नीतीश बार-बार क्यों मुसलमानों से हो रहे मुख़ातिब?
अपने सियासी वजूद के लिए जद्दोजहद में लगे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने चुनावी भाषणों में जहाँ 2005 के पहले के बिहार की याद दिला रहे हैं तो वहीं वह मुस्लिम समुदाय से भी मुखातिब हो रहे हैं।
जदयू के सूत्रों का कहना है कि नीतीश कुमार को इस बात का एहसास है कि मुस्लिम समुदाय उनके भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल जाने के कारण सशंकित है। हालाँकि, नीतीश कुमार पहले भी भारतीय जनता पार्टी के साथ रहे हैं लेकिन पिछले कई वर्षों में कई ऐसे मामले हुए जिनके कारण मुसलमानों का नीतीश कुमार से मोहभंग हुआ है।
जदयू के लोगों को लगता है कि मुस्लिम समुदाय न केवल भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को वोट नहीं देगा बल्कि उनकी पार्टी जदयू समेत एनडीए के अन्य सहयोगी दलों के उम्मीदवारों से भी दूरी बनाए रखेगा।
ऐसे में नीतीश कुमार अपने भाषणों में मुसलमानों से भी मुख़ातिब हो रहे और उनसे समर्थन मांग रहे। सोमवार को शेखपुरा में आयोजित सभा में नीतीश ने मुसलमानों से एनडीए के उम्मीदवार को वोट देने की अपील की और उन्होंने यह दावा किया कि एनडीए के शासनकाल में मुसलमानों की तरक्की हुई। उन्होंने कब्रिस्तानों की घेराबंदी की बात भी याद दिलाई। उनका दावा है कि उनके शासनकाल में आठ हजार क़ब्रिस्तानों की घेराबंदी कराई गई। नीतीश ने इससे पहले भी अपनी चुनावी सभा में मुसलमान से ऐसे ही अपील की थी।
नीतीश कुमार को मुसलमानों से ये बातें क्यों कहनी पड़ रही हैं जबकि घेराबंदी तो मठ और मंदिरों की भी हो रही है? यह सही है कि कब्रिस्तानों की घेराबंदी नीतीश कुमार के शासन की खास बात है और यह भी सही है कि इससे बड़े स्तर पर सांप्रदायिक विवाद थमे हैं।
ऐसा नहीं है कि मुसलमानों ने कभी नीतीश कुमार को वोट नहीं दिया। नीतीश कुमार खुद यह बात मानते हैं कि उन्हें मुसलमानों ने वोट दिया और उनकी वजह से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को भी मुसलमानों के वोट मिले। मुसलमानों ने नीतीश कुमार को 2005 और 2010 में भी वोट दिया हालांकि तब वह भारतीय जनता पार्टी के साथ थे। 2015 में जब वह लालू प्रसाद के साथ आ गए तब तो मुसलमानों ने उनकी पार्टी को भरपूर समर्थन दिया।
बात 2017 से बिगड़ी जब नीतीश कुमार दोबारा भारतीय जनता पार्टी के साथ चले गए तो काफी हद तक मुसलमान उनसे मायूस होकर दूर चले गए। ऐसा समझा जाता है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने तो उनकी पार्टी को वोट नहीं ही दिया, अधिकतर हिंदू वोटरों ने भी उनका साथ छोड़ दिया।
यही कारण है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी 43 सीटों पर सिमट गई थी।
मुसलमानों के बीच नीतीश कुमार की व्यक्तिगत छवि अब भी सेक्यूलर नेता की है लेकिन इस बीच कई मुद्दों पर उनकी पार्टी ने मुसलमानों की भावनाओं का ख्याल न रखकर भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे के अनुसार काम किया। उदाहरण के लिए नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए का उनकी पार्टी जेडीयू ने समर्थन किया। ट्रिपल तलाक कानून के मामले में भी जदयू का रवैया भारतीय जनता पार्टी के एजेंडे के अनुसार रहा।
हालाँकि नीतीश कुमार ने एनआरसी के बारे में कह रखा है कि यह बिहार में लागू नहीं होगा लेकिन उनके पलटने की आदत की वजह से उन पर भरोसे में कमी आई है। सीएए और ट्रिपल तलाक़ के अलावा अनुच्छेद 370 को हटाने का विरोध करने की घोषित नीति के बावजूद उनकी पार्टी इस मामले में भी भाजपा के साथ हो गई। ऐसे में मुसलमानों को शक हो सकता है कि एनआरसी के मुद्दे पर भी नीतीश कुमार कहीं पलट ना जाएं।
नीतीश कुमार मुस्लिम संस्थाओं के लोगों से घुलने मिलने वाले नेता के रूप में जाने जाते हैं और वह मज़ार-खानकाह भी जाते हैं। उन्हें टोपी पहनने से भी परहेज नहीं है। लोकसभा चुनाव के कारण लागू आचार संहिता की वजह से इस बार उनकी ओर से इफ्तार पार्टी का आयोजन नहीं किया गया लेकिन उन्होंने ईद के मौक़े पर नमाजियों से मुलाकात की और कई घरों में जाकर ईद की मुबारकबाद पेश की।
इस हद तक तो मुसलमानों की हमदर्दी नीतीश कुमार के साथ है लेकिन वह इस बात से संतुष्ट नहीं हैं कि महज़ कब्रिस्तानों की घेराबंदी जैसे कुछ काम करके यह दावा कर लें कि मुसलमान की तरक्की हो गई। कब्रिस्तानों की घेराबंदी पुरानी बात हो गई। मुसलमान अब अपने राजनीतिक और आर्थिक सशक्तिकरण की बात कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए एनडीए ने जो 40 उम्मीदवार बिहार में उतारे हैं उनमें से महज एक उम्मीदवार मुस्लिम है। वह एक उम्मीदवार भी किशनगंज जैसे मुस्लिम बहुल इलाक़े से है जहाँ जदयू ने मुजाहिद आलम को अपना उम्मीदवार बनाया है। 2019 में एनडीए में जदयू की ओर से एक और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी की ओर से एक उम्मीदवार मुस्लिम था।
कई मुसलमानों का कहना है कि ताजा जातीय गणना के अनुसार बिहार में मुसलमान की संख्या 17.7% है लेकिन नौकरी में उनकी हिस्सेदारी बहुत कम है। उद्योग धंधों के लिए भी मुसलमान के प्रोत्साहन में कमी देखी जाती है। उन्हें लगता है कि अगर नीतीश कुमार इस बारे में कोई पहल करें तो मुसलमान का समर्थन उन्हें वापस मिल सकता है। इसी तरह नीतीश कुमार पर मुसलमान की ओर से यह आरोप भी लगाया जाता है कि उनके शासनकाल में उर्दू की उपेक्षा की जा रही है। अल्पसंख्यक आयोग को भंग किए जाने के मुद्दे पर भी बिहार के मुसलमान नीतीश कुमार से नाराज बताए जाते हैं।
इस बार जब नीतीश कुमार ने एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिलाकर मुख्यमंत्री बनना स्वीकार किया तो कई लोगों का कहना है कि वह 2005 के जैसे मुख्यमंत्री नहीं रहे और उन पर भारतीय जनता पार्टी का भारी दबाव है। कहा जाता है कि भारतीय जनता पार्टी ने इस बार सम्राट चौधरी और विजय कुमार सिन्हा जैसे आक्रामक नेताओं को उपमुख्यमंत्री बनाकर नीतीश कुमार को एक मजबूर मुख्यमंत्री बना दिया है। ऐसे में मुसलमान चाह कर भी नीतीश कुमार की पार्टी को समर्थन देने में हिचकिचा रहे हैं।
एक ओर जहाँ स्थानीय मुद्दों पर मुसलमानों को नीतीश कुमार से शिकायत है तो दूसरी ओर उनका यह भी कहना है कि उनकी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर भी अपने स्टैंड पर कायम न रहकर भारतीय जनता पार्टी की नीति पर चल रही है। नीतीश कुमार जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अबकी बार 400 पार के नारे को समर्थन दे रहे हैं और जिस तरह नरेंद्र मोदी के आगे झुके झुके से नज़र आते हैं वह भी मुसलमान के दिल में खटकने वाली बात है।