क्या डंडे के ज़ोर से हिंदी की गौरवगाथा गाई जाएगी?
ख़बर है कि केंद्र सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की 'नई शिक्षा नीति' पर बनी कस्तूरीरंगन समिति ने देश भर में कक्षा आठ तक हिंदी भाषा को अनिवार्य रूप से पढ़ाने की सिफ़ारिश की है। इस पहल को जानने के लिए इस विषय का लंबा इतिहास भी जानना ठीक होगा। भारत का प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन जब 1857 में घटित हुआ तब ब्रिटिश हुकूमत ने उस समय दक्कन के राजाओं से सेना मंगवाकर क्रांतिकारियों को हराया था। सोचने वाली बात है कि अपने ही देश के एक क्षेत्र के सिपाही ने देश के दूसरे क्षेत्र के सिपाहियों से युद्ध क्यों किया होगा
- स्वतंत्रता पूर्व अखंड भारत में हज़ार से अधिक बोलियाँ थीं। 1857 में यह स्वाभाविक ही था कि दक्षिण की 'भारतीय' सेना ने उत्तर की 'भारतीय' सेना को उस अपनत्व के नज़रिये से नहीं देखा और अंग्रेज़ों ने इसका लाभ उठा कर 90 साल से अधिक समय तक राज किया।
इस सांस्कृतिक विरोधाभास को सबसे पहले गाँधी ने आँका जब उन्होंने 1915 में अफ़्रीका से लौटकर भारत का सम्पूर्ण भ्रमण किया। उन्होंने पाया कि दक्षिण भारत में विदेशी हुकूमत से स्वतन्त्र होने की वह व्यापक सामाजिक आंदोलनात्मक उत्कंठा नहीं है, जितनी उत्तर भारत में है। हालाँकि अपने-अपने राज्य को विदेशी आक्रमण से बचाने के लिए कई रजवाड़ों ने विदेशी हुकूमतों के ख़िलाफ़ विद्रोह भी किया, जैसे गोवा के दीपाजी राणे, कर्नाटक की कित्तूर चेन्नम्मा, मैसूर के टीपू सुलतान आदि। गाँधी ने इस विसंगति को दूर करने की दृष्टि से 1918 में ही न सिर्फ़ दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना मद्रास शहर में की और अपने बेटे देवदास गाँधी को जीवनभर दक्षिण भारत में रहने का निर्देश भी दे दिया, बल्कि कांग्रेस तक की सदस्यता त्यागने वाले गाँधी अपनी अंतिम साँस तक इस संस्था के अध्यक्ष बने रहे।
- यह गाँधी की न सिर्फ़ भाषाई एकरसता का प्रयास था, बल्कि सांस्कृतिक एकात्मता भी लाने की दिशा में एक पहल थी। प्रचार सभा के कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए हज़ारों प्रचारक बनाये और यह नियम भी बनाया कि प्रचारक तमिल, कन्नड़, मलयालम तथा तेलुगु भाषा के माध्यम से ही हिंदी का प्रचार करेंगे।
साथ ही सभा की विभिन्न हिंदी परीक्षाओं में स्थानीय भाषा का पर्चा भी अनिवार्य किया। इन्हीं प्रचारकों की फ़ौज से आगे चलकर गाँधी को पट्टाभि सीतारामय्या जैसे हज़ारों स्वतंत्रता सैनिक भी मिले जिसके चलते 1942 भारत छोड़ो आंदोलन में दक्षिण भारत की भूमिका महत्वपूर्ण रही। गाँधी ने 24 साल के अंदर वह कारनामा कर दिखाया जिसकी कमी 1857 में महसूस हुई थी।
गाँधी की तरह संविधान सभा ने भी भारत की सांस्कृतिक विविधता को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वप्रथम धारा में ही भारत को राज्यों का संघ घोषित किया, न कि एक राष्ट्र। अर्थात एक ऐसी संघीय व्यवस्था, जिसमें राज्यों का स्वतन्त्र अस्तित्व भी हो, और स्वतन्त्र अधिकार भी।
कई महत्वपूर्ण विषय, जैसे नागरिक सुरक्षा, प्रशासन, शिक्षा, राजस्व, नागरिक सुविधाएँ आदि राज्य के अधीन रखा। उल्लेखनीय है कि सरकार राष्ट्रीय सरकार न होकर केंद्रीय सरकार मानी गई है। कार्य विभाजन भी संघ सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं, किसी राष्ट्रीय सूची के अंतर्गत नहीं।
लेकिन आरएसएस की विचारधारा विविधता के सिद्धांत को नहीं मानती और एकरूपता की वकालत करती है।
- आरएसएस के पास इस तथ्य का कोई उत्तर नहीं है कि समूचा अरब एक धर्म, एक भाषा होते हुए भी अलग देश क्यों है समूचा यूरोप एक धर्म होते हुए भी एक देश क्यों नहीं है दक्षिण अमेरिका में 14 देश क्यों है, जहाँ सबके धर्म और भाषा लगभग एक समान हैं 13 विभिन्न भाषाएँ होते हुए भी चीन एक राष्ट्र कैसे है और अंत में जब पाकिस्तान बांग्लादेश, दोनों ही एक ही धर्म मानते हैं तो अलग राष्ट्र क्यों हैं
इसी संघीय व्यवस्था की माँग के अंतर्गत तेलुगु भाषी भू-भाग के स्वतन्त्र राज्य की माँग को लेकर पोट्टी श्रीरामुलु शहीद हुए थे। जिसके कारण 1953 में फ़ज़ल समिति की सिफ़ारिश को मानते हुए भाषायी आधार पर 14 राज्यों की स्थापना हुई। इसी मातृभाषा की प्राथमिकता के लिए 1940 में पेरियार रामस्वामी ने मद्रास प्रेसिडेंसी से हिंदी थोपने के विरोध में भाषाई आंदोलन किया। इस आंदोलन ने द्रमुक पार्टियों को जन्म दिया। 1980 के दशक में कर्नाटक ने भी गोकाक आंदोलन देखा जो कन्नड़ को पुनः प्राथमिकता दिलाने का प्रयास था।
हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा
भारत की इस भाषाई अर्थात सांस्कृतिक विविधता के चलते ही 1962 में कोठारी कमीशन की सिफ़ारिश आई कि भारतीय शिक्षा नीति त्रिभाषा आधारित होनी चाहिये। इस के तहत हर बच्चा एक विश्व-भाषा (अंग्रेजी) एक मातृभाषा (स्थानीय या हिंदी ) तथा एक कोई अन्य राज्य की भाषा (हिंदी या अन्य क्षेत्रीय) पढ़े। आज भी हर दक्षिण भारतीय छात्र स्कूलों में तीन भाषाएँ पढ़ता है। जबकि उत्तर भारतीय छात्र दो ही भाषा पढ़ते हैं। सनद रहे कि भारत के संविधान की किसी धारा में कोई राष्ट्रभाषा का उल्लेख नहीं है। हिंदी भाषा को केवल राजभाषा के रूप में माना गया। धारा 351 हिंदी को परिभाषित करते हुए यह स्पष्ट कहती है कि वह भारत की समस्त सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बनने हेतु भारत की अन्य भाषाओं को आत्मसात करेगी। ऐसे में 'नई शिक्षा' के बहाने उत्तर भारत मात्र में प्रयोग में लाई जानेवाली हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में थोपने की कवायद देश भर में मधुमक्खी के अनगिनत छत्तों पर एक साथ पत्थर मारने की मूर्खता है जो भारत की संघीय व्यवस्था के मूल तानेबाने को तार-तार कर देगी। इसका मुखर विरोध राज्य पहले भी कर चुके हैं।
भाषा एक संस्कृति
बीजेपी को यह समझना होगा कि भाषा कोई लिपि या बोली न होकर एक संस्कृति होती है। दक्षिण या पूर्वोत्तर भारत की अपनी विशिष्ट गौरवशाली संस्कृति एवं भाषाओं का इतिहास प्राग्वैदिक काल से ही चला आ रहा है। तमिल के पास अगर हिंदी से कई गुना प्राचीन 2500 वर्षों का इतिहास रहा है तो कन्नड़ इतनी समृद्ध भाषा है जिसमें वस्तुओं के लिए नपुंसक लिंग तक का प्रयोग होता है। हिंदी में तो एक पत्थर गिरता है पुल्लिंग में तो उसी पत्थर की दीवार गिरते-गिरते स्त्रीलिंग हो जाती है। ऐसे में बीजेपी की नई शिक्षा नीति के बहाने हिंदी को स्कूली पाठ्यक्रम में अनिवार्य करना उसकी भारतीय संस्कृति की प्राचीन विविधता पर जबरन एकरूपता थोपने का ख़तरनाक प्रयास है। जिसका मूल उद्देश्य है संघीय व्यवस्था को तोड़कर तानाशाही एकरूपता लाना।
बीजेपी यदि सांस्कृतिक गौरव के बारे में ईमानदार है तो उसे गाँधी के हिंदी एवं देशप्रेम से सीखना चाहिए की कैसे भारत हिंदी प्रचार सभा आज 2019 में भी सम्पूर्ण दक्षिण भारत में सालाना पाँच लाख से अधिक विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाती है। लेकिन डंडे के ज़ोर से नहीं। भाषा नोट जैसी कोई मूर्त वस्तु नहीं है कि रातोंरात नोटबंदी कर दी जाए, भाषा हर समाज की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत होती है जिसे किसी भी तरीक़े से क़ानून के माध्यम से नहीं थोपा जा सकता।