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समाज से सहानुभूति समाप्त कर दो, जनसंहार की बाधा ख़त्म हो जायेगी!

समाज से सहानुभूति समाप्त कर दो, जनसंहार की बाधा ख़त्म हो जायेगी!

बीते दिनों कई राज्यों में हुई सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं इसी ओर इशारा करती हैं कि समाज से सहानुभूति को खत्म करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। भारत के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है।

"आदमी की दर्दभरी गहरी पुकार सुन,

जो दौड़ पड़ता है आदमी है वह भी,

जैसे तुम भी आदमी, वैसे मैं भी आदमी।"

गजानन माधव मुक्तिबोध की कठिन मानी जानेवाली कविता ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की ये पंक्तियाँ कितनी सहज और बोधगम्य हैं। लेकिन मेरा ध्यान हमेशा अटक जाता है इन पंक्तियों में प्रयुक्त ‘भी’ पर। जो किसी की दर्दभरी पुकार सुन दौड़ पड़ता है, वह भी आदमी ही है। क्या यह कहना चाहती हैं ये पंक्तियाँ? या यह कि इसके बाद भी या ऐसा करने के बावजूद वह आदमी बना रहता है? अंतिम पंक्ति एक दूसरे में आदमीयत पहचान लेने की बात करती है।

 

सहानुभूति मुक्तिबोध के लिए कीमती है। ‘अँधेरे में’ कविता की ये पंक्तियाँ:

“समस्वर, समताल

सहानुभूति की सनसनी कोमल!!

हम कहाँ नहीं हैं,

सभी जगह मन!

निजता हमारी।“

मार्क्सवादी मुक्तिबोध के लिए सहानुभूति इतना बड़ा मूल्य क्यों है? कई बार ‘वर्ग चेतना’ से भी अधिक महत्त्व वे सहानुभूति को देते दिखलाई पड़ते हैं। क्या यह कहा जा सकता है कि वर्ग चेतना को अंतिम और सहानुभूति को कमतर करके आँकने के कारण ही क्रांतियाँ असफल हुईं? क्योंकि उन्होंने शत्रु वर्ग के किसी भी व्यक्ति में सहानुभूति की संभावना से इनकार कर दिया। 

सहानुभूति दो विभिन्न, बल्कि कुछ मायनों में जिनके हित अलग या विरोधी माने जाते हैं, ऐसे समूहों के लोगों की एक दूसरे में समान मनुष्यता को पहचानने का नाम है।

सहानुभूति के बिना इंसानियत मुमकिन नहीं। या उसके बिना समाज आगे चल नहीं सकता। यह अनंतशास्त्री डोंगरे की स्त्री मात्र से सहानुभूति ही होगी जिसके कारण उन्होंने तत्कालीन परिपाटी को तोड़कर अपनी पत्नी लक्ष्मीबाई डोंगरे को संस्कृत पढ़ाई जिसके चलते लक्ष्मीबाई अपनी बेटी रमाबाई को पढ़ा सकीं और वे पंडिता रमाबाई हुईं।

क्या सावित्रीबाई फुले फातिमा शेख की सहानुभूति के बिना अपना दुष्कर कार्य आरंभ भी कर पातीं? वैसे ही क्या हम दीनबंधु ऐन्ड्रूज की या ग्राहम पोलक अथवा मिली पोलक या मीरा बेन की सहानुभूति के बिना महात्मा गाँधी या भारत की स्वाधीनता की कल्पना कर सकते हैं? जिसे आज अतार्किक माना जाता है, ‘खिलाफत आंदोलन’ को गाँधी का समर्थन इस सहानुभूति के मूल्य के व्यवहार की पराकाष्ठा कही जा सकती है।  

समाज से सहानुभूति को समाप्त कर दो, जनसंहार के आगे की सारी बाधा मिट जाएगी। क्योंकि जनसंहार को जो एक चीज़ रोकती है, वह कानून नहीं है, शुष्क राजनीति नहीं बल्कि वह है सरल मानवीय सहानुभूति। सहानुभूति, संवेदना, हमदर्दी: इनके बल पर समाज जीवित रहते हैं। सह, सम और हम से गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि जिसके साथ सहानुभूति होनी है, वह हमारे जैसा या हमारे बीच का है।यों तो हम का दायरा निश्चित नहीं, उसकी कोई सीमा नहीं, लेकिन मानवीय अनुभवों की सीमाबद्धता को जानते हुए हम कह सकते हैं कि वास्तविक सहानुभूति अपने परिवार, समुदाय, धर्म और राष्ट्र की सीमाओं के पार जाकर ही व्यक्त की जा सकती है। 

अपने परिजन के दुख से व्यथित होना एक बात है और उसमें कुछ भी खास नहीं, लेकिन जिससे आपका कोई परस्पर व्यवहार या संकुचित अर्थ में कहें तो लेन-देन का रिश्ता नहीं है, अगर आप उसके दुख-दर्द की साझेदारी कर पाते हैं तो उस सहानुभूति का अर्थ है।

उसमें भी उसके साथ सहानुभूति जिसे आप जैसे लोग दुश्मन मान बैठे हैं और भी अर्थपूर्ण है।

 

इस्राइल में एक यहूदी की फिलस्तीनियों से सहानुभूति, रंगभेदी दक्षिण अफ्रीका में एक श्वेत अफ्रीकी की काले व्यक्ति से सहानुभूति, भारत में एक हिंदू की मुसलमान के प्रति सहानुभूति, पाकिस्तान में मुसलमान की ईसाई से सहानुभूति, बांग्लादेश में मुसलमान की हिंदुओं से सहानुभूति या श्रीलंका में सिंहली बौद्धों की तमिल हिंदुओं से सहानुभूति का अर्थ है। इस क्रम को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

इस क्रम से उनके बीच ताकत के रिश्ते का पता चलता है। एक ‘उच्चवर्णीय’ का दलित से संबंध बराबरी का नहीं है। वैसे ही इन सारी पहचानों के बारे में कहा जा सकता है जिनका जिक्र हमने पहले किया है। एक ताकतवर है, दूसरा अपेक्षाकृत कमजोर।

सहानुभूति का अर्थ संदर्भ से ही सिद्ध होता है। जब वह सबसे कठिन जान पड़े, उसी समय सहानुभूति की अभिव्यक्ति का कोई मतलब है । यह भी कहा जा सकता है कि अगर आपकी सहानुभूति के लिए आपको कोई कीमत चुकानी पड़े, या उसकी संभावना हो तब उसका और महत्त्व है। सहानुभूति में प्रतिदान की अपेक्षा नहीं है।इसलिए नताशा नरवाल और देवांगना कालिता की नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ मुसलमानों द्वारा शुरू किए गए आंदोलन में भागीदारी के मायने हैं। या बिना किसी वोट की आकांक्षा के जहाँगीरपुरी की प्रताड़ित जनता के पक्ष में बुलडोजर के आगे खड़े होनेवाले वामपंथी नेताओं की कार्रवाई का अर्थ है।

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चाहे तो कोई कह सकता है कि एक मायने में सहानुभूति का उत्तर मिलता है। जिसके साथ आपने सहानुभूति जाहिर की है, उसके मन में आपके लिए एक कोना बन जाता है। इसे भी लाभ कहते हैं। लेकिन सहानुभूति की अभिव्यक्ति के समय इस प्रतिदान की कोई चेतना नहीं रहती।

सहानुभूति एक स्तर पर सहज है। मानवीय है, बल्कि प्राणी मात्र का गुण है। इसके लिए अतिरिक्त शिक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसलिए उन भयानक क्षणों में भी, जब कुछ हिंदू मुसलमानों के खून के प्यासे हो रहे थे, उन्हें शरण देने के पहले उत्तर पूर्वी दिल्ली के कुछ हिंदुओं ने आगा पीछा नहीं सोचा। हालाँकि ऐसा करने के कारण वे अपने हिंदुओं की आँख के काँटा बन गए। ऐसे एकाधिक हिंदुओं से हमारी मुलाक़ात हुई। ऐसी घटनाएँ पिछले महीने मुसलमानों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा के दौरान भी हुईं जिनमें हिंदू औरतों ने या अन्य लोगों ने मुसलमानों को बचाया। अपने ऊपर ख़तरा उठाकर।

बिना इस ख़तरे के सहानुभूति का मूल्य समझना कठिन है। अमेरिकी  छात्रा रशेल कोरी की याद बनी हुई है। वह यहूदी थी। अमेरिका से फ़िलस्तीन गई। इस्त्राइल के फ़िलस्तीन विरोधी अभियान का विरोध करने। या उससे कहीं ज़्यादा, फ़िलिस्तीनियों के साथ सहानुभूति व्यक्त करने। वह सहानुभूति मात्र शाब्दिक नहीं थी, यह तब मालूम हुआ जब वह एक इस्राइली बुलडोज़र के सामने खड़ी हो गई जो एक फ़िलस्तीनी का घर गिराने बढ़ रहा था। वह रुका नहीं। कोरी को उसने कुचल दिया।

हमेशा कोरी जैसा बलिदान दिया जाए, ज़रूरी नहीं। लेकिन सहानुभूति का अर्थ है कुछ करना। इस एक गुण के कारण व्यक्ति, समुदाय अपनी सीमाओं से आगे दूसरों को उनके संदर्भ में समझने की कोशिश करते हैं।

यही वजह है कि जो जनसंहार की विचारधारा में यक़ीन करते हैं, वे समाज से सहानुभूति के विचार को ही ख़त्म कर देने का प्रयास करते हैं। ऐसा हो जाने पर अहम एक दूसरे से पूरी तरह उदासीन हो जाते हैं। किसी की पीड़ा को समझने की जगह हम उसकी खिल्ली उड़ाने लगते हैं। हाल में जब क्रिकेट खिलाड़ी इरफ़ान पठान ने अपने देश के बारे में लिखा कि वह बहुत सुंदर और महान है और हो सकता है अगर….। हर किसी को जिसके भीतर ज़रा भी संवेदना होगी, वह इरफ़ान के दर्द को समझ पाएगा।

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लेकिन उनके एक साथी खिलाड़ी ने ठीक इसके उलटा किया जब उसने अगर के आगे की ख़ाली जगह को पूरा किया, अगर लोग संविधान को अपनी पहली किताब मानने लगें।

पहली नज़र में किसी को धोखा हो सकता है। लेकिन यह एक इरफ़ान पठान को दिया गया जवाब था। तो तुरत इस द्विअर्थी संवाद के मायने समझ लिए गए। यह पहली किताब क़ुरान की जगह संविधान को अपनाने की फ़ब्ती थी।

पूर्ण रूप से संवेदनहीन व्यक्ति ही ऐसा लिख सकता है। जिसे इरफ़ान पठान की वेदना की अभिव्यक्ति में एक मौक़ा मुसलमानों को चाबुक लगाने का दीखा। इसमें बहुत सारे लोगों को मज़ा आया।

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कोशिश यही रहती है। समाज से सहानुभूति का बोध समाप्त कर दिया जाए। यह बार बार करना पड़ता है। क्योंकि जैसा हमने कई बार देखा है, समाज में सहानुभूति के स्रोत प्रचुर हैं। इसलिए जब जहाँगीरपूरी में गरीब लोगों के मकानों और दुकानों पर बुलडोजर चल रहे थे तो कई टेलिविज़न पत्रकार ख़ुशी से उछल रहे थे। ये वे ही थे जो शाहीन बाग़ में धरने पर बैठी, ठंड में ठिठुरती औरतों की खिल्ली उड़ा रहे थे।

ऐसा करके वे हिंदुओं में मुसलमानों के लिए मौजूद स्वाभाविक सहानुभूति को रगड़ रगड़ कर मिटा देना चाहते हैं। तब जब मुसलमानों को मारा जाएगा तो कोई मारनेवाले के सामने नहीं आएगा।

शायद ऐसा आख़िरी तौर पर न हो। लेकिन यह दुनिया में कई बार हो चुका है। जर्मनी में जिन यहूदियों के सारे सामान ज़ब्त कर लिए गए, उनके पड़ोसी ही नीलामी में उनपर बोली लगाने गए। यह भारत में हो रहा है। एक पुजारी ने जब यह कहा कि हम अपनी पूजा करें, आख़िर मस्जिद पर क्यों चढ़ाई करनी है तो कैमरे के आस पास जमा लोग उस पर टूट पड़े। वह आख़िर मुसलमानों से सहानुभूति ज़ाहिर ही कैसे कर सकता था।

यह संकेत अशुभ के हैं। जिस समाज की आँसू की ग्रंथि सूख जाए उसकी क्या दृष्टि ठीक होगी?

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