपीठ ने भी इस बार विनोद कुमार शुक्ल को इनाम देकर साहित्यिकों को कहा, लो तुम्हारी निराशा दूर हुई, अब आगे बढ़ो। 

कोई अपना खून से रंगा हाथ अगर इत्र से धो ले, तो हम उससे हाथ मिलाने में संकोच नहीं करते।जैसा पहले कहा हमारे लिए कुछ भी अस्वीकार्य नहीं है। हम किसी के साथ मंच साझा कर सकते हैं और उसे अपनी सहिष्णुता और उदारता कहते हैं।

इससे एक दूसरी चीज़ की तरफ़ भी ध्यान गया। ऐसे पुरस्कार लेखक को अवसर देते हैं कि वह समाज को अपने लेखन के तर्क से परिचित कराए।वह समाज को अपनी चिंता से भी अवगत कराए।लेखक की जगह आप कोई भी सर्जक रख लीजिए: फ़िल्मकार या कलाकार।हमने दूसरे देशों में पिछले दो सालों में अनेक कलाकारों को फ़िलिस्तीन के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए  ऐसे अवसरों का इस्तेमाल करते देखा है। लेकिन हमारे यहाँ यह रिवाज नहीं है। हमारे लेखक ऐसे अवसरों की मर्यादा का ध्यान रखते हैं और आयोजकों के लिए असुविधाजनक कुछ भी नहीं कहते। 

अभी हाल में साहित्य अकादेमी का वार्षिक उत्सव हुआ। क्या किसी पुरस्कृत लेखक ने आज भारत में सत्ता के द्वारा फैलाई जा रही मुसलमान और ईसाई विरोधी घृणा और हिंसा का विरोध किया? मालूम होता था कि यह सारा उत्सव अपने समय के बाहर घटित हो रहा है। यहाँ तक कि अकादेमी पुरस्कार विजेताओं ने यह भी आवश्यक न समझा कि 2015 के साहित्य अकादेमी विजेता कोंकणी लेखक उदय भेंब्रे पर जो हमला हुआ, उसे लेकर कोई वक्तव्य जारी करें। क्या वह हमला उनके ग़ैर साहित्यिक बयान के लिए था इसलिए लेखकों ने उसे चर्चा के लायक़ नहीं माना ?

आज से 10 साल पहले लेखकों ने देश में बढ़ रही मुसलमान विरोधी घृणा, हिंसा और बुद्धिजीवियों पर हमलों के ख़िलाफ़ प्रतिवाद जतलाने के लिए अपने अकादेमी पुरस्कार वापस किए थे। उस विरोध का असर हुआ था। तब के मुक़ाबले आज वह हिंसा और घृणा हज़ार गुना बढ़ाई गई है। क्या लेखक अपने स्वर का इस्तेमाल इसके ख़िलाफ़ सार्वजनिक प्रतिरोध के लिए नहीं करेंगे? 

साहित्य भाषा का व्यापार है। वह उसी भाषा में लिखा जाता है जो समाज इस्तेमाल करता है। लेकिन उसे वह बदल डालता है और इस तरह भाषा के सामाजिक प्रचलन को चुनौती देता है। आज भारत में लेखक को जो भाषा मिल रही है, वह घृणा और हिंसा से लिथड़ी हुई है। वह इससे इस भाषा को मुक्त कैसे करता है और कैसे इसके ख़िलाफ़ एक नई भाषा पैदा करता है। क्या उसे अपने पाठक समाज से अपने इस संघर्ष के बारे में बात नहीं करनी चाहिए? 

साहित्य सांस्कृतिक गतिविधि है। आज मुसलमान और ईसाई विरोधी घृणा भारत की संस्कृति को परिभाषित कर रही है।यह  सबसे बड़ी सांस्कृतिक परिघटना  है। इससे मुँह मोड़ने या आँख चुराने से वह मुसलमानों का अपमान करना या उनकी हत्या करना बंद न कर देगी। क्या लेखक घृणा के इस घटाटोप के बीच एक मानवीय स्वर जीवित रखने की अपनी जद्दोजहद  के बारे में बात नहीं करेगा ?   

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