औद्योगिक उत्पादन में ऐतिहासिक गिरावट, देश के लिए डरावने संकेत
देश का औद्योगिक उत्पादन सूचकांक साढ़े छह साल में सबसे कम है। जुलाई के मुक़ाबले अगस्त में औद्योगिक विकास 4.3 प्रतिशत से घटकर -1.10 प्रतिशत पर आ गया है। इसमें ऋण यानी माइनस का निशान भी है। इसका मतलब हुआ कि वृद्धि होने की जगह कमी हुई है। विकास के भारी-भरकम दावों के बीच 1.10 प्रतिशत की वृद्धि ही बहुत कम थी पर तथ्य यह है कि 1.10 प्रतिशत की कमी हुई है। ये आँकड़े फ़रवरी 2013 के बाद सबसे कमज़ोर हैं। देश के 23 औद्योगिक समूहों में से 15 में निर्माण वृद्धि घटते हुए नकारात्मक हो गई है। इसे औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईपीआई) कहते हैं। इससे पता चलता है कि देश की अर्थव्यवस्था में औद्योगिक वृद्धि की क्या स्थिति है। माँग कम होने के कारण औद्योगिक उत्पादन कम हो जाना डरावना है। ख़ासकर तब जब अंतरराष्ट्रीय स्थिति भी अच्छी नहीं है।
देश में अर्थव्यवस्था की ख़राब हालत के लिए अंतरराष्ट्रीय स्थितियों की चाहे जितनी आड़ ली जाए, मुख्य कारण नोटबंदी और फिर बगैर तैयारी के जीएसटी लागू किया जाना ही है। रही-सही कसर ख़राब हालत में भी अधिकतम टैक्स वसूली के लिए ‘टैक्स आतंकवाद’ जैसी स्थिति बना देने से भी पूरी हो गई है। वैसे तो सरकार चलाना टीम वर्क है और टीम में हर तरह के विशेषज्ञ होने चाहिए पर देश में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद से ही देश एक व्यक्ति चला रहा है और उसका अर्थशास्त्र ज्ञान किसी से छिपा नहीं है। हर चीज को राजनीतिक सफलता से जोड़ने और मीडिया मैनेजमेंट को ही राजनीतिक सफलता का आधार मानने का यही हश्र होना था। हालाँकि, ख़बर है कि सरकार सूक्ष्म और लघु उद्योगों यानी एमएसएमई के लिए एक्शन प्लान तैयार कर रही है। सरकार जीडीपी में एमएसएमई की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत करना चाहती है। इस पर तेज़ी से काम हो रहा है।
8 नवंबर 2016 को नोटबंदी लागू होने के बाद 50 दिन में सपनों का भारत मिलने का वादा था। पर क्या मिला सबको पता है। इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी की संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि इंदिरा गाँधी के दौर में भी नोटबंदी का प्रस्ताव आया था पर वे इसे लागू नहीं कर पाईं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री ने नोटबंदी को अपनी राजनीतिक वीरता की तरह लिया और पार्टी या सरकार में किसी ने न उन्हें वास्तविकता बताई न ही उन्होंने जानने की ज़रूरत समझी। यह जानने के बाद भी नहीं कि नोटबंदी अपने मूल उद्देश्य में पूरी तरह नाकाम रही। कायदे से नोटबंदी की तारीफ़ करने के लिए एक सर्वेक्षण या अध्ययन जैसा कुछ करा लेना चाहिए था पर वह सब भी नहीं हुआ।
ऐसे में, नुक़सान की भरपाई कैसे होती। सरकारी नीतियाँ, संस्थान और साख स्थिर न हों तो उसका कुछ किया नहीं जा सकता है और हज़ारों-लाखों लोगों की लाचारी का कोई विकल्प नहीं हो सकता है। इसलिए स्थिति जब तक छिपी-दबी रही तब तक तो ठीक था पर जब नियंत्रण से निकली तो लगातार ख़राब हो रही है। इसे ठीक करने के लिए अगर बजट प्रस्तावों को वापस लिया जा रहा है तो आप कह सकते हैं कि बजट में जो किया गया वह इस स्थिति के ख़िलाफ़ था।
कारें नहीं बिक रही हैं तो उसका कारण ओला-उबर को बताना बताता है कि जिसपर स्थिति संभालने की ज़िम्मेदारी है वह कितना लाचार है। और यह याद रखें कि उनका नेता कह चुका है कि वह झोला उठा कर चल देगा! इसलिए मौजूदा हालात में मुझे तो नहीं लगता है कि यह सरकार कुछ कर सकती है।
कायदे से विशेषज्ञों की एक समिति बनाकर उससे तुरंत प्रभाव वाले, दीर्घ प्रभाव वाले और मध्यम प्रभाव वाले उपाय सुझाने के लिए कहा जाना चाहिए, लेकिन जो विशेषज्ञों की सलाह नहीं मानने को ही बहादुरी मानता है वह विशेषज्ञों की सलाह माँगे और उसे सही सलाह मिलेगी - यह भी सोचने वाली बात है। यह बहुत गंभीर बात है कि मूडीज इनवेस्टर्स सर्विस ने 2019-20 के लिए भारत के विकास की भविष्यवाणी 6.2 प्रतिशत से कम करके 5.8 प्रतिशत कर दी है और इसका कारण बताया है कि अर्थव्यवस्था घोषित मंदी झेल रही है और इसका संबंध आंशिक रूप से लंबे समय तक चलने वाले कारणों से है। आप जानते हैं कि विकास की इस भविष्यवाणी को अगस्त में 6.8 प्रतिशत से कम किया गया था। दूसरी ओर, सरकार जीएसटी से होने वाले राजस्व संग्रह में वृद्धि के उपाय कर रही है। यानी उन्हीं क़ारोबारों या क़ारोबारियों से ज़्यादा टैक्स। मतलब और सख़्ती। जबकि होना यह चाहिए था कि उत्पादन, बिक्री, सेवा में वृद्धि के उपाय किए जाएं जिससे क़ारोबार बढ़े और टैक्स बढ़े।
नियमों में अनिश्चितता
जीडीपी कम होने का मूल कारण उत्पादन कम होना है। और इसमें वृद्धि घटते-घटते अब कमी हो गई है। इसमें वृद्धि साधारण नहीं है। बहुत सारे उपाय करने होंगे। इससे पहले उन कारणों को जानना और मानना होगा जिनकी वजह से उत्पादन और माँग कम है। मुझे याद है नोटबंदी के दिनों में ही क़ारोबारी कह रहे थे कि एक बार जो मजदूर काम छोड़कर चले गए उन्हें वापस इकट्ठा करना बहुत मुश्किल होगा। वह मुश्किल तो अपनी जगह है पर उन्हें इकट्ठा करने की स्थिति तो बने। सरकारी स्तर पर चुप्पी, पारदर्शिता की कमी और सब कुछ मनमाने ढंग से होता दिखने के कारण भी न किसी की हिम्मत क़ारोबार करने की है और न कोई कुछ नया करना चाहता है। कब टैक्स बढ़ेगा और कब घट जाएगा या कब नियम बदल जाएँगे कुछ तय नहीं है। इसके साथ बैंकों से जुड़ी अनिश्चितता भी है।
नीरव मोदी के समय यह दिखाने की कोशिश हुई थी कि उसके पास जो बकाया था वह अधिकतम वसूल लिया गया है। पीएमसी के केस में बिल्कुल नई स्थिति सामने आई है जब खाता धारकों को बैंक में जमा उनके पैसे नहीं दिए जा रहे हैं। बैंक के पास पैसे हैं, घोटालेबाज़ यहीं हैं तब भी।
एचडीएफ़सी बैंक के चेयरमैन दीपक पारेख ने सही कहा है कि क़र्ज़ माफ़ करने और कॉरपोरेट क़र्जे़ बट्टे खाते में डालने की व्यवस्था तो हो पर आम आदमी की बचत की रक्षा करने की कोई वित्तीय व्यवस्था नहीं हो, यह बेहद अनुचित है। उन्होंने कहा है कि आर्थिक व्यवस्था में इससे बड़ा पाप कुछ नहीं हो सकता है कि आम आदमी की मेहनत से की गई बचत का दुरुपयोग हो। मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ कहने या बताने की ज़रूरत भी है। लेकिन स्थितियाँ ऐसी ही बन गई हैं और जब आम आदमी अर्थव्यवस्था पर भरोसा खो दे तो क्या होगा पारेख ने कहा है कि किसी भी वित्तीय व्यवस्था में विश्वास और भरोसा रीढ़ की तरह है। नैतिकता व मूल्यों की शक्ति को कभी भी कम करके नहीं आँकना चाहिए। यह दुख की बात है कि अक्सर इसका क्षरण हो रहा है और ऐसी समस्या दुनिया भर में होती है।
एफ़डीआई के भरोसे नहीं रहा जाए तो क़ारोबार के लिए क़र्ज़ में वृद्धि ज़रूरी है और इसके लिए बचत की दर अच्छी होनी चाहिए। जीडीपी का 30 प्रतिशत। पिछले एक दशक में इसमें कमी होती रही है। किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए घरेलू बचत बहुत महत्वपूर्ण है और नोटबंदी से संबंधित सारे अनुमान इसी बचत के कारण ध्वस्त हो गए। दूसरी ओर, 2008 की वैश्विक मंदी का भारत पर कम असर होने का कारण भी घरेलू बचत को ही माना गया था। इस लिहाज़ से घरेलू बचत में वृद्धि की ज़रूरत हमेशा महसूस की गई है पर नोटबंदी के बाद से इस दिशा में कुछ ख़ास नहीं किया गया है और पीएमसी बैंक की हालत ने इसका भारी नुक़सान किया है। इस बचत को फिर अपनी स्थिति में पहुँचने में समय लगेगा और डिजिटल इंडिया पर ज़ोर दिए जाने के साथ काले धन के ख़िलाफ़ अभियान और ‘टैक्स आतंकवाद’ के माहौल में यह लंबा काम है। दूसरी ओर इसके लिए बैंकिंग-व्यवस्था की साख होनी चाहिए, ब्याज दर बेहतर होना ज़रूरी है पर सब उलटी दिशा में है। चौथाई और आधा प्रतिशत ज़्यादा ब्याज के लिए लोग पीएमसी जैसे बैंकों में जाते हैं और उनकी हालत ने लोगों के भरोसे का क्या हाल किया होगा उसकी कल्पना की जा सकती है। बिना धन और माँग के उत्पादन कम होना ही है और यह रिकॉर्ड कम हो चुका है।