कैसे मुंबई में एक अफ़सर ने सूझबूझ से बचाई हज़ारों ज़िंदगियाँ!
कोरोना की दूसरी लहर से देशभर में हाहाकार मचा हुआ है। अस्पतालों में ऑक्सीजन, दवा और अस्पताल बेड की कमी के चलते हर दिन हजारों लोगों की मौत। श्मशान और कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार के लिए लम्बी-लम्बी कतारें। लकड़ी के अभाव में नदियों में शवों को बहाने के लिए मजबूर लोग आये दिन समाचारों में सुर्खियां बने हुए हैं। ऐसा लगता है कि सिर्फ स्वास्थ्य ढांचा ही नहीं पूरा सिस्टम और सरकार विफल हो गयी है। ऑक्सीजन और दवा के लिए अदालतों में याचिकाएँ दायर हो रही हैं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सरकार से सवाल पूछ रहे हैं और निर्देश भी जारी कर रहे हैं लेकिन स्थिति में कोई सुधार नज़र नहीं आता। चारों तरफ़ निराशा के इस माहौल में जब देश के सुप्रीम कोर्ट ने मुंबई महानगरपालिका के काम की तारीफ़ करते हुए ‘मुंबई मॉडल’ की बात की तो यह सवाल उठने लगा कि क्या सही प्रबंधन से कोरोना को नियंत्रित किया जा सकता है या हराया जा सकता है?
दरअसल, कोरोना की पहली लहर रही हो या दूसरी मुंबई और पूरे महाराष्ट्र में कोरोना के आंकड़े हमेशा ही सर्वाधिक रहे हैं। देश में होने वाले कोरोना के कुल संक्रमण में महाराष्ट्र का हिस्सा 20 से 30 फ़ीसदी के आसपास रहता था। कोरोना की दूसरी लहर शुरू हुई तो मुंबई में प्रतिदिन संक्रमितों की संख्या आंकड़ा 11 हजार को पार कर चुका था और संक्रमण दर करीब 30 के पास थी। लेकिन आज यह दर 0.3 है जो यह दर्शाता है कि मुंबई जैसे भीड़ भाड़ वाले महानगर ने कोरोना पर जीत नहीं तो नियंत्रण तो पा ही लिया है।
देश की राजधानी दिल्ली हो या अन्य प्रदेशों की राजधानी या महानगर जिस तरह से कोरोना की इस दूसरी लहर में ऑक्सीजन, दवा और अस्पताल बेड के लिए मारामारी या अव्यवस्था देखने को मिल रही है वह मुंबई में नहीं दिखी? ऐसा कैसे हुआ?
कोरोना के ख़िलाफ़ मुंबई मॉडल की कहानी महानगरपालिका आयुक्त इकबाल सिंह चहल कुछ यूँ बताते हैं। उन्होंने कहा कि इस सफलता के पीछे सही प्रबंधन और विकेंद्रीकृत व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका है। मुंबई में हॉस्पिटल बेड और ऑक्सीजन की उपलब्धता को बनाये रखने के लिए क्राइसिस मैनेजमेंट टीमें बनाई गईं। उन अस्पतालों की गहन मॉनिटरिंग की गई जहाँ से आपात मदद की सबसे ज़्यादा कॉल आती थी। क्राइसिस टीमों ने अस्पतालों के संग मिलकर काम किया और सरप्लस ऑक्सीजन (अतिरिक्त ऑक्सीजन) को उन अस्पताल में शिफ्ट करते रहे जहाँ उसकी कमी थी। जो अस्पताल अपनी ऑक्सीजन की क्षमता से ज़्यादा मरीज भर्ती कर रहे थे उन्हें ऐसा न करने को कहा गया।
इकबाल सिंह चहल का बयान इस बात को दर्शाता है कि आपदा या महामारी काल में सबसे बड़ा हथियार सही प्रबंधन और शक्तियों का विकेन्द्रीकरण है। इन दोनों ही बातों का अभाव हमें राष्ट्रीय स्तर पर नज़र आता है। कोरोना की इस लड़ाई में केंद्र सरकार ने सभी अधिकार अपने अधीन रखे। महामारी की दूसरी लहर जब परवान चढ़ रही थी उस दौरान देश के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और उनकी कैबिनेट के अधिकांश मंत्रियों का चुनाव प्रचार में व्यस्त रहना इस बात का इशारा करते हैं कि जब प्रबंधन करने का समय था ‘सरकार’ कहीं और व्यस्त थी।
विश्व में सबसे अधिक ऑक्सीजन बनाने वाले देश में ऑक्सीजन की कमी की वजह से अस्पतालों में मरीजों की मरने की दर्जनों घटनाएँ होना बुरे प्रबंधन का ही परिणाम हो सकती है।
दरअसल, कोरोना के मुंबई मॉडल की नींव पहली लहर के दौरान ही पड़ गयी थी। एशिया की सबसे बड़ी और घनी झोपड़पट्टी ‘धारावी’ में उस समय संक्रमण तेजी से फैल रहा था। सवाल उठने लगे कि यदि यह महानगर की झोपड़पट्टियों में पहुंच गया तो स्थिति भयावह हो जाएगी क्योंकि शहर की क़रीब पैंसठ प्रतिशत जनसँख्या उनमें रहती है और जहां सोशल डिस्टेंसिंग जैसे किसी भी नियम को पालन करना मुश्किल ही नहीं, असंभव जैसा है। इसी दौरान उद्धव ठाकरे सरकार ने महानगरपालिका के आयुक्त प्रवीण परदेशी की बदली कर इकबाल सिंह चहल को कमान सौंपी। परदेशी देवेंद्र फडणवीस के क़रीबी अधिकारी माने जाते थे। वे काफी समय तक फडणवीस के अतिरिक्त सचिव भी थे लिहाजा मुद्दे ने राजनीतिक रंग भी लिया। इकबाल सिंह चहल की छवि कठोर निर्णय लेने वाले अधिकारी की थी। क्योंकि वे धारावी झोपड़पट्टी पुनर्विकास प्रकल्प के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) भी रह चुके थे इसलिए सरकार ने उन्हें कमान सौंपना बेहतर समझा था।
इकबाल चहल साल 2004 में मुंबई मैराथन की रेस में भी हिस्सा ले चुके थे और वे अच्छे धावक हैं। उन्होंने पहले ही दिन से धारावी तथा मुंबई की अन्य झोपड़पट्टियों का पैदल दौरा करना शुरू किया और एक असंभव से दिख रहे काम को संभव करने में सफलता हासिल की।
अब कोरोना की दूसरी लहर के बीच ऑक्सीजन प्रबंधन को लेकर बृहन्मुंबई महानगरपालिका के 'मुंबई मॉडल' की ख़ूब तारीफ़ हो रही है। तारीफ़ करने वालों में सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है। सिर्फ़ तारीफ़ ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली और अन्य राज्यों को ये निर्देश भी दिया है कि वो ये देखें कि मुंबई ने लोगों की जान बचाने के लिए क्या किया है। दरअसल, पिछले साल (2020 ) मई-जून के महीने में मुंबई में भी कोरोना महामारी व्यापक रूप से फैली थी और महानगर के अस्पतालों में ऑक्सीजन की मांग अचानक बढ़ गई थी। उस समय बृहन्मुंबई महानगरपालिका के अतिरिक्त आयुक्त पी वेलारासू को ऑक्सीजन प्रबंधन की ज़िम्मेदारी दी गई।
वेलरासु कहते हैं, ‘अस्पतालों में ऑक्सीजन की जो व्यवस्था होती है, वो सामान्य आईसीयू के लिए होती है। लेकिन यह देखा गया कि कोविड की वजह से ऑक्सीजन की मांग दोगुनी बढ़ गई थी।’ इस मांग को पूरा करने के लिए बीएमसी ने 13 हज़ार लीटर संग्रहण क्षमता के ऑक्सीजन प्लांट्स लगाए। महानगर में ऐसे 21 ऑक्सीजन प्लांट लगाए गए। इससे शहर में ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित नहीं हुई। अगर ऑक्सीजन टैंकर्स के अस्पतालों तक पहुँचने में देरी हुई तो भी वहाँ ऑक्सीजन की आपूर्ति जारी रही।’ यह बात थी कोरोना की पहली लहर के दौरान की। लेकिन मार्च, 2021 में मुंबई शहर में जब दूसरी लहर आयी तो कोरोना से संक्रमित मरीज़ों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। साथ ही ऑक्सीजन की मांग भी बढ़ने लगी। महामारी की पहली लहर के दौरान ऑक्सीजन की मांग जहां प्रतिदिन 200 से 210 मीट्रिक टन थी, वो दूसरी लहर में बढ़कर 280 मीट्रिक टन रोज़ाना हो गई। और ऐसे में महानगर पालिका द्वारा पहली लहर के दौरान बनाये गए ऑक्सीजन प्लांट्स से मुंबई के अस्पतालों को बहुत सहारा मिला।
बीएमसी ने महामारी की पहली लहर के अनुभव से कुछ सबक़ सीखे थे जैसे कि कोविड के इलाज में ऑक्सीजन की अहमियत बहुत बढ़ जाती है। और इन्हीं अनुभव से उसने ऑक्सीजन की मांग, ज़रूरत, ट्रांसपोर्ट और समय पर आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए एक ख़ास टीम बनाई। मनपा के अतिरिक्त आयुक्त पी वेलारासू बताते हैं, ‘फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन विभाग ने छह अधिकारियों की नियुक्ति की जिनका काम वार्ड अधिकारियों और ऑक्सीजन उत्पादकों के बीच समन्वय स्थापित करना था। अस्पतालों में ऑक्सीजन की उपलब्धता पर नज़र रखने के लिए एक व्यक्ति को अलग से लगाया गया। वार्ड में ऑक्सीजन के प्रबंधन के लिए दो अफसरों को ज़िम्मेदारी दी गई।’
इनमें से अधिकाँश अधिकारी आईएएस दर्जे के थे और उन्हें पर्याप्त अधिकार भी दिए गए थे। टीम राज्य के बाहर से आने वाले ऑक्सीजन टैंकरों पर लगातार नज़र बनाए रहती थी। उन्होंने कहा कि वे स्वयं, इस बात पर ध्यान रखते थे कि ये टैंकर कब पहुँचेंगे, कहाँ जाएँगे और किस अस्पताल में जाएँगे। उन्होंने बताया कि अप्रैल के तीसरे हफ्ते में ही अस्पतालों से ऑक्सीजन की मदद या अतिरिक्त आपूर्ति की मांग होने लगी थी। आपूर्ति बरकार रखनी थी और वह भी वक़्त पर। क्योंकि ऑक्सीजन टैंकर के देर का मतलब था किसी बड़ी अनहोनी को बुलावा देना। ऐसे ही हालात 17 अप्रैल को पैदा हुए जब मुंबई में ऑक्सीजन के अभाव में एक बड़ी दुर्घटना होने से बच गई। वेलारासू बताते हैं,
‘महानगर के छह अस्पतालों में ऑक्सीजन की आपूर्ति कम पड़ने लगी थी। बढ़ी हुई मांग के कारण ऑक्सीजन कम पड़ रही थी। हमने तुरंत तय किया कि 168 मरीज़ों को जम्बो कोविड सेंटर में शिफ़्ट किया जाए और ऐसा किया भी। ऑक्सीजन की मांग तेजी से बढ़ने की वजह से ऐसे हालात उत्पन्न हुए थे लेकिन हमने इस समस्या को दो दिन में ही दूर कर दिया। अस्पतालों की ऑक्सीजन आपूर्ति पर निगरानी बनाए रखने के अलावा ऑक्सीजन नर्स सिस्टम की व्यवस्था शुरू की गई। ऑक्सीजन नर्स को वार्ड में प्रति मरीज का ऑक्सीजन लेवल 96 तक रखने की जिम्मेदारी दी गई थी। लगातार निगरानी रखने की वजह से ऑक्सीजन बर्बाद होने से बचा। ज़रूरत के हिसाब से ही ऑक्सीजन का इस्तेमाल किया गया। ऑक्सीजन के इस्तेमाल को लेकर डॉक्टर्स को विशेष निर्देश दिए गए। इसलिए ऑक्सीजन का सीमित इस्तेमाल ही हुआ और ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं हुई।’
टास्क फ़ोर्स के निर्देश के अनुसार, ऑक्सीजन का फ़्लो 93 से 95 के बीच रखा गया था। असल में ऑक्सीजन की मांग अचानक बढ़ जाने के कारण छोटे अस्पतालों को ज़्यादा परेशानी होने लगी थी। इस समस्या से निपटने के लिए बीएमसी ने छह जगहों पर 200 ऑक्सीजन सिलिंडर्स के साथ गाड़ियाँ खड़ी कर दी थी।
जब कभी भी ऑक्सीजन की मांग आती, इन गाड़ियों को अस्पताल में भेज दिया जाता था। शुरू में दिन में एक बार ऑक्सीजन भेजते थे लेकिन जब मांग बढ़ी तो हर 13-14 घंटे पर ऑक्सीजन भेजनी पड़ती थी।
बीएमसी अधिकारियों ने प्राइवेट अस्पतालों को 20% के आसपास ऑक्सीजन रिजर्व रखने की सलाह दी थी और साथ ही साथ यह भरोसा दिया था कि ज़रूरत के हिसाब से ऑक्सीजन आपूर्ति की जाएगी। बीएमसी ने यह काम शांति से किया। ऐसे में जमाखोरी को रोकने में मदद मिली। मुंबई में 30,000 मौजूद बेड में से क़रीब 40% बेड ऑक्सीजन सप्लाई से युक्त है। मुंबई में आम सिलेंडर की जगह जंबो सिलेंडर का इस्तेमाल किया गया। जिनकी क्षमता आम सिलेंडर से 10 गुना ज़्यादा होती है। सिलेंडर बेस्ड सिस्टम को पाइप बेस्ड सिस्टम बनाया गया। इस काम की शुरुआत जनवरी में ही शुरू कर दी गई थी।
बीएमसी को कोरोना वायरस की दूसरी लहर का अंदाज़ा था। इसलिए दूसरी लहर में सभी बेड को इसकी आपूर्ति हो सके, ऐसे प्रबंध किए गए। अस्पताल को सिलेंडरों से सप्लाई की बजाए स्टोरेज टैंक से सप्लाई करने के लिए तैयार किया गया। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जिस बात का बार-बार जिक्र करते हैं ठीक उसी तरह मुंबई में भी एक भी ऑक्सीजन बनाने वाला प्लांट नहीं था। इसलिए मुंबई में जिस ऑक्सीजन की सप्लाई हो रही थी, वो शहर के बाहर से आ रही थी।
अब बृहन्मुंबई महानगरपालिका महामारी की तीसरी लहर का सामना करने के लिए तैयारी कर रही है। इसके लिए उसने तय किया कि ऑक्सीजन के और प्लांट लगाए जाएंगे। मुंबई के अस्पतालों और जम्बो कोविड हॉस्पिटल में ऑक्सीजन प्लांट लगाए जाने की योजना है और ये काम अगले दो महीनों में पूरा कर लिया जाएगा, ऐसा महानगरपालिका का दावा है। बीएमसी की योजना मुंबई के 12 अस्पतालों में 16 ऑक्सीजन प्लांट्स लगाने की है। इसकी ऑक्सीजन उत्पादन करने की क्षमता 45 मीट्रिक टन की होगी। मुंबई महानगरपालिका ने ऑक्सीजन के साथ-साथ अस्पतालों में बेड के लिए भी रणनीति बनाई। पालिका के अतिरिक्त आयुक्त सुरेश काकाणी बताते हैं, ‘अप्रैल के दूसरे हफ़्ते में कोविड मरीज़ों के लिए वेंटिलेटर्स और आईसीयू बेड्स की मांग काफ़ी बढ़ गई थी। 13 अप्रैल तक मुंबई में केवल 15 वेंटिलेटर्स और 51 आईसीयू बेड बचे थे। मार्च 2021 के आख़िर तक आईसीयू बेड की संख्या 1200 की थी जो अब बढ़ाकर 3000 बेड की हो गयी है।’
काकाणी कहते हैं कि दिसंबर 2020 में मरीज़ों की संख्या कम हो गई थी लेकिन हमने अस्पतालों में बेड की संख्या बढ़ाना जारी रखा था। जम्बो कोविड सेंटर्स पर उपलब्ध बेड को हमने बरकरार रखा। इसलिए अप्रैल में जब दूसरी लहर अपने चरम पर थी तो हॉस्पिटल बेड की हमारे पास पर्याप्त उपलब्धता थी।
एमसी की एक अन्य अतिरिक्त आयुक्त अश्विनी भिडे को कोविड डैशबोर्ड का प्रभारी बनाया गया है। बीएमसी के कोविड डैशबोर्ड को लगातार अपडेट भी किया जा रहा है। इसकी वजह से लोगों को ताज़ा जानकारी मिल पा रही है।
कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान मरीज़ों को हॉस्पिटल बेड मुहैया कराने के लिए एक सिंगल कंट्रोल रूम बनाया गया था, इस वजह से काफ़ी भागदौड़ का माहौल रहा था लेकिन इस बार ऐसी स्थिति नहीं है। दूसरी लहर में मरीज़ों की संख्या काफ़ी बढ़ गई। एक कंट्रोल रूम काफ़ी नहीं रहा। इसलिए मरीज़ों को हॉस्पिटल बेड मुहैया कराने के लिए हरेक वार्ड में एक कंट्रोल रूम बनाया गया। इन कंट्रोल रूम में हरेक को रोज़ाना 500 से भी ज़्यादा फ़ोन कॉल आते हैं। लोग बेड की उपलब्धता के बारे में पूछते हैं, मदद मांगते हैं।
वार्ड के हिसाब से कंट्रोल रूम बनाने का फ़ायदा यह हुआ कि लोगों को उनके इलाक़े के अस्पतालों में ही बेड मिल जा रहा है। इस बार पूरे महानगर में एक भी मामला ऐसा सामने नहीं आया कि बेड नहीं मिल पाने के कारण किसी की मौत हो गयी हो।
महानगरपालिका के 24 वार्ड में 24 वॉर रूम बनाये गए और उन्हें 55 लैब से जोड़ दिया गया जहाँ से प्रतिदिन 10 हज़ार से ज़्यादा टेस्टिंग रिजल्ट आते थे। टेस्ट रिजल्ट पर ये स्थानीय वॉर रूम कड़ी नज़र रखते थे। वॉर रूम में 30 टेलीफोन कनेक्शन के साथ-साथ 10 डॉक्टर और 10 एंबुलेंस सेवा भी शामिल थी। 800 एसयूवी को एंबुलेंस में बदल दिया गया जिनकी निगरानी ऑनलाइन की जाती थी। ऑक्सीजन और बेड के अलावा कोरोना महामारी की दूसरी लहर में रेमडेसिविर, टोसिलिज़ुमाब जैसी दवाओं की मांग अचानक बढ़ गई थी। बाज़ार से दवाएँ ग़ायब और कालाबाज़ारी की ख़बरें आने लगी थीं। इन दवाओं को लेकर मुंबई में भी काफ़ी संदेह की स्थिति देखी गई थी। लेकिन मनपा ने रेमडेसिविर की दो लाख डोज़ का टेंडर निकाला। ऐसी योजना है कि हर हफ़्ते 50 हज़ार इंजेक्शन की सप्लाई होगी। जबकि इस समय 15 से 20 हज़ार इंजेक्शन की मांग है। रेमडेसिविर इंजेक्शन की ज़रूरत और क़ीमत का अंदाजा लगाकर काफी पहले ही दो लाख इंजेक्शनों का टेंडर निकाल दिया गया था। इससे किसी भी सार्वजनिक अस्पताल में इसकी कमी नहीं हुई।
इन सबके अलावा कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई का जो मुख्य हथियार है वह है ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की जांच। इकबाल सिंह चहल ने पहली लहर के दौरान जब मनपा आयुक्त का कामकाज संभाला था उन्होंने ‘चेज द वायरस’ यानी वायरस को ढूंढो या उसका पीछा करो नामक मुहिम शुरू की थी। इस मुहिम का मुख्य मक़सद था अधिक से अधिक लोगों की जाँच। धारावी में ही नहीं मुंबई की अधिकाँश झोपड़पट्टियों में महानगरपालिका ने बड़े पैमाने पर घर-घर जाकर लोगों की जांच की। दूसरी लहर के दौरान भी जांच को प्राथमिकता दी गयी और हर दिन क़रीब 40 हजार के आसपास सैम्पल्स जांचे गए। बीएमसी ने मुंबई में शॉपिंग मॉल्स, सब्जी मंडियों, मछली बाजार जैसे भीड़ वाले स्थानों पर मरीजों की टेस्टिंग के लिए कियोस्क लगाए। यहाँ आने वालों के स्वाब नमूने लिए गए और मात्र 15-20 मिनट में ही रैपिड एंटीजन टेस्ट करने के बाद संबंधित व्यक्ति की रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर उसे तत्काल आइसोलेट किया गया। इसी तरह दुकानदारों, व्यापारियों का आरटी-पीसीआर टेस्ट किया गया। इससे मरीजों का जल्दी पता लगाने में मदद मिली, ताकि वे कम से कम लोगों को संक्रमित करें।
काश! इसी तरह से देश के दूसरे इलाक़ों में काम होता तो हज़ारों ज़िंदगियाँ बच जातीं!