सरकार और मीडिया कश्मीर की सचाई पर पर्दा डाल रहे हैं? 

07:04 am Oct 17, 2021 | अनुराधा भसीन जमवाल

आम नागरिकों की हत्या में हुई वृद्धि से देश जम्मू-कश्मीर की नई सचाई से रूबरू हुआ है। अल्पसंख्यक समुदाय के तीन लोगों को चुन कर निशाना बनाने और मारने से चौंके हुए शेष भारत के लोगों ने पूछना शुरू किया है, कश्मीर में यकायक स्थिति बदतर क्यों हो रही है?

कश्मीर में रहने वाले लोग भी हतप्रभ हैं, लेकिन वे आश्चर्यचकित नहीं हैं। उनका  कहना है कि यह तो होना ही था। सवाल किए जाने पर वे पलट कर पूछते हैं, क्या कश्मीर में स्थिति कभी ठीक थी? क्या आपकी सरकार आपको कश्मीर के बारे में झूठ बताती रही है?

नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली बीजेपी सरकार नवंबर 2019 से ही लगातार जम्मू-कश्मीर में 'स्थिति सामान्य' होने का नैरेटिव रच रही है और इसे अनुच्छेद 370 और 35 'ए' से जोड़ कर पेश कर रही है। इन धाराओं से कश्मीर में शांति, विकास और समृद्धि आई थी।

'स्थिति सामान्य' होने का नैरेटिव तो उस समय भी प्रचारित किया जा रहा था जब कश्मीर में लॉकडाउन लगा दिया गया था और साइबर घेराबंदी भी कर दी गई थी।

झूठा नैरेटिव

यह नैरेटिव आज भी प्रचारित की जा रही है, जब कश्मीर के लोगों की आवाज़ कम से कम सुनाई दे रही है।

दो साल से अधिक समय से पत्रकारों को सवाल नहीं पूछने दिया जा रहा है। इसके उलट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पूर्वग्रह से ग्रस्त समाचार कार्यक्रम और चीखते चिल्लाते पैनलिस्ट बीजेपी सरकार के भ्रम को और बढ़ा चढ़ा कर फैला रहे हैं। जब कश्मीर की बात आती है तो सरकार के बयान को अंतिम मान लिया जाता है और इस पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता है, सच भले ही भाड़ में जाए।

दुख से भरा कश्मीर

ऊपर से शांत दिखने वाली सतह के नीचे पहले से ही अत्याचार और भयावह दुख से भरे कश्मीर के उस जीवन को भुला दिया गया है, जो नवबंर 2019 के बाद से बिल्कुल उलट गया है। जब देश के शेष हिस्से के लोग भारत में जम्मू-कश्मीर के पूर्ण एकीकरण से 'प्रफुल्लित' हो उठे, कश्मीर के लोगों की बुनियादी नागरिक आज़ादी भी उनसे छीन ली गई।

जब सरकार नए क़ानून की बुनियाद रखने लगी, शासन का ढाँचा खड़े करने लगी, नीतियाँ बनाने लगी, कश्मीरियों की पूरी तरह से उपेक्षा की गई, उनसे राय मशविरा नहीं किया गया। इससे कश्मीरी और सशक्त हुए होंगे या वे पहले से ज़्यादा अपमानित हुए होंगे? इसका उत्तर पाने के लिए रॉकेट साइंस की ज़रूरत नहीं है। 

अनुच्छेद 370 का ख़ात्मा

जहाँ तक अनुच्छेद 370 की बात है, यह तो दशकों पहले ही खोखला हो चुका है, लेकिन यह लोगों के लिए सिर्फ एक भावनात्मक जुड़ाव से ज़्यादा कुछ नहीं था। इसके असर से लोगों पर एक अमिट छाप पड़ गई। और इसके अंतिम विध्वंस ने नई दिल्ली को यह अधिकार दे दिया कि वह जम्मू-कश्मीर के लोगों की सहमति लिए बगैर उनके बारे में चाहे जो एकतरफा फ़ैसले ले।

क्या लोग इन निर्णयों से खुश हैं? देश के भारी बहुमत को आधिकारिक तौर पर कह दिया गया कि जम्मू-कश्मीर के लोग, जिनमें कश्मीर के लोग भी शामिल हैं, शांति और विकास के भविष्य की और टकटकी लगाए हुए देख रहे हैं।

अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का जम्मू-कश्मीर के लोगों पर व्यक्तिगत या सामूहिक असर क्या पड़ा है, भारतीय मीडिया ने इसे नहीं दिखाया है। 

इसके अलावा स्थिति सामान्य होने की खबरों को इतना बढ़ा चढ़ा कर दिखाया गया कि लोगों की आवाज़ दब कर रह गई। इसके तहत उदार और बौद्धिक तबके को भी बेवकूफ़ बनाया गया।

दमन

काफी बड़े पैमाने पर सैन्यीकृत इलाक़ों में बड़े पैमाने पर होने वाले दमन को नई ऊंचाइयाँ दी गईं। नए क़ानूनों में जनसंख्या का अनुपात बदलने और संसाधनों पर एकाधिकार कायम करने की छूट बाहर की कंपनियों को दी गई, ऐसे सर्विस रूल्स बनाए गए जिनसे लोगों को नौकरी से आसानी से हटाया जा सकता है, उन पर आपराधिक केस लगाया जा सकता है, उन्हें थानों में बुलाया जा सकता है।

इसके अलावा ऐसे क़ानून बनाए गए, जिनसे नागरिक समाज को आसानी से डराया- धमकाया जा सकता है, उन पर छापे मारे जा सकते हैं, उन पर पुलिस कार्रवाई की जा सकती है।

भयावह सपना

ऊपरी सतह को थोड़ा सा खुरचने से ही देखा जा सकता है कि इन दमनकारी नीतियों और फ़ैसलों से जो वातावरण तैयार हुआ, उसका असर दुख और कुछ मामलों में भयानक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया।

कुछ हफ़्ते पहले जब मैंने एक सोशल मीडिया चैट में कहा था कि जम्मू-कश्मीर एक भयावह सपने में तब्दील होता जा रहा है, तो नई दिल्ली की एक मित्र ने कहा कि घाटी में सैलानियों की बढ़ती भीड़ इसके उलट साबित करती है और स्थिति दरअसल सामान्य होती जा रही है। उन्होंने ढांढस बंधाया कि कहा कि घाटी की अर्थव्यवस्था इससे सुधरेगी और 'मैदानी इलाक़ों के लोग इस स्वर्ग का आनंद उठा पा रहे हैं।'

पर्यटन कश्मीर की अर्थव्यवस्था का एक बहुत ही छोटा हिस्सा है और यह पहली बार नहीं हुआ है कि पर्यटन बढ़ा है। लेकिन इस संक्रमण पर ध्यान देना दिलचस्प है।

मुख्य धारा की मीडिया की कल्पना में भारत में जम्मू-कश्मीर के एकीकरण को युद्ध में विजय के बाद लूट के माल के रूप में देखा जाता है।

इससे तौला जाता है कि शेष भारत के लोगों को इससे क्या फ़ायदा होगा, जम्मू-कश्मीर के लोगों के फ़ायदे की बात उनकी कल्पना में कहीं है ही नहीं।

इस समस्या को समझने में भारतीय मीडिया और उदारवादियों की नाकामी, उनकी मिलीभगत और चुप्पी सरकार को ज़ोर जबरदस्ती करने और लोगों से सख़्ती से निपटने के लिए और उत्साहित करती है।

जम्मू-कश्मीर में एक बहुत ही छोटे हिस्से के लोगों को कट्टरपंथ और बंदूक की ओर धकेला जा रहा है, कश्मीर में भारतीय राज्य ने जो ग़लतियाँ की हैं, उन्हें मानने तक को तैयार नहीं है। सप्ताह के सातों दिन लागातार चौबीसों घंटे चलने वाले समाचार चैनलों ने जो झूठ और एक ख़ास विचारधारा को लगातार फैलाया है, स्थिति सामान्य होने के नैरेटिव को उसके चारे के रूप में इस्तेमाल किया है।

उग्रवाद का नया ट्रेंड

आम नागरिकों की हत्या और उग्रवाद के नए ट्रेंड के शुरू होने के बाद अब वे बड़ी आसानी से 'अफ़ग़ानिस्तान के प्रभाव', पाकिस्तान और सीमा पार आतंकवाद को परोस रहे हैं।

अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे रणनीतिक-भौगोलिक बदलाव की छाया कश्मीर पर निश्चित रूप से पड़ेगी। पर असली ख़तरा आंतरिक कमजोरियों से है। उग्रवादी और खुले आम उनसे सहानुभूति  रखने वाले लोगों की संख्या जम्मू-कश्मीर की आबादी का एक प्रतिशत भी नहीं है। पर पूरी आबादी को ही दुश्मन के रूप में चित्रित किया जा रहा है।

इस नीति पर चलते रहने से कट्टरपंथी लोगों की संख्या बढ़ती चली जाएगी।

हालांकि जम्मू-कश्मीर के हर तबके के आदमी को आग बुझाने के लिए कुछ न कुछ करना चाहिए, ज़्यादा ज़िम्मेदारी भारत सरकार की है, जिसे रुक कर अपनी नीतियों और रणनीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए।

सरकार ने जम्मू-कश्मीर को भारत में एकीकृत करने का उत्सव मनाया उसे कम करके और उसे छिन्न-भिन्न करके। और उसे लोगों की बात सुन कर उनके मन और दिल को अपने से जोड़ना चाहिए। इसकी शुरुआत कश्मीर के बारे में कोई योजना बना कर करनी चाहिए। आगे बढ़ने का एक मात्र रास्ता यही है।

जम्मू-कश्मीर में स्थिति सामान्य हो गई है, यह दिखाने की कोशिश में इंडियन एअर फ़ोर्स का एक शो श्रीनगर में रखा गया, जिसका टैग लाइन था, 'अपने सपनों को पंख दीजिए।' अब समय आ गया है कि कश्मीरियों को पंख नहीं तो कम से कम सपना, उम्मीद और अपनी बात कहने की छूट मिलनी चाहिए।

('नेशनल हेरल्ड' से साभार)