“आज किसानों की भूमि अगर किसानों के नाम पर है तो इसका संपूर्ण यश चौधरी चरण सिंह को जाता है। जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे तो सामूहिक खेती की बात लेकर आये थे कम्युनिस्ट पैटर्न पर, चौधरी चरण सिंह एकमात्र ऐसे नेता थे जो इस मुद्दे पर कांग्रेस छोड़े, जवाहरलाल नेहरू के सामने खड़े होकर इसका विरोध किया कि किसान की भूमि किसान के नाम पर रहेगी। यहां कम्युनिस्ट थ्योरी नहीं चलेगी, किसान की भूमि पर किसान का अधिकार है। ये चौधरी साहब का काम था।“
यह बयान है देश के गृहमंत्री अमित शाह का। चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने की घोषणा के बाद टाइम्स नाऊ चैनल की पत्रकार नविका कुमार के एक सवाल के जवाब में उन्होंने यह बयान दिया। यह बयान देश के पहले प्रधानमंत्री को लेकर बीजेपी और आरएसएस में पल रही हीनग्रंथि का एक और नमूना है। इस ग्रंथि की वजह से ही नेहरू जी पर बार-बार हमला किया जाता है और इसके लिए झूठ या अर्धसत्य का सहारा लिया जाता है। आज़ादी के तमाम नायकों को इसी तरक़ीब से पं.नेहरू का विरोधी साबित करने की कोशिश होती रही है और इसी कड़ी में नया नाम चौधरी चरण सिंह का है।
गृहमंत्री अमित शाह के इस बयान में इतना ही सच है कि चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में सामूहिक खेती के नेहरू जी के प्रस्ताव का विरोध किया था, लेकिन न उन्होंने इस मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ी थी और न ही इस प्रस्ताव में किसानों से ज़मीन का मालिकाना हक़ छीनने की बात थी।
इस अधिवेशन में सामूहिक खेती के प्रयोग का प्रस्ताव भारी बहुमत से पास हुआ था। चौधरी चरण सिंह के समर्थन में आधा दर्जन लोगों के हाथ भी नहीं उठे थे। हद तो ये है कि सामूहिक खेती को लेकर यह बात उस गुजरात से आये नेता ने कही है जहाँ से ‘अमूल’ जैसा मल्टीनेशनल कंपनियों को टक्कर देने वाला ब्रांड उभरा है जो दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में सहकारिता के सफल प्रयोग और उसकी ताक़त को बताता है।
अमित शाह जिस ‘कम्युनिस्ट पैटर्न’ के लिए नेहरू जी को कोस रहे थे, वह दरअसल कृषि उपज के क्षेत्र में भी ऐसी सफलता प्राप्त करने का ख़्वाब था।
कांग्रेस का 1959 का नागपुर अधिवेशन के बारे में 18 जनवरी 1959 में नेशनल हेराल्ड में छपी रिपोर्ट बताती है कि चौधरी चरण सिंह ने अधिवेशन में सहकारी कृषि नीति की सफलता को लेकर संदेह जताते हुए कहा था कि “ सारी वैज्ञानिक उपलब्धि के बावजूद मनुष्य का मन अभी तक उसी तंग नाले में विचर रहा है जहां दो हजार साल पहल विचरता था।
अगर स्वामित्व का अधिकार नहीं होगा तो किसान सामूहिक खेती की ओर जायेंगे ही नहीं और यह अधिकार बना रहा तो किसान एक या दो मौसम तक सहकारी खेती करेंगे, लेकिन उसके बाद उससे निकलने की कोशिश करेंगे।
अगर यह समझ लिया जाये कि जोतदार इस तरह का स्वार्थी जीव नहीं है और वह खेती के सहकारी मार्ग को पूरा समर्थन देगा तो वह संन्यासी हो जायेगा, खेतिहर नहीं रहेगा।“
यानी चौधरी चरण सिंह किसानों के मनोविज्ञान को देखते हुए इस नीति की सफलता के प्रति संदेह जता रहे थे। वे नेहरू जी के आदर्शवादी मन को यथार्थ से परिचित करा रहे थे। सहकारी खेती में किसानों से जबरदस्ती ज़मीन लेने का कोई प्रावधान कभी नहीं था।
लेकिन चौधरी चरण सिंह मानते थे कि भूमि पर स्वामित्व होने के बावजूद किसानों की मानसिकता सामूहिकता को स्वीकार नहीं करेगी। कोई संन्यासी ही इस विचार को स्वीकार कर पायेगा और खेतिहर संन्यासी नहीं हैं। वैसे, चौधरी चरण सिंह ने परती या सरकारी ज़मीन पर सहकारी खेती के प्रयोग का समर्थन किया था।
गृहमंत्री का यह कहना भी पूरी तरह ग़लत है कि चौधरी चरण सिंह ने इस मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ी थी। सच्चाई ये है कि नागपुर अधिवेशन के लगभग पाँच साल बाद पं.नेहरू की मृत्यु हुई और चरण सिंह ने इसके भी तीन साल बाद यानी 1967 में कांग्रेस छोड़ी थी। नागपुर अधिवेशन में नेहरू जी के प्रस्ताव का विरोध करते समय वे यूपी के राजस्व मंत्री थे। उनकी इस हैसियत में कोई कमी नहीं आयी।
यह नेहरू के लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था को भी दिखाता है कि उनके सामने खुलकर विरोध किया जा सकता था। मोदी युग में तो ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि किसी राज्य का मंत्री सार्वजनिक रूप से प्रधानमंत्री के सामने खड़ा होकर उनके किसी प्रस्ताव का विरोध करे और तालियाँ भी प्राप्त करे।
चौधरी चरण सिंह ने मुख्यमंत्री डा.संपूर्णानंद से विवाद के बाद अपना पद छोड़ा था, न कि पार्टी। कुछ ही समय बाद चंद्रभानु गुप्त मंत्रिमंडल में वे गृह, कृषि और पशुपालन जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री बने थे। उन्होंने कांग्रेस छोड़ी नहीं बल्कि ‘तोड़ी’ थी और 1967 में भारतीय क्रांति दल बनाकर, कई विपक्षी पार्टियों के संयुक्त विधायक दल के नेता बतौर यूपी के मुख्यमंत्री बने थे।
यह नये भारत और संविधान का कमाल था
गृहमंत्री कह रहे हैं कि चौधरी चरण सिंह के विरोध की वजह से ज़मीन किसानों के नाम रह पायी वरना नेहरू जी की चलती तो यह अधिकार छिन जाता। लेकिन इतिहास बताता है कि यह नेहरू और कांग्रेस ही थी जिसकी वजह से पहली बार किसान ज़मीनों के ‘वास्तविक’ मालिक बने थे। यह नये भारत और संविधान का कमाल था। वरना भारत में भूमि हमेशा सम्राटों और बादशाहों की मिल्कियत रही है, किसान तो बस खेती करते रहे हैं।उन्हें कभी भी अपनी ज़मीन से उज़ाड़ा जा सकता था। जागीरदारों से लेकर ज़मींदारों तक की व्यवस्था किसानो से लगान वसूलने के लिए बनायी गयी थी और इस काम में बेहद क्रूरता बरती जाती थी। लॉर्ड कार्नवालिस ने 1793 में जो स्थायी बंदोबस्त किया था उसके तहत ज़मींदारी को वंशानुगत कर दिया गया था।
किसान हमेशा ज़मींदारों की कृपा पर निर्भर रहते थे। लेकिन नेहरू जी के नेतृत्व में हुए ज़मींदारी उन्मूलन ने यह परिदृश्य पूरी तरह बदल दिया। किसान ज़मींदारो के दुश्चक्र से आज़ाद हुए। यही नहीं, हरित क्रांति के बीज भी नेहरू जी के समय ही पड़ गये थे। उर्वरक कारखानों और कृषि अनुसंधान संस्थानों की स्थापना का श्रेय नेहरू जी की ही जाता है।
यह सही है कि कांग्रेस अधिवेशन में पारित प्रस्ताव के बावजूद देश सामूहिक खेती के प्रयोग में आगे नहीं बढ़ पाया लेकिन कृषि जोतों का आकार जिस तेजी से छोटा हुआ है, उसके बाद इसका महत्व सहज ही समझा जा सकता है। आज भारत में कृषि जोतों का राष्ट्रीय औसत एक हेक्टेयर से भी कम है।
ऐसे में उन्नत तकनीक के सहारे उपज बढ़ाना किसानों के लिए मुश्किल हो रहा है। इसी को ध्यान में रखते हुए कॉर्पोरेट फ़ार्मिंग की बात हो रही है जिस पर मोदी सरकार आगे बढ़ना चाहती है। कार्पोरेट कंपनियाँ चाहती हैं कि किसान अपनी ज़मीन उसे दे दें और वह उनकि छोटी जोतों को मिलाकर एक बड़े फार्म का स्वरूप देकर बाज़ार की ज़रूरतों के हिसाब से खेती करायें और मुनाफ़ा कमायें।
सहकारी खेती के मूल में भी जोतों को बड़ा करने की चिंता है। फर्क ये है कि इसमें उपज से हुआ मुनाफ़ा किसानों की सहकारी समिति यानी किसानों के बीच बँटेगा न कि किसी व्यापारी या कंपनी की जेब में जायेगा।
पुनश्च: 22 मई 1954 को चौधरी चरण सिंह ने पं.नेहरू को पत्र लिखकर सुझाव दिया था कि संविधान में इस आशय का संशोधन किया जाये कि राज्य या केंद्र में भविष्य में किसी भी नौजवान को राजपत्रित पद पर उस समय तक नहीं किया जायेगा जब तक वह अपनी जाति के बाहर किसी अन्य जाति में विवाह न करे। एक अन्य प्रस्ताव में चौधरी चरण सिंह ने किसानों को पचास फ़ीसदी आरक्षण देने की माँग उठायी थी।
मोदी जी चौधरी चरण सिंह की इस इच्छा को पूरी करके नेहरू जी से बड़ी लक़ीर खींच सकते हैं। वरना नेहरू का कद मिटाने की हर कोशिश लोगों में सही इतिहास जानने की ललक पैदा करती है और नेहरू जी का क़द पहले से कहीं बड़ा नज़र आने लगता है।