नेहरू खलनायक या हीरो? पढ़ें पाक लेखक मंटो ने क्या बताया था
देश के पहले प्रधानमंत्री और कांग्रेस के नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू इस समय बहस के केंद्र में हैं। कुछ लोग उन्हें खलनायक साबित करने पर आमादा हैं तो कुछ उनका महिमा गान गा रहे हैं। पंडित नेहरू का व्यक्तित्व बेहद सम्मोहक रहा है। उनके आलोचक भी उनकी तारीफ़ें करते रहे हैं। लेकिन एक रोचक पत्र मुझे पिछले दिनों मिला, जो पंडित जवाहरलाल नेहरू के एक अलग ही व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता है। मैं समझता हूँ, इससे तटस्थ राय पंडित नेहरू के बारे में हो ही नहीं सकती, क्योंकि यह पत्र एक पाकिस्तानी ने लिखा है। वह पाकिस्तानी कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, बल्कि सआदत हसन मंटो है। मंटो ने यह पत्र 27-अगस्त, 1954 को लिखा। अपनी मृत्यु से महज चार महीने बाईस दिन पहले। आइए, देखते हैं मंटो के उस ऐतिहासिक पत्र को :
नेहरू के नाम मंटो का ख़त
पंडित जी,
अस्सलाम अलैकुम।
यह मेरा पहला ख़त है, जो मैं आपको भेज रहा हूँ। आप माशा अल्लाह अमेरिकनों में बड़े हसीन माने जाते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरे नाक-नक्श भी कुछ ऐसे बुरे नहीं हैं। अगर मैं अमेरिका जाऊँ तो शायद मुझे हुस्न का रुतबा अता हो जाए। लेकिन आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और मैं पाकिस्तान का महान कथाकार। इन दोनों में बड़ा अंतर है। बहरहाल हम दोनों में एक चीज़ साझा है कि आप कश्मीरी हैं और मैं भी। आप नेहरू हैं, मैं मंटो... कश्मीरी होने का दूसरा मतलब खू़बसूरती और खू़बसूरती का मतलब, जो अभी तक मैंने नहीं देखा।
मुद्दत से मेरी इच्छा थी कि मैं आपसे मिलूँ (शायद बशर्ते ज़िंदगी मुलाक़ात हो भी जाए)। मेरे बुजुर्ग तो आपके बुजुर्गों से अक्सर मिलते-जुलते रहे हैं लेकिन यहाँ कोई ऐसी सूरत न निकली कि आपसे मुलाक़ात हो सके।
यह कैसी ट्रेजडी है कि मैंने आपको देखा तक नहीं। आवाज़ रेडियो पर अलबत्ता ज़रूर सुनी है, वह भी एक बार।
जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि मुद्दत से मेरी इच्छा थी कि आपसे मिलूँ, इसलिए कि आपसे मेरा कश्मीरी का रिश्ता है, लेकिन अब सोचता हूँ इसकी ज़रूरत ही क्या है? कश्मीरी किसी न किसी रास्ते से, किसी न किसी चौराहे पर दूसरे कश्मीरी से मिल ही जाता है।
- आप किसी नहर के क़रीब आबाद हुए और नेहरू हो गये और मैं अब तक सोचता हूँ कि मंटो कैसे हो गया? आपने तो खै़र लाखों बार कश्मीर देखा होगा। मुझे सिर्फ़ बानिहाल तक जाना नसीब हुआ है। मेरे कश्मीरी दोस्त जो कश्मीरी ज़बान जानते हैं, मुझे बताते हैं कि मंटो का मतलब 'मंट' है यानी डेढ़ सेर का बट्टा। आप यक़ीनन कश्मीरी ज़बान जानते होंगे। इसका जवाब लिखने की अगर आप ज़हमत फ़रमाएँगे तो मुझे ज़रूर लिखिए कि 'मंटो' नामकरण की वज़ह क्या है?
अगर मैं सिर्फ़ डेढ़ सेर हूँ तो मेरा आपका मुका़बला नहीं। आप पूरी नहर हैं और मैं सिर्फ़ डेढ़ सेर। आपसे मैं कैसे टक्कर ले सकता हूँ? लेकिन हम दोनों ऐसी बंदूकें हैं, जो कश्मीरियों के बारे में प्रचलित कहावत के अनुसार 'धूप में ठस करती हैं...।'
मुआफ़ कीजिएगा, आप इसका बुरा न मानिएगा। मैंने भी यह फ़र्ज़ी कहावत सुनी तो कश्मीरी होने की वज़ह से मेरा तन-बदन जल गया। चूँकि यह दिलचस्प है, इसलिए मैंने इसका ज़िक्र तफ़रीह के लिए कर दिया है। हालाँकि मैं आप दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि हम कश्मीरी किसी मैदान में आज तक नहीं हारे।
- राजनीति में आपका नाम मैं बड़े गर्व के साथ ले सकता हूँ, क्योंकि बात कह कर फ़ौरन खंडन करना आप ख़ूब जानते हैं। पहलवानी में हम कश्मीरियों को आज तक किसने हराया है, शाइरी में हमसे कौन बाज़ी ले सका है। लेकिन मुझे यह सुनकर हैरत हुई है कि आप हमारा दरिया बंद कर रहे हैं। लेकिन पंडित जी, आप तो सिर्फ़ नेहरू हैं। अफ़सोस कि मैं डेढ़ सेर का बट्टा हूँ। अगर मैं तीस-चालीस हज़ार मन का पत्थर होता तो ख़ुद को इस दरिया में लुढ़ा देता कि आप कुछ देर के लिए इसको निकालने के लिए अपने इंजीनियरों से मशविरा करते रहते।
पंडित जी, इसमें कोई शक नहीं कि आप बहुत बड़े आदमी हैं, आप भारत के प्रधान मंत्री हैं। उस पर मुल्क़, जिससे हमारा संबंध रहा है, आपकी हुक़्मरानी है। आप सब कुछ हैं लेकिन गुस्ताख़ी मुआफ़ कि आपने इस खाकसार (जो कशमीरी है) की किसी बात की परवाह नहीं की।
देखिए, मैं आपसे एक दिलचस्प बात का जिक्र करता हूँ। मेरे वालिद साहब (स्वर्गीय), जो ज़ाहिर है कि कश्मीरी थे, जब किसी हातो को देखते तो घर ले आते, ड्योढ़ी में बिठाकर उसे नमकीन चाय पिलाते साथ कुलचा भी होता। इसके बाद वे बड़े गर्व से उस हातो से कहते, ‘मैं भी काशर हूँ।’
पंडित जी, आप काशर हैं... खु़दा की कसम अगर आप मेरी जान लेना चाहें तो हर वक़्त हाज़िर हैं। मैं जानता हूँ बल्कि समझता हूँ कि आप सिर्फ़ इसलिए कश्मीर के साथ चिमटे हुए हैं कि आपको कश्मीरी होने के कारण कश्मीर से चुंबकीय किस्म का प्यार है। यह हर कश्मीरी को, चाहे उसने कश्मीर कभी देखा भी हो या न देखा हो, होना चाहिए।
जैसा कि मैं इस ख़त में पहले लिख चुका हूँ। मैं सिर्फ़ बानिहाल तक गया हूँ। कद, बटौत, किश्तबार ये सब इलाक़े मैंने देखे हैं लेकिन हुस्न के साथ मैंने दरिद्रता देखी। अगर आपने दरिद्रता को दूर कर दिया है तो आप कश्मीर अपने पास रखिए। मगर मुझे यक़ीन है कि आप कश्मीरी होने के बावजूद उसे दूर नहीं कर सकते, इसलिए कि आपको इतनी फ़ुरसत ही नहीं।
आप ऐसा क्यों नहीं करते... मैं आपका पंडित भाई हूँ, मुझे बुला लीजिए। मैं पहले आपके घर शलजम की शब देग खाऊँगा। इसके बाद कश्मीर का सारा काम सम्हाल लूँगा। ये बख़्शी वगैरह अब बख़्श देने के काबिल है... अव्वल दर्जे के चार सौ बीस हैं। इन्हें आपने ख़्वाहमख़्वाह अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ आला रुतबा बख़्श रखा है... आखिर क्यों? मैं समझता हूँ कि आप राजनेता हैं जो कि मैं नहीं हूँ। लेकिन यह मतलब नहीं कि मैं कोई बात समझ न सकूँ।
लगता है आपको उर्दू से प्यार है...
आप अंग्रेज़ी ज़बान के लेखक हैं। मैं भी यहाँ उर्दू में कहानियाँ लिखता हूँ... उस ज़बान में जिसको आपके हिंदुस्तान में मिटाने की कोशिश की जा रही है। पंडित जी, मैं आपके बयान पढ़ता रहता हूँ। इनसे मैंने यह नतीजा निकाला है कि आपको उर्दू से प्यार है। लेकिन मैंने आपकी एक तक़रीर रेडियो पर, जब हिंदुस्तान के दो टुकड़े हुए थे, सुनी... आपकी अंग्रेज़ी के तो सब कायल हैं लेकिन जब आपने नाम निहाद उर्दू में बोलना शुरू किया तो ऐसा मालूम होता था कि आपकी अंग्रेज़ी तक़रीर का तर्ज़ुमा किसी ने ऐसा किया है जिसे पढ़ते वक़्त आपकी ज़बान का जायका दुरुस्त नहीं था। आप हर फिक्रे पर उबकाइयाँ ले रहे थे।
मेरी समझ में नहीं आता कि आपने ऐसी तहरीर पढ़ना कुबूल कैसे की... यह उस जमाने की बात है जब रैडक्लिफ़ ने हिंदुस्तान की डबल रोटी के दो तोश बना कर रख दिए थे लेकिन अफ़सोस है अभी तक वे सेंके नहीं गए। उधर आप सेंक रहे हैं और इधर हम। लेकिन आपकी हमारी अंगीठियों में आग बाहर से आ रही है।
पंडित जी, आजकल बगूगोशों का मौसम है... गोशे तो ख़ैर मैंने बेशुमार देखे हैं लेकिन बगूगोशे खाने को जी बहुत चाहता है। यह आपने क्या ज़ुल्म किया कि बख़्शी को सारा हक़ बख़्श दिया कि वह बख़्शीश में भी मुझे थोड़े से बगूगोशे नहीं भेजता।
बख़्शी जाए जहन्नुम में और बगूगोशे... नहीं, वे जहाँ हैं सलामत रहें। मुझे दरअसल आपसे कहना यह था, आप मेरी किताबें क्यों नहीं पढ़ते? आपने अगर पढ़ी हैं तो मुझे अफ़सोस है कि आपने दाद नहीं दी। और अगर नहीं पढ़ी हैं तो और भी ज़्यादा अफ़सोस का मुकाम है, इसलिए कि आप एक लेखक हैं।
मेरी किताब नाजायज तौर पर छपी तो दिल्ली पहुँचकर...
अश्लील लेखन के आरोप में मुझ पर कई मुकदमे चल चुके हैं मगर यह कितनी बड़ी ज़्यादती है कि दिल्ली में, आपकी नाक के ऐन नीचे वहाँ का एक पब्लिशर मेरी कहानियों का संग्रह 'मंटो के फ़हश अफ़साने' के नाम से प्रकाशित करता है।
मैंने किताब लिखी है। इसकी भूमिका यही ख़त है जो मैंने आपके नाम लिखा है... अगर यह किताब भी आपके यहाँ नाजायज तौर पर छप गई तो ख़ुदा की कसम मैं किसी न किसी तरह दिल्ली पहुँच कर आपको पकड़ लूँगा। फिर छोड़ूँगा नहीं आपको... आपके साथ ऐसा चिमटूँगा कि आप सारी उम्र याद रखेंगे। हर रोज़ सुबह को आपसे कहूँगा कि नमकीन चाय पिलाएँ। साथ में कुलचा भी हो। शलजमों की शबदेग तो ख़ैर हर हफ़्ते के बाद ज़रूर होगी।
- यह किताब छप जाए तो मैं इसकी प्रति आपको भेजूँगा। उम्मीद है कि आप मुझे इसकी प्राप्ति सूचना ज़रूर देंगे और मेरी तहरीर के बारे में अपनी राय से ज़रूर आगाह करेंगे।
आपको मेरे इस ख़त से जले हुए गोश्त की बू आएगी... आपको मालूम है, हमारे वतन कश्मीर में एक शायर 'गनी' रहता था जो गनी काश्मीरी के नाम से मशहूर है। उसके पास ईरान से एक शायर आया। उसके घर के दरवाजे खुले थे, इसलिए कि वह घर में नहीं था। वह लोगों से कहा करता था कि मेरे घर में क्या है जो मैं दरवाजे बंद रखूँ? अलबत्ता जब मैं घर में होता हूँ, दरवाजे बंद कर देता हूँ। इसलिए कि मैं ही तो इसकी इकलौती दौलत हूँ। ईरानी शाइर उसके सूने घर में अपनी बयाज छोड़ गया। इसमें एक शेर नामुकम्मल था। मिसरा सानी हो गया था, मगर मिसरा ऊला उस शायर से नहीं कहा गया था। मिसरा सानी यह था :
कि अज लिबास तो बू-ए-कबाब भी आयद
जब वह ईरानी शायर कुछ देर के बाद वापस आया, उसने अपनी बयाज देखी। मिसरा ऊला मौजूद था :
कदाम सोख्ता जाँ दस्त जो बदामानत
पंडित जी, मैं भी एक सोख्ताजाँ (दग्ध-हृदय) हूँ। मैंने आपके दामन पर अपना हाथ दिया है, इसलिए कि मैं यह किताब आपको समर्पित कर रहा हूँ।
27 अगस्त, 1954
सआदत हसन मंटो
(उर्दू से अनुवाद : डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा)
(वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन के फ़ेसबुक ब्लॉग से साभार)