ईरान में नई सरकार: इब्राहीम रईसी का चुनाव ईरान के खुलने का संकेत है या…?
इब्राहीम रईसी ईरान के नए राष्ट्रपति चुने गए हैं। पिछले शुक्रवार को हुए राष्ट्रपतीय चुनाव में उन्हें 62 प्रतिशत वोट मिले। निवर्तमान राष्ट्रपति हसन रूहानी दो कार्यकाल पूरे कर लेने के कारण चुनाव नहीं लड़ सकते थे। केवल 48.8 प्रतिशत लोगों ने वोट डाले जो इस्लामी क्रांति के बाद से हुए अब तक के चुनावों में सबसे कम है। चुनाव प्रेक्षकों को तो इससे भी कम मतदान की आशंका थी। क्योंकि लोगों में कोई उत्साह नहीं था।
ईरान के राष्ट्रपतीय चुनावों में आम तौर पर धार्मिक कट्टरपंथी और उदारपंथी उम्मीदवारों के बीच टक्कर होती आई है। इस बार के चुनाव के लिए भी लगभग 600 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे। लेकिन ईरान में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने के लिए देश की गार्डियन काउंसिल या शूरा-ए-निगेहबान के अनुमोदन की ज़रूरत भी होती है। इस बार परिषद ने केवल सात उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने की अनुमति दी जिनमें से एक भी उम्मीदवार सुधारवादी या उदारपंथी नहीं था।
इसकी वजह यह मानी जा रही है कि देश के सर्वोच्च धर्मनेता अयातोल्लाह ख़मेनेई सत्ता पर अपनी पकड़ और मज़बूत करना चाहते थे। इसलिए सुधारवादी और उदारपंथी अली लरेजानी जैसे उम्मीदवारों को बड़ी चतुराई से अयोग्य घोषित करके चुनाव से बाहर कर दिया गया। सात अनुमोदित उम्मीदवारों में से भी तीन मैदान छोड़ गए। इसलिए अंत में कुल चार उम्मीदवार ही मैदान में बचे। आर्थिक प्रतिबंधों के कारण लंबे समय से चली आ रही मंदी, भयंकर महँगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और कोरोना की मार से उकताए हुए लोग आर्थिक सुधारों की उम्मीद लगाए बैठे थे। कट्टरपंथी रईसी के अलावा कोई विकल्प न देखकर वे वोट डालने नहीं आए।
सर्वोच्च धर्मनेता अयातोल्लाह खमेनेई को इसी बात की चिंता थी कि जितना कम मतदान होगा नए राष्ट्रपति की वैधता पर उतने ही सवाल उठेंगे, ख़ासकर अमेरिका और पश्चिमी देशों की तरफ़ से। अमेरिका ने अपनी प्रतिक्रिया में कह भी दिया है कि उन्हें इस बात का ‘खेद है कि ईरानी लोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया में भाग नहीं ले पाए।’ अयातोल्लाह ख़मेनेई को इस बात की चिंता है कि चुनाव में भाग ने लेने वाले लोगों का रोष 2019 जैसे प्रदर्शनों में न बदल जाए जिनमें लगभग 300 लोग मारे गए थे।
अब सवाल उठता है कि यह सब जानते हुए भी जोड़-तोड़ बिठा कर रईसी को जिताने का घरेलू मक़सद क्या है और इसके क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिणाम क्या हो सकते हैं। घरेलू मक़सद की बात करें तो अयातोल्लाह ख़मेनेई 82 वर्ष के हो चले हैं। उन्हें ईरान में मौलवी सत्ता बनाए रखने के लिए अपना वारिस तय करने और यह बदलाव सुचारु रूप से लाने के लिए सरकार और संसद पर कट्टरपंथी पकड़ बनाने की ज़रूरत थी। इसीलिए उन्होंने अपने विश्वासपात्र इब्राहीम रईसी को राष्ट्रपति बनाया है।
साठ वर्ष के इब्राहीम रईसी काली पगड़ी बाँधने वाले सय्यद हैं जिन्हें पैगम्बर मोहम्मद का वंशज माना जाता है। वे 25 साल की उम्र से जज और न्यायिक अभियोक्ता का काम करते आ रहे हैं और चुनाव से पहले ईरानी न्यायपालिका के प्रमुख और मुख्य न्यायाधीश थे।
वे ईरान के सर्वोच्च धर्मनेता को चुनने वाली मजलिस-ए-रहबरी के सदस्य और अध्यक्ष भी रह चुके हैं। माना जाता है कि अयातोल्लाह ख़मेनेई उन्हें अपने वारिस के रूप में तैयार कर रहे हैं। रईसी ईरान के सबसे बड़े धार्मिक केंद्र मशहद शहर से हैं जहाँ आठवें शिया इमाम अली रज़ा की दरगाह आस्तान-ए-क़ुद्स है। वे दरगाह के और ईरान की सबसे धनी समाजसेवी संस्था संरक्षक भी रह चुके हैं।
इब्राहीम रईसी को राजनीति और कूटनीति का अनुभव नहीं है। इसलिए कुछ कूटनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि उन्हें राष्ट्रपति बनाने का असली मक़सद अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ रिश्ते सामान्य करना नहीं बल्कि पहले संविधान संशोधन लाकर ईरान में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली लाना है। मौजूदा राष्ट्रपतीय प्रणाली में राष्ट्रपति करोड़ों लोगों के वोट हासिल कर जीतता है। इसलिए वह धर्मनेता और शूरा-ए-निगेहबान के लिए चुनौती बन सकता है। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में प्रधानमंत्री मजलिस या संसद में कुछ-कुछ हज़ार वोटों से जीत कर आने वाले सांसदों का नेता होगा जिसकी लोकप्रियता की ताक़त कम होगी।
देश के सर्वोच्च धर्मनेता और उसके द्वारा नामजद शूरा-ए-निगेहबान के लिए प्रधानमंत्री द्वारा चलाई जाने वाली सरकार को काबू में रखना राष्ट्रपति के नेतृत्व वाली सरकार की बनिस्बत आसान होगा। ख़ुद मुख्य जज और न्यायपालिका प्रमुख रहने के कारण रईसी भी सुधार करने के बजाय अयातोल्लाह की तरह ही इस्लामी न्याय व्यवस्था को क़ायम रखने के हक़ में रहे हैं। ताकि जन-असंतोष को कड़ी सज़ाओं से काबू में रखा जा सके।
एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसी बड़ी मानवाधिकार संस्थाएँ इब्राहीम रईसी को मानवाधिकार हनन का दोषी मानती रही हैं क्योंकि वे चार जजों के उस कुख्यात आयोग के सदस्य थे जिसने 1988 में हज़ारों राजनीतिक बंदियों को मौत की सज़ाएँ दी थीं। इसीलिए अमेरिका ने उन पर प्रतिबंध लगा रखे हैं।
इस्राइली विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इब्राहीम रईसी को अपने ट्वीट में ‘तेहरान का कसाई’ तक कह डाला है। उनकी कट्टरपंथी की छवि से उनके पड़ोसी और सुन्नी प्रतिद्वन्द्वी सऊदी अरब की चिंता बढ़ना भी स्वाभाविक है।
अब सवाल उठता है कि यह सब जानते हुए अयातोल्लाह ख़मेनेई ने इतना बड़ा जोख़िम मोल क्यों लिया है? यदि जोड़-तोड़ से काम न लिया होता तो स्वाभाविक था कि लोग बड़ी संख्या में वोट देने आते और कोई न कोई सुधारवादी या उदारपंथी जीतता जो अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों का भरोसा जीतने, प्रतिबंधों को हटवाने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश करता। इब्राहीम रईसी ने भ्रष्टाचार ख़त्म करने और अर्थव्यवस्था में जान डालकर रोज़गार पैदा करने की बात तो की है। पर यह सब होगा कैसे? और यदि न हुआ तो लोग 2109 की तरह सड़कों पर नहीं उतरेंगे इसकी क्या गारंटी है।
मुझे लगता है कि अयातोल्लाह ने चीन का रास्ता अपनाया है। उनको लगता है कुछ-न-कुछ धरने प्रदर्शन तो होकर रहेंगे। उनकी रोकथाम के लिए पहले सत्ता पर पकड़ मज़बूत करना ज़रूरी है। राजनीतिक और आर्थिक सुधार प्रदर्शनों को रोकने की जगह हवा भी दे सकते हैं। ये शेर की सवारी की तरह है। रही आर्थिक प्रतिबंध हटवाने की बात तो उसके लिए अयातोल्लाह ख़ुद परमाणु वार्ताओं की बागडोर थामे हुए हैं। इब्राहीम रईसी के चुनाव के साथ-साथ वियना में अमेरिका और यूरोप के पाँच देशों के साथ बातचीत जारी है।
इब्राहीम रईसी को अगस्त में पद संभालना है। इस छह सप्ताह के भीतर परमाणु समझौते को बहाल करने की कोशिशें की जाएँगी। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को भी इस बात का एहसास है कि रईसी के बागडोर संभालते ही जिस तरह की बयानबाज़ी शुरू होगी उसके चलते समझौते को बहाल करना और भी कठिन हो जाएगा। बाइडन को इस बात का भी एहसास है परमाणु समझौते से हाथ खींचकर ईरानी उदारपंथियों की स्थिति कमज़ोर करने का दोष भी पिछली अमेरिकी सरकार का ही है। यदि वे समझौता बहाल कर पाते हैं तो जाते-जाते ही सही हसन रूहानी और उदारपंथियों को थोड़ा संबल मिलेगा।
दूसरी तरफ़ अयातोल्लाह ख़मेनेई को दोनों हाथों में लड्डू नज़र आ रहे हैं। यदि समझौता बहाल हो जाता है तो वे इसे ईरान के अपनी बात पर डटे रहने और इब्राहीम रईसी के प्रभाव की जीत मानेंगे। यदि समझौता नहीं हो पाता है तो नाकामी और सारी आर्थिक बदहाली का ठीकरा हसन रूहानी और उदारपंथियों के सिर फोड़ दिया जाएगा। मुश्किल यह है कि इस सारे गणित को बिगाड़ने के लिए और भी कई ताक़तें पूरा ज़ोर लगाएँगी। उनमें सबसे ऊपर इज़राइल है।
इज़राइल को ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर शुरू से ही आपत्तियाँ रही हैं और अब तो वहाँ अति दक्षिणपंथी नफ़्ताली बैनेट की सरकार बन गई है जो इस समझौते की बहाली में रुकावटें डालने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी।
दूसरी तरफ़ ईरान का पड़ोसी और दुश्मन सऊदी अरब है जिसे अमेरिका के सारे आश्वासनों के बावजूद ईरान पर भरोसा नहीं है। यमन में चल रहा गृहयुद्ध और अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका और मित्र देशों के चले जाने के बाद तालिबान के सत्ता में लौटने की आहट इस तस्वीर को और पेचीदा बना देती है। अमेरिका और पश्चिमी देशों की कोशिश होगी कि परमाणु समझौते की बहाली के लिए ईरान से यमन के हूती विद्रोहियों और ग़ज़ा की हमास सरकार का समर्थन बंद करने का आश्वासन लें जिससे सऊदी अरब और इज़राइल को आश्वासन दिया जा सके। लेकिन ईरान के लिए ऐसा कोई भी आश्वासन देना अपने दोष को स्वीकार करना है इसलिए अयातोल्लाह के वार्ताकार ऐसा हरगिज़ नहीं करेंगे।
अमेरिका और सऊदी अरब यह भी चाहते हैं कि ईरान पड़ोसी इराक में शिया पार्टियों को और सीरिया में शिया विद्रोहियों को और लेबनान में हेजबोल्लाह को समर्थन और सहायता देना बंद करे। ईरान चाहेगा कि अमेरिका यह सुनिश्चित करे कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान अशरफ़ ग़नी की सरकार के साथ सुलह समझौते के साथ सरकार बनाएँ न कि मुजाहिदीन की तरह आपस में लड़-झगड़ कर। उसे अफ़ग़ानिस्तान के हज़ारा शिया अल्पसंख्यकों के भविष्य की भी चिंता है। गृहयुद्ध छिड़ने पर बड़ी संख्या में हज़ारा पलायन हो सकता है और ईरान की पूर्वी सीमा पर शरणार्थी संकट खड़ा हो सकता है।
लेकिन ये सब बाद की बातें हैं। ईरान की असली चिंता अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंध हैं जिनके चलते वह अपना तेल नहीं बेच पा रहा है और तेल के चढ़ते दामों के फ़ायदे से वंचित है। ईरान की दो बड़ी माँगें हैं। एक तो वह परमाणु समझौते में दिए गए आर्थिक प्रतिबंध हटाने के प्रावधानों से संतुष्ट नहीं है। वह उनमें और ढील चाहता है। दूसरे वह ऐसी कोई गारंटी चाहता है जिससे कि अमेरिका में आने वाली नई सरकारें समझौते को रद्द न कर सकें। बाइडन सरकार पहली माँग पर कुछ कर सकती है लेकिन दूसरी माँग पर कुछ भी करने की स्थिति में नहीं है क्योंकि समझौते को स्थाई बनाने के लिए सीनेट में दो तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी जो बाइडन सरकार क्या कोई सरकार जुटा पाने की स्थिति में नहीं है।
बल्कि समझौते को यथावत बहाल करने के लिए भी बाइडन सरकार को ईरान से कुछ और आश्वासन लेने पड़ेंगे जिनके बिना वे अमेरिका में विपक्षियों और अपने आलोचकों का मुँह बंद नहीं कर पाएँगे। सबसे पहला आश्वासन समझौते की मियाद को नौ साल से आगे बढ़ाने का है। मौजूदा समझौता 2030 तक ही है जिसके बाद ईरान परिष्कृत परमाणु ईंधन बनाने के लिए स्वतंत्र होगा। इज़राइल को इस पर कड़ी आपत्ति है इसलिए अब बाइडन प्रशासन इसकी अवधि और आगे बढ़ाने की माँग कर रहा है। दूसरी माँग ईरान के मिसाइल कार्यक्रम को जाँच के दायरे में लाने के बारे में है।
रईसी के राष्ट्रपति बनने और आगे चलकर सर्वोच्च धर्मनेता बनने का रास्ता साफ़ हो जाने की वजह से ईरान पहली शर्त पूरी करने को तो शायद तैयार हो जाए लेकिन दूसरी शर्त के लिए राज़ी होना अमेरिका के सामने घुटने टेकने जैसा होगा जो रईसी की कट्टरपंथी सरकार को शायद ही मंजूर हो सके।
जो भी हो, इस समय पूरी दुनिया की नज़रें वियना में चल रही ईरान अमेरिका परमाणु वार्ताओं पर टिकी हैं। समझौता बहाल होने पर तेल के दामों में गिरावट आएगी जिसका फ़ायदा कोरोना की मारी अर्थव्यवस्थाओं को होगा जिनमें भारत सबसे आगे है। समझौता बहाल होने के बाद भारत ईरान से सस्ते दामों पर तेल और गैस का आयात शुरू कर पाएगा। समझौता होने की सूरत में यमन और सीरिया के गृहयुद्धों के भी समाप्त होने या ठंडा पड़ने के रास्ते खुलेंगे बशर्ते कि इज़राइल ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर कोई और हमला करा कर नई रुकावट न खड़ी कर दे। हेजबोल्लाह और हमास भी इज़राइल में कोई और गड़बड़ी फैला कर माहौल बिगाड़ सकते हैं। इसलिए रईसी साहब जीत तो गए हैं लेकिन अभी जुलाई के अंत तक बहुत कुछ दाव पर लगा है।