जम्मू और कश्मीर के नेताओं की केंद्र सरकार के साथ सर्वदलीय बैठक का होना अपने आप में चमत्कार से कम न था। जिस गुपकार को ‘गैंग’ बताया गया था उसे ही बैठक में बुलाया गया था। आमंत्रित दल 8 थे और नेता 14। सबको अलग-अलग निमंत्रण था। सर्वदलीय बैठक होती तो पार्टी को न्यौता जाता। इसलिए यह सर्वदलीय बैठक थी या कि ‘गैंग’ के 14 सदस्यों से मुलाकात- इस पर बात होती रहेगी।
दूसरा चमत्कार
पहला चमत्कार तो खुद बैठक का आयोजन रहा जिसके बाद अब कोई गुपकार को ‘गैंग’ नहीं कह सकता। वे मोदी-शाह से मिलने वाले सियासी रिश्तेदार हो गये। मगर, दूसरे चमत्कार की किसी ने अपेक्षा नहीं की थी। यह दूसरा चमत्कार था अनुच्छेद 370 पर सभी 8 दलों का का रुख।
किसी ने अनुच्छेद 370 को पुनर्बहाल करने की चर्चा तक नहीं की। कहीं इस दूसरे चमत्कार की वजह पहला ही चमत्कार तो नहीं? प्रश्न तो उठेंगे।
मोदी-शाह की जीत
मोदी-शाह और बीजेपी की यह सबसे बड़ी जीत है कि सर्वदलीय बैठक में अनुच्छेद 370 को बहाल करने की केंद्र सरकार से मांग ही नहीं की गयी। पीडीपी ने अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के तरीके पर सवाल जरूर उठाए। उसके बाद हुए जुल्मो-सितम पर आक्रोश का इजहार भी किया।
अनुच्छेद 370 पर कांग्रेस
नेशनल कान्फ्रेन्स ने सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा जताया और कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद ने भी वही बातें दुहराईं। बल्कि, आज़ाद ने तो कश्मीरी पंडितों को बसाने का सवाल भी उठाया जिस पर केंद्र सरकार ने हामी भरी। कांग्रेस अब तक अनुच्छेद 370 को दोबारा बहाल करने के पक्ष में रही है लेकिन पिछले दिनों दिग्विजय सिंह ने जब यही बात कही थी तब कोई भी कांग्रेस का नेता खुलकर समर्थन में नहीं आया था। मतलब साफ है कि कांग्रेस का रुख भी अनुच्छेद 370 पर केंद्र सरकार से टकराने वाला नहीं रहा।
देखिए, सर्वदलीय बैठक को लेकर चर्चा-
गुपकार को ‘गैंग’ बताने वाले गृह मंत्री अमित शाह के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की तसवीर बता रही है कि कश्मीरियों की कुर्बानी व्यर्थ नहीं गयी है। जिन्हें आतंकी, पाकिस्तानी फंडिंग पाने वाला कहा जाता था उनके साथ सर्वदलीय बैठक कर मोदी सरकार ने खुद को गलत साबित किया है। ऐसा जरूर कहा जा सकता है।
मगर, सियासी नजरिए से तब भी बीजेपी ने फायदा उठा लिया था और अब भी अपना रूख़ बदलते हुए वह सियासी फायदा उठाने की सोच रही है।
सर्वदलीय बैठक में जिस एक बात पर सभी सहमत दिखे, वह है जम्मू-कश्मीर के लिए राज्य का दर्जा दोबारा बहाल करना। सहमति के बावजूद नतीजा नहीं निकला या कहें कि किसी नतीजे पर पहुंचा नहीं जा सका। केंद्र सरकार ने साफ तौर पर कह दिया कि वक्त आने पर इस पर सोचेंगे।
जम्मू-कश्मीर को वक़्त आने पर राज्य का दर्जा दोबारा मिलेगा, यह बात तो उसी वक़्त कह दी गयी थी जब यह दर्जा छीना गया था। एक तरह से इस मसले पर भी सर्वदलीय बैठक में गैर बीजेपी दलों को कुछ हासिल नहीं हुआ।
परिसीमन का सहारा
एक और बात पर सर्वसम्मति थी कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराए जाएं। राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने पर सभी का जोर था। मगर, केंद्र सरकार ने चतुराई से इस विषय को परिसीमन से जोड़ दिया। परिसीमन से जोड़ने का मतलब है कि अगले मार्च तक कम से कम इंतज़ार की गुंजाइश केंद्र सरकार ने अपने लिए बना ली है। अगर गुपकार के नजरिए से सोचें तो जल्द से जल्द विधानसभा चुनाव कराने की उम्मीद भी ‘वक़्त’ की गुलाम हो गयी है।
बंदियों की रिहाई कब?
जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों ने सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए एक सुर से आवाज़ उठाई। सरकार ने इस पर सुना और खामोश रहकर भी ऐसा संदेश दिया कि इस मांग पर वे विचार कर सकते हैं। अगर केंद्र सरकार राजनीतिक बंदियों की रिहाई के साथ आगे बढ़ती है तो यहां से माहौल बनाने का रास्ता नये सिरे से बन सकता है। जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए बंदियों की रिहाई भावनात्मक मुद्दा है और इसे फौरन सुना जाए, ऐसी उनकी अपेक्षा रही है।
डोमिसाइल नीति पर जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों की मांग और सत्ताधारी दल की सोच में फर्क है। इस पर दर्ज विरोध औपचारिक जरूर है मगर सरकार इसमें स्थानीय आकांक्षा के अनुसार फेरबदल कर सकती है।
बीजेपी के प्रतिनिधियों ने अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए भी गुंजाइश रखने की आवाज़ उठायी है वहीं पीडीपी, नेशनल कान्फ्रेन्स व वामपंथी दलों ने इस पर असहमति का सुर रखा। इस मुद्दे पर सरकार के रूख को लचीला नहीं बनाया जा सका। इसलिए भी इस मुद्दे का उठाया जाना गैर बीजेपी दलों के लिए उपलब्धि कतई नहीं है।
गुपकार के पुराने तेवर ग़ायब
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी के लिए सर्वदलीय बैठक इसलिए भी उपलब्धि है क्योंकि बगैर एजेंडा वाली मीटिंग जब खत्म हुई तो एजेंडा साफ तौर पर नज़र आया। 5 अगस्त 2019 से पहले जो तेवर पीडीपी, नेशनल कान्फ्रेन्स और बाकी दलों के थे, वे तेवर इस बैठक में दिखाई नहीं पड़े।
अनुच्छेद 370 पर आमने-सामने बात करने की स्थिति में स्थानीय नेता नहीं आ सके। बीजेपी के लिए इससे सुखद सियासत और कुछ नहीं हो सकती थी कि वह देश को यह बताने की स्थिति में आ जाए कि जम्मू-कश्मीर की पार्टियां भी अनुच्छेद 370 के बजाए प्रदेश को राज्य का दर्जा देने और राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की हिमायत पर जोर देती हैं।
जिस तरह जम्मू-कश्मीर का भूगोल 1948 में बदल गया था और उसके बाद से पाक अधिकृत कश्मीर को मिलाकर एकीकृत कश्मीर की बात बेमानी हो गयी, ठीक ऐसे ही अनुच्छेद 370 को लेकर भी सियासत का यही रूख़ रहने वाला है।
जो कट्टरवादी ताकतें हैं उनके लिए एकीकृत कश्मीर भी सपना रहेगा और अनुच्छेद 370 की पुनर्बहाली भी। मगर, मुख्य धारा की सियासत ऐसे सपनों से दूर होकर ही आगे बढ़ेगी। यह बात सर्वदलीय बैठक से भी स्पष्ट हुई है।
सर्वदलीय बैठक अच्छी शुरुआत
अगर सर्वदलीय बैठक को किसी की जीत और किसी की हार से ऊपर उठकर देखा जाए तो इसे दो साल बाद अच्छी शुरुआत कह सकते हैं। मगर, आगे सबकुछ अच्छा-अच्छा ही रहेगा इसका कोई भरोसा केंद्र सरकार की ओर से नहीं दिलाया गया है। मतलब ये कि जैसी प्रतिक्रिया होगी, उसी के अनुरूप केंद्र सरकार कदम बढ़ाएगी।
परिसीमन का मुद्दा
परिसीमन इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इससे विधानसभा को धार्मिक आधार पर भी संतुलित करने का लक्ष्य केंद्र सरकार रखती है। देखना यह होगा कि इस पर स्थानीय राजनीतिक दल कैसी प्रतिक्रिया देंगे। हालांकि इस पर कोई बात विश्वास के साथ तभी कही जा सकती है जब परिसीमन का स्वरूप सामने होगा।
अगर परिसीमन को लेकर एक जैसा विचार बना तो उसके बाद की सियासत में कश्मीरी पंडितों की वापसी की संभावना और भूमिका बढ़ जाएगी। लेकिन, ठीक इसी रोड मैप पर आगे की सियासत चलने वाली है ऐसा मानकर नहीं चला जा सकता। पीडीपी की ओर से पाकिस्तान से बातचीत की जरूरत बताना कश्मीर में कट्टरपंथ को जिन्दा रखने की कोशिश है। इसकी सफलता-असफलता से भी यह रोडमैप प्रभावित होगा।