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नेहरू की पहली कैबिनेट और परिवारवाद

नेहरू की पहली कैबिनेट और परिवारवाद

विपक्षी दलों पर निशाना साधते हुए बीजेपी लगातार परिवारवाद को मुद्दा बना रही है। लेकिन क्या आपको पता है कि नेहरू की पहली कैबिनेट में परिवारवाद का कोई मामला था या नहीं?

पिछले एक दशक के दौरान गांधी-नेहरू परिवार पर परिवारवाद को लेकर जितने हमले हुए हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। किसी भी राजनीतिक परिवार पर कभी ऐसे हमले नहीं हुए। इसकी शुरुआत 2013 में हो गई थी, जब नरेंद्र मोदी को भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया था। उसके बाद से मोदी सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी पर परिवारवाद को लेकर हमला करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते।

यह हमला एक तरह से बीजेपी की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। भाजपा के नेता और मोदी सरकार के मंत्री भी इसमें कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में अमेठी से राहुल गांधी को पराजित करने वाली केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी तो स्थायी भाव से राहुल पर हमले करती हैं।

भाजपा और मोदी की परिभाषा में राजनीति में परिवारवाद से आशय आम तौर पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के परिवार से ही है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या वाक़ई नेहरू ने परिवारवाद को बढ़ाने की कोशिश की थी?

यों तो राजनीति में परिवारवाद को आँकने का कोई मान्य पैमाना नहीं हो सकता। फिर भी, एक तरीका यह हो सकता है कि यह देखा जाए कि स्वतंत्र भारत के पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों के परिजनों की संसदीय राजनीति में कैसी हिस्सेदारी रही। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 14-15 अगस्त, 1947 को अपनी पहली कैबिनेट का गठन किया था। यह एक तरह से राष्ट्रीय सरकार जैसी थी, जिसमें कांग्रेस के अलावा कांग्रेस का विरोध करने वाले दूसरे दलों के प्रतिनिधियों के साथ ही गैर राजनीतिक लोग भी शामिल थे। इसमें क्षेत्रीय संतुलन के साथ ही सभी धर्मों के प्रतिनिधित्व का खयाल रखा गया था।

प्रथम नेहरू सरकार में उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल के अलावा 12 अन्य मंत्री शामिल थे। ये मंत्री थे, डॉ., राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डॉ. जॉन मथाई, आर के षणमुखम शेट्टी, डॉ. भीमराव आंबेडकर, जगजीवन राम, सरदार बलदेव सिंह, सी.एच. भाभा, राजकुमार अमृत कौर, रफी अहमद किदवई, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी,  और वी.एन. गाडगिल।

इस मंत्रिमंडल का गठन किस तरह हुआ था, इस पर काफी कुछ लिखा जा चुका है और इसके दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध हैं। फिर भी, यह रेखांकित करना जरूरी है कि नेहरू की पहली कैबिनेट में उनके राजनीतिक विरोधी भीमराव आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे। आंबेडकर अपने संगठन शिड्यूल कास्ट फेडरेशन (एससीएफ) के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए थे और श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिंदू महासभा के।

दरअसल, पहली कैबिनेट पूरी तरह से मनोनीत थी, क्योंकि तब तक संविधान नहीं बना था और संसद का गठन नहीं हुआ था। प्रचलित संदर्भों में परिवारवाद को चुनावी राजनीति के संदर्भ में देखा जाता है। यानी हम 1951-52 में हुए लोकसभा के प्रथम चुनाव को परिवारवाद को परखने की एक कसौटी के रूप में देख सकते हैं। प्रथम चुनाव से पहले ही नेहरू का प्रथम मंत्रिमंडल बिखर चुका था और उससे कई मंत्री बाहर निकल चुके थे, जिनमें आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी प्रमुख थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल का निधन प्रथम आम चुनाव से पहले (15 दिसंबर, 1950) में हो चुका था।

इतिहास बताता है कि नेहरू की प्रथम कैबिनेट के जिस सदस्य की संतान सबसे पहले संसद में पहुंचीं, वह खुद नेहरू नहीं, बल्कि सरदार पटेल थे। 1951-52 में हुए पहले आम चुनाव में नेहरू की प्रथम कैबिनेट के सदस्यों में से सिर्फ सरदार वल्लभभाई पटेल की बेटी मणिबेन ही थीं, जो चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची थीं। वह कांग्रेस के टिकट पर गुजरात से जीतकर आई थीं। क्या नेहरू की सहमति के बिना मणिबेन को टिकट मिला था। जी नहीं। प्रधानमंत्री होने के साथ ही नेहरू कांग्रेस के भी अध्यक्ष थे। मणिबेन 1957 में दोबारा लोकसभा पहुंचीं। 1962 में जब वह स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार से चुनाव हार गईं, तब उन्हें 1964 में कांग्रेस ने राज्यसभा भेजा था। 

यही मणिबेन पटेल बाद में संगठन कांग्रेस में चली गईं और आपातकाल के दौर में 1977 में नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी के खिलाफ बनी जनता पार्टी की उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची थीं!

अलबत्ता सरदार पटेल के बेटे डाह्या भाई पटेल की पटरी नेहरू और कांग्रेस से नहीं बैठी। बहन मणिबेन से भी उनके मतभेद थे। वह पहले कांग्रेस में ही थे, लेकिन 1957 में वह कांग्रेस से अलग हो गए थे। 1958 में वह पहली बार महा गुजरात जनता परिषद के सदस्य के रूप में राज्यसभा पहुंचे थे। बाद में वह स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गए और 1973 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। वह स्वतंत्र पार्टी के मुखर वक्ताओं में से थे। डाह्याभाई की पत्नी भानुमति ने भी 1962 का लोकसभा चुनाव लड़ा था, लेकिन वह जीत नहीं सकीं।

नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी उनके प्रधानमंत्री रहते 1959 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष जरूर बन गई थीं, परंतु उनका संसदीय जीवन नेहरू की मौत के बाद ही शुरू हुआ था। नेहरू की मौत के बाद 9 जून, 1964 को लालबहादुर शास्त्री दूसरे प्रधानमंत्री बने थे और उन्होंने इंदिरा को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था। शास्त्री मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद इंदिरा पहली बार 1964 में राज्यसभा पहुंची थीं। शास्त्री की मौत के बाद 1966 में कांग्रेस के दिग्गजों की आंतरिक खींचतान में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज की पहल पर इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाया गया था। उसके बाद का इतिहास सबको पता है।

 - Satya Hindi

नेहरू की प्रथम कैबिनेट में राजकुमारी अमृत कौर एकमात्र महिला थीं, लेकिन वह अविवाहित थीं, लिहाजा उनकी राजनीतिक विरासत का प्रश्न ही नहीं उठता। मौलाना अबुल कलाम आजाद के भी कोई संतान नहीं थी, अलबत्ता उनके भतीजे नूरुद्दीन को उन्होंने बेटे की तरह पाला था, मगर उनका राजनीति से कोई संबंध नहीं था। इसी तरह से रफी अहमद किदवई के बारे में जानकारी मिलती है कि उनका एक बेटा था जिसका निधन कम उम्र में हो गया था। सरदार बलदेव सिंह के दो पुत्र थे, जिनमें से एक सरजीत सिंह प्रकाश सिंह बादल के शुरुआती मंत्रिमंडल के सदस्य थे। इसके अलावा बलदेव सिंह की राजनीतिक विरासत के बारे में कोई और जानकारी नहीं मिलती है। जॉन मथाई, सी एच भाभा और षणमुखम शेट्टी की राजनीतिक विरासत के बारे में पता नहीं चलता ( इसे इन पंक्तियों के लेखक की सीमा माना जाए)। श्यामाप्रसाद मुखर्जी की चार संतानें थीं, लेकिन उनका राजनीति से कोई संबंध नहीं मिलता।

नेहरू की प्रथम कैबिनेट में शामिल देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के पुत्र मृत्युंजय प्रसाद दो बार लोकसभा पहुंचे। पहली बार (महराजगंज) 1967 में कांग्रेस के टिकट से और दूसरी बार (सिवान) 1977 में जनता पार्टी के टिकट से चुनाव जीतकर। जबकि एन.वी. गाडगिल के बेटे विट्ठलराव गाडगिल 1971 से 1991 के बीच कई बार राज्यसभा और लोकसभा के सदस्य होने के साथ ही कांग्रेस की विभिन्न सरकारों में मंत्री भी रहे।

नेहरू की प्रथम कैबिनेट में शामिल आंबेडकर और जगजीवन राम की राजनीतिक विरासत के बारे में अलग से बात करने की ज़रूरत है। ये दोनों देश के प्रभावशाली दलित नेता थे। आंबेडकर को तो संविधान निर्माण में उनकी महान भूमिका के लिए भी जाना जाता है। मगर यह विडंबना ही है कि आंबेडकर कभी चुनाव जीतकर संसद नहीं पहुंच सके। पहले आम चुनाव में उन्होंने बॉम्बे उत्तर से चुनाव लड़ा था, लेकिन वह कांग्रेस के उम्मीदवार से हार गए। इसके बाद उन्होंने भंडारा से लोकसभा का उपचुनाव भी लड़ा, लेकिन वह चुनाव भी वह हार गए। 

1956 में आंबेडकर का निधन हो गया। उनके एकमात्र बेटे यशवंत आंबेडकर की भूमिका रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के गठन में जरूर थी, लेकिन वह कभी संसद सदस्य नहीं रहे। अलबत्ता उनके बेटे प्रकाश आंबेडकर 1998 और 1999 में दो बार लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं। आंबेडकर परिवार की विरासत से जुड़ी यह जानकारी रेखांकित करने वाली है कि जाने माने स्कॉलर आनंद तेलतुमड़े यशवंत आंबेडर के दामाद  हैं, यानी भीमराव आंबेडकर के नाती दामाद हैं, जिनके खिलाफ मौजूदा मोदी सरकार की एनआई ने भीमा कोरेगांव वाले मामले में यूएपीए के तहत मामला दर्ज कर रखा है (यह मामला अभी कोर्ट में है)।

जगजीवन राम न केवल नेहरू की पहली सरकार में शामिल थे, बल्कि एकाधिक मौकों पर उन्हें प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार के तौर पर भी देखा। हाल ही में आई वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी की किताब ‘हाऊ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ खुलासा करती है कि जगजीवन राम के बेटे सुरेश के कथित सेक्स स्कैंडल ने कैसे उनकी राजनीतिक संभावनाओं पर पानी फेर दिया था। अलबत्ता भारतीय विदेश सेवा की नौकरी छोड़कर राजनीति में आईं जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार कई बार सांसद बनने के साथ ही केंद्रीय मंत्री और लोकसभा की अध्यक्ष तक रही हैं।

दरअसल, राजनीति में परिवारवाद धारणाओं का भी खेल है। विशेष रूप से भाजपा परिवारवाद को गांधी-नेहरू परिवार के खिलाफ हथियार की तरह ही इस्तेमाल करती है। यह उसके लिए सुविधाजनक भी है, बावजूद इसके कि इंदिरा के संसदीय जीवन में नेहरू की कोई भूमिका नहीं थी। आज यदि देश के राजनीतिक परिदृश्य पर नज़र डालें तो कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ दिया जाए, तो शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जो परिवारवाद के प्रभाव से बचा हो। इस समय राजनीतिक रूप से सर्वाधिक प्रभावशाली माने जाने वाले दो परिवार हैं, उनमें से एक गांधी-नेहरू परिवार है और दूसरा सिंधिया परिवार। विजयाराजे सिंधिया ने अपना राजनीतिक सफर कांग्रेस से शुरू किया था, और आज उनका पूरा परिवार भाजपा के साथ है।

2024 के चुनाव के समय तक कांग्रेस को सत्ता से बेदखल हुए एक दशक हो जाएंगे। ऐसे में देखना होगा कि भाजपा किस तरह से परिवारवाद को कांग्रेस के खिलाफ मुद्दा बनाती है। और यह भी कि मतदाता इसे किस तरह देखते हैं।

(सुदीप ठाकुर स्वतंत्र पत्रकार और ‘दस साल, जिनसे देश की सियासत बदल गई’ के लेखक हैं)

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