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महंगाई के दबाव में जनता की कराह सुनेगी मोदी सरकार?

महंगाई के दबाव में जनता की कराह सुनेगी मोदी सरकार?

पेट्रोल-डीजल-गैस के बेलगाम बढ़ते दाम का असर लोगों की जेब पर पड़ने लगा है और आने वाले दिनों में जेब का सुराख और बड़ा होता चला जाएगा। क्या मोदी सरकार महंगाई से जनता में उभरते जनाक्रोश को देख नहीं पा रही है? 

महंगाई से लड़ाई सरकार नहीं, जनता लड़ेगी। आम लोग जितना ज़्यादा महंगा सामान खरीदेंगे, उतनी अधिक जीडीपी बढ़ेगी। महंगाई का विरोध देशभक्ति नहीं, महंगाई का स्वागत देशभक्ति है। आप इस गफलत में क़तई न रहें कि कोई व्यंग्य पढ़ने को मिल गया है। दरअसल, देश में महंगाई को देखने का एक नया नज़रिया सामने आ चुका है। यह नज़रिया है- ‘देशभक्ति का सबूत दो, पेट्रोल पंप पर गाड़ी की टंकी फुल करो।’

क्या! अगर टंकी फुल नहीं करा सके, तो देशभक्त नहीं! 

इसका भी जवाब है नवोदित देशभक्तों के पास, 

‘उलटकर सोचना तो देशविरोधियों की आदत है। देशभक्त तो सीधा सोचते हैं। जितना ज़्यादा पेट्रोल-डीजल ख़र्च होगा, उतना अधिक केंद्र और राज्य सरकारों को राजस्व मिलेगा। उन्हीं पैसों से ग़रीबों का कल्याण होगा। तो हम क्यों नहीं पेट्रोल-डीजल पर ख़र्च करें।’

अर्थशास्त्र का आधुनिकतम ‘ज्ञान’ यही है। इस ज्ञान की खासियत है इससे जुड़ा ‘देशभक्ति का अध्याय’। ‘देशभक्ति’ के बगैर अर्थशास्त्र अधूरा है। कभी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान भी इन देशभक्तों की ढाल बना हुआ है जिसमें कहा गया था कि महंगाई मज़बूत अर्थव्यवस्था का प्रमाण होती है। लेकिन यह भी ज्ञान की ही बातें हैं। निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था में महंगाई को नमक माना जाता है और अर्थव्यवस्था की थाल में इसकी मौजूदगी स्वादानुसार ज़रूरी मानी जाती है। लेकिन यही महंगाई पूरी अर्थव्यवस्था का जायका बिगाड़ देती है जब इसकी मौजूदगी अपनी सीमा को तोड़ देती है।

महंगाई की बेचैनी

2009 में महंगाई की दर डबल डिजिट पार कर चुकी थी। फिर भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार की वापसी हुई थी। मगर, 2013 में महंगाई दर अधिकतम 13 फ़ीसदी तक जा पहुँची थी जो 2014 में भी 9 फ़ीसदी के क़रीब थी। तब यूपीए सरकार को विपक्ष ने पानी पिला दिया था और मनमोहन सरकार सत्ता से बेदखल हो गयी। 2009 और 2014 में मूलभूत अंतर था जनता का भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आंदोलित रहना। आंदोलित जनता महंगाई के नमक का स्वाद जल्द बता देती है।

एक बार फिर जनता आंदोलित है। इस बार कृषि क़ानूनों के विरोध और रोज़गार को लेकर जनता में बेचैनी है। पेट्रोल-डीजल-गैस के बेलगाम बढ़ते दाम का असर लोगों की जेब पर पड़ने लगा है और आने वाले दिनों में जेब का सुराख और बड़ा होता चला जाएगा।

क्या मोदी सरकार महंगाई से जनता में उभरते जनाक्रोश को देख नहीं पा रही है? 

आख़िर क्यों पेट्रोल-डीजल-गैस के दाम नियंत्रित नहीं कर पा रही है सरकार? 

जब नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आयी थी तब कच्चे तेल का आयात घरेलू ज़रूरतों का 77 प्रतिशत हुआ करता था। पीएम मोदी ने आयात घटाकर 67 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा था लेकिन यह आयात घटने के बजाए बढ़ता हुआ 84 फ़ीसदी तक जा पहुँचा है। इसकी वजह यह है कि पहले कच्चे तेल पर ख़र्च होने वाले डॉलर बचाने की चिंता थी, मगर बाद में यह चिंता गौण हो गयी। 

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सौभाग्यशाली मोदी, अभागी जनता!

अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत घटने से ख़ुद को देश के लिए सौभाग्यशाली समझने वाले पीएम नरेंद्र मोदी ने जल्द ही समझ लिया कि कच्चे तेल का आयात बढ़ाकर इस घटी हुई क़ीमत से आमदनी की जा सकती है। मगर, इस आइडिया के साथ ही मानो आम जनता की क़िस्मत फूट गयी। अभागी जनता की यह बदक़िस्मती रही कि यूपीए सरकार में कच्चे तेल से वसूली जा रही ड्यूटी अब छह साल बाद तीन गुणे से भी ज़्यादा हो चुकी है।

मूल्य गिरावट का फ़ायदा आम लोगों तक पहुँचने नहीं देकर ऐसा किया गया। तर्क यह रहा कि आमदनी ‘देश के काम’ आ रही है। अगर आम लोगों को यह अहसास हो जाए कि एक तरफ़ उनकी पॉकेटमारी हो रही थी और दूसरी तरफ़ 8 लाख करोड़ से ज़्यादा की रक़म अमीरों के लोन माफ करने में ख़र्च हो रहे थे तो ‘देश के काम आने’ की थ्योरी ही पलट जाएगी।

टंकी फुल करने में जो ‘देशभक्ति’ की भावना का कुआं और उसकी गहराई दिखाने की कोशिश हो रही है वास्तव में यह ‘अमीरभक्ति’ की भावना के सागर से अंदर ही अंदर जा मिली है। आम लोगों को यह महसूस करने में वक़्त लगेगा। लेकिन, लोग इसे महसूस किए बगैर नहीं रह सकेंगे।

अभी अधिक समय नहीं बीता है जब कोरोना पैकेज के नाम पर बीते वर्ष मोदी सरकार ने 30 लाख करोड़ के पैकेज का एलान किया था। इसका मक़सद देश की आबादी में धन के प्रवाह को बनाए रखना था। ग़रीबों तक धन कैसे पहुँचे कि अर्थव्यवस्था गतिशील हो सके और उपभोक्ता बाज़ार की नरमी दूर हो सके-यह सरकार की प्रमुख चिंता थी। यही चिंता अब ‘भक्तिगीत’ में बदलती दिख रही है।

‘ख़र्च करो, ख़र्च करो’ का शोर सुनाई पड़ रहा है। मगर, इस शोर में यह बात कहीं छिप जा रही है कि आम ग़रीबों के पास अब पैसे नहीं रह गये हैं। जीडीपी के मुक़ाबले बचत 2020 में 17 प्रतिशत के स्तर पर आ चुका है जो 2012 में 24 प्रतिशत था। कोरोना काल के बाद स्थिति और ख़राब हुई है। ऐसे में ग़रीबों के पास और ख़र्च करो वाला विकल्प नहीं है।

माताओं के आँसू पोंछने के संकल्प से भी यू टर्न!

उज्जवला योजना से गैस कनेक्शन पाकर खुश होने वाली ग़रीब आबादी अब गैस सिलेंडर खरीदने की स्थिति में नहीं रह गयी है। 800 से 900 रुपये प्रति सिलेंडर ख़र्च करने के बदले उसे धुएं वाला चूल्हा जलाना ही अधिक आसान रास्ता दिखता है। माताओं के आँसू पोंछने के संकल्प से भी मोदी सरकार उसी तरह पलटती दिख रही है जैसे पेट्रोल की ख़पत कम करके अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने के संकल्प से यह पीछे हट चुकी है।

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मोदी सरकार में 2014 के बाद से 2020 तक महंगाई दर लगातार 5 प्रतिशत से नीचे के स्तर पर बनी रही थी। यह इस सरकार का सबसे मज़बूत पक्ष माना जाता रहा है। 

मगर, नोटबंदी और जीएसटी के बाद अर्थव्यवस्था में चोट पड़ी उसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ा। रोज़गार में कमी, अमीरी-ग़रीबी की बढ़ती खाई, आय के असमान वितरण, ग़रीबी रेखा के नीचे लोगों का बढ़ता जाना और इस दौरान मंदी और कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था के नकारात्मक विकास ने आम लोगों की क्रयशक्ति को कमज़ोर कर दिया है। इस वजह से 5 प्रतिशत से कम की महंगाई दर भी सहने की स्थिति आम लोगों की नहीं रही है। 

मगर, अब तो महंगाई दर का ग्राफ बढ़ता दिख रहा है। पेट्रोल-डीजल-गैस की बढ़ती क़ीमत का असर दिखना शुरू हो चुका है और आने वाले समय में महंगाई की दर का ग्राफ भी ऊँचा उठता दिखेगा। महंगाई के दबाव से कराह रही जनता की आह तब भी क्या मोदी सरकार सुन पाएगी?

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