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कश्मीर सिर्फ फौजी समस्या नहीं; राजनैतिक समाधान पर कितना जोर?

कश्मीर सिर्फ फौजी समस्या नहीं; राजनैतिक समाधान पर कितना जोर?

कश्मीर समस्या का क्या समाधान है? क्या सिर्फ़ सेना की ताक़त से शांति आ सकती है? या फिर राजनैतिक हल निकालने की भी ज़रूरत है?

विदेशों से प्रायोजित आतंकवाद और आंतरिक हिंसा से निपटने में दुनिया की किसी भी फौज से ज्यादा अनुभव रखने वाली भारतीय सेना के प्रमुख मनोज पांडे ने पुंछ की घटनाओं के बाद जो जो फैसले किए हैं उनसे कश्मीरियों के जख्मों पर फाहा लगेगा और वहां की नाराजगी जल्दी शांत हो जाएगी, यह उम्मीद करनी चाहिए। खुद जाकर सारी चीजें देखना, जानना तो एक सामान्य ड्यूटी थी लेकिन पुंछ-रजौरी सेक्टर के प्रभारी ब्रिगेडियर कमांडर समेत दो अधिकारियों को जांच पूरी होने तक वहां से हटाना और नए अधिकारी की तैनाती ज्यादा बड़ी चीज है। जांच चल रही है और उम्मीद करनी चाहिए कि अधिकारियों और जवानों को भी अपना पक्ष रखने का उचित मौका देने के साथ, यह जल्दी ही दोषी लोगों को चिह्नित करने और सजा का सुझाव देने का काम भी पूरा करेगी। जाहिर तौर पर जांच के दायरे में इस सेक्टर में आतंकियों के हाथ सेना को होने वाले नुकसान का मुद्दा भी शामिल है। हम जानते हैं कि पहले एफआईआर दर्ज हो चुकी है।

आतंकियों द्वारा घात लगाकर किये गये हमले में चार जवानों की मौत के बाद सेना की जबाबी कार्रवाई में दो आतंकी मारे गए थे। पर बाकी की तलाश के लिए सेना ने जब पूछताछ के लिए कुछ लोगों को उठाया तो उनमें से तीन के मरने और बाकी के साथ भारी मारपीट का आरोप है। तीन लाशें मिलीं और जख्मी लोग भी सामने आए। उनका आरोप है कि ये मौतें सेना के दमन से हुईं और जख्म भी तभी लगे हैं। इसे लेकर घाटी एक बार फिर गरमाई थी। उम्मीद की जानी चाहिए कि सेना प्रमुख के फ़ैसलों के बाद शांति कायम होगी। 

सुरक्षा बलों की गश्त और संख्या भी बढ़ाई गई है। अपने नौजवान साथियों की मौत से ग़ुस्से में आकर संयम खोना और आतंकियों के बारे में जानकारी न मिलने के ग़ुस्से में ज्यादा क्रूर व्यवहार करने की आशंका को खारिज नहीं करना चाहिए और तभी जाँच भी हो रही है पर यहाँ यह सवाल उठाने में भी हर्ज नहीं है कि जब आतंकी फौजी दस्ते पर हमला कर सकते हैं, नौजवानों को जबरन अपने ऑपरेशन में भागीदार बना सकते हैं तो फौज के प्रति नफ़रत भड़काने के लिए क्या इस तरह की और हिंसा को अंजाम नहीं दे सकते। उनको भी सीधे पाक साफ करार दिए जाने की ज़रूरत नहीं है। और ग्रामीणों द्वारा उनको सहयोग करने के प्रमाण आने पर सेना की सख्ती को नाजायज कैसे ठहराया जा सकता है।

और अगर पिछले वर्षों की तुलना में पाक सीमा से घुसपैठ, यहाँ फौजी ठिकानों और दस्तों को निशाना बनाने के साथ घाटी के ग्रामीण इलाकों में आतंकी गतिविधियां बढ़ी हैं तो वे इस बात की भी गवाही दे रही हैं कि मन से हों या बेमन से, आतंकियों को स्थानीय समर्थन मिलने लगा है। चार साल पहले जब धारा 370 हटाने से लेकर कश्मीर को तीन टुकड़ों में बाँटने और नए परिसीमन समेत अनेक बड़े फ़ैसलों के साथ पूरे इलाक़े में सशस्त्र बलों की तैनाती बढ़ाई गई थी तब स्थिति काफी शांत लगती थी। इसके साथ ही पाकिस्तान को शांत करने के लिए बालाकोट काफी प्रभावी लगता था। फिर आतंकी कार्रवाई होने पर फौज को भी फ़ैसले करने की काफी आज़ादी मिल गई थी। उसका भी असर होगा ही। पर अब धीरे-धीरे घाटी अशांत होती गई है और फौजी इक़बाल कम पड़ने लगा है। 

उधर जम्मू क्षेत्र के पीर पंजाल वाले इलाके से घुसपैठ की घटनाएं भी बढ़ी हैं और पाक सीमा रक्षक घुसपैठ करा रहे हैं, इसके प्रमाणों का ढेर भी लगता गया है। पर वह एक जानी हुई सी चीज है और उसका जबाब देना आसान है। पर स्थानीय लोगों में बेचैनी और आतंकियों के लिए सहानुभूति बढ़ाना एकदम चिंता वाली बात है। और जब किसी भी वजह से सामान्य लोगों को फौजी गुस्से का शिकार बनाना पड़ेगा तो यह मर्ज तेजी से बढ़ता जाएगा। इसीलिए इस बार दिखी सेना प्रमुख की तत्परता का स्वागत किया जाना चाहिए।

लेकिन जिस रफ्तार में घुसपैठ और आतंकी वारदातें बढ़ रही हैं उसमें सेना वाले समाधान और सावधानियों की बहुत साफ़ सीमाएँ हैं। लाख आजादी मिलने के बाद भी सेना के कमांडर एक हद से ज्यादा बड़े फ़ैसले नहीं कर सकते क्योंकि मामला सीधे सरहद पार से जुड़ा मिलता है।

पिछले हफ्ते ही फौज पर जो हमला हुआ उसमें चार जवान मारे और हमलावर जत्था दो नागरिकों का शव लेकर पाक सीमा में भाग गया। दो लाशों को बुरी तरह क्षत-विक्षत कर दिया गया। जवानों के हथियार लूट लिए गए। 2018 से 2022 के दौरान अगर विभिन्न आतंकियों द्वारा की गई कार्रवाइयों में 174 नागरिक मारे गए थे तो इस साल सेना द्वारा की गई भिड़ंत में 35 नागरिक मारे गए हैं। सेना के ठिकानों पर ड्रोन से हमला या उनके ज़रिए जासूसी कराने की घटनाएं काफी बढ़ गई हैं। पिछले पंद्रह महीनों में सेना की टुकड़ियों पर पुंछ जैसा हमला भी देखने में आया है। नवंबर में ही रजौरी में आतंकी ढूँढने के अभियान में दो कैप्टनों समेत चार जवान मारे गए थे। अप्रैल मई में हुए दोहरे हमले में पुंछ में सेना के दस जवान शहीद हुए थे। सेना का मानना है कि अभी क़रीब सौ आतंकी घाटी में सक्रिय हैं जिनमें तीन-चौथाई विदेशी हैं, पर स्थानीय समर्थन बढ़ता गया है।

और यहीं आकर साफ़ लगता है कि मामला सेना के संभलने वाला नहीं है। यह एक राजनैतिक मसला है और निष्पक्ष राजनैतिक फैसलों और कार्रवाइयों से ही इसका निदान होगा। संसद के अंदर या अदालतों में इसकी लड़ाई का अब ज्यादा मतलब नहीं है, न वहां बहुत दावे करने का। (कहना न होगा कि यही चीज मणिपुर में भी दिखती है)। जमीन पर उतरकर फ़ैसले करने, उसके हानि-लाभ को बर्दाश्त करने ज़रूरी लगे तो कोर्स करेक्शन करने का वक्त बीतता जा रहा है। चार साल का समय कम थोड़े ही होता है। और अगर ज़्यादा देर होती जाएगी तो फौज की तरफ़ से चूक भी बढ़ेगी, आतंकी हौसला ही नहीं समर्थन भी बढ़ता जाएगा। देश भर में चुनाव होंगे और कश्मीरी लोग खामोश रहेंगे तो उनका अलगाव बढ़ेगा ही। अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले पर देश भर का लाभ घाटा एक तरफ़ है, कश्मीरियों की राय ज्यादा महत्व का है। वह जाहिर न होने और उसके अनुरूप कोर्स करेक्शन किए बगैर आतंकवाद बढ़ेगा ही, सिर्फ भारी ख़र्च और फौज के इकबाल से नहीं संभलेगा।  

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