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क्या एक आपातकाल मात्र से इंदिरा गांधी का आकलन अन्याय नहीं है? 

क्या एक आपातकाल मात्र से इंदिरा गांधी का आकलन अन्याय नहीं है? 

आज इंदिरा गांधी की जयंती है। उन्हें इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि वे पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं बल्कि इसलिए स्मरण रखना चाहिए कि उन्होंने एक उनींदे, अलसाए से देश को जगाया। 

आज इंदिरा गांधी की जयंती है। उन्हें इसलिए याद नहीं किया जाना चाहिए कि वे जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं बल्कि इसलिए स्मरण रखना चाहिए कि उन्होंने एक उनींदे, अलसाए से देश को जगाया और उसमें चेतना तथा स्वाभिमान की प्राणवायु का संचार किया। बेशक आपातकाल उनका एक विवादास्पद फ़ैसला माना जा सकता है, मगर इससे उनकी उपलब्धियों की चमक फीकी नहीं पड़ती। 

जो भी सक्रिय राजनेता होता है उससे कुछ गलतियां भी होती हैं। नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक, आप चाहें तो सभी के कुछ निर्णयों की सूची बना सकते हैं, जो इस देश की सेहत के लिए ठीक नहीं रहे। हमारे परिवारों में पिता, दादा, परदादा, दादी, नाना, नानी के सभी निर्णयों से सभी सदस्य सहमत नहीं होते लेकिन सिर्फ़ इस आधार पर आप उनकी आलोचना नहीं करते।

मेरी उनसे पहली मुलाक़ात 1980 के आम चुनाव के दौरान हुई थी। वे बुंदेलखंड के चुनावी दौरे पर आईं थीं। उन दिनों खजुराहो के अलावा आसपास कोई विमानतल नहीं था। इसलिए जब भी कोई राष्ट्रीय नेता आया करता था तो हम नौजवान पत्रकार खजुराहो पहुंच जाते थे और हमें एक्सक्लूसिव साक्षात्कार मिल जाता था। 

इस कड़ी में इंदिरा जी के अलावा जॉर्ज फर्नांडिस, हेमवती नंदन बहुगुणा, जगजीवन राम, नीलम संजीव रेड्डी, विद्या चरण शुक्ल, चरण सिंह, मधु दंडवते, पुरुषोत्तम लाल कौशिक, प्रकाश चन्द्र सेठी, अटल बिहारी वाजपेयी, विजया राजे सिंधिया और लाल कृष्ण आडवाणी जैसे अनेक दिग्गजों से मिलने, कवरेज करने और साक्षात्कार करने का अनुभव मिला। इसने मेरी पत्रकारिता को बहुत परिष्कृत किया। 

इंदिरा गांधी से खजुराहो विश्राम गृह के कक्ष क्रमांक एक में मिलने का अवसर मिला था। पहले मैंने एक डिप्टी कलेक्टर के माध्यम से पर्ची भेजी थी। कोई उत्तर नहीं आया तो उनकी चाय ले जा रहे वेटर की ट्रे में चुपचाप एक पर्ची फिर डाल दी थी। विश्राम गृह के सब वेटर पहचानते थे, इसलिए वह ले गया। 

इंदिरा जी ने पर्ची देखी तो तुरंत बुलाया। मैं उन दिनों दैनिक जागरण और पीटीआई के लिए काम करता था और नई दुनिया में लगातार लिखता था। तीनों देश के बड़े समाचार ब्रांड थे। 

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इंदिरा से पहली मुलाक़ात

मैं धड़कते दिल से अन्दर दाख़िल हुआ। सामने सफ़ेद साड़ी और लंबी बांह वाला ब्लाउज़ पहने इंदिरा गांधी बहुत गरिमा पूर्ण शालीन मुद्रा में अपने लिए पॉट से चाय बना रही थीं। मुझे देखकर वे मुस्कराईं। बोली, “बैठिए। चाय पिएंगे ?” मेरे मुंह से निकला, “जी, आपके हाथ की चाय से कौन मना कर सकता है।” वे फिर मुस्कराईं। हम दोनों चाय पी रहे थे। उन्होंने कहा, “पूछिए क्या सवाल हैं।” सच बताऊं, भारत के प्रधानमंत्री से सामना कुछ इस तरह अनौपचारिक होगा, मुझे आशा नहीं थी। इसलिए मैं तो हक्का-बक्का था और मेरे सवाल कहीं दिमाग़ में ही खो गए थे। वे समझ गईं। 

देश-विदेश के बड़े पत्रकारों-संपादकों के प्रश्नों का आए दिन मुक़ाबला करने वालीं महिला एक देहाती पत्रकार के सामने थीं और उसे ही चुनाव के मुद्दे तथा प्रश्न बता रही थीं।

पीएम कार्यालय से आया पत्र

इंदिरा गांधी ने कहा, “आप बुंदेलखंड राज्य के बारे में पूछना चाहते थे न?” मैं हैरान था। उन्होंने जैसे मेरे सवालों को ताड़ लिया था। दस मिनट में कुछ सवालों के उत्तर डायरी में नोट किए और चलने के लिए खड़ा हो गया। वहाँ से निकलकर सीधे ज़िला मुख्यालय भागा। वहाँ से बीजी एक्स क्यू तार किया। अगले दिन मेरा साक्षात्कार देश भर के अख़बारों में सुर्ख़ियां बन गया था। क़रीब एक सप्ताह बाद प्रधानमंत्री कार्यालय से एक पत्र मिला। इंदिरा गाँधी ने ख़ुद लिखा था और कवरेज़ पर प्रसन्नता प्रकट की थी। अंत में लिखा था, कभी दिल्ली आएँ तो मिलें। 

झाँसी में हुई दूसरी मुलाक़ात 

मेरी उनसे दूसरी मुलाक़ात झाँसी में हुई। उनकी सभा थी। अगर मुझे ठीक याद है तो वह सुशीला नैयर के समर्थन में आई थीं। उन दिनों प्रधानमंत्री की सभा में मंच के सामने लकड़ी की बल्लियों का एक छोटा यू आकार का घेरा होता था। इससे सट कर पत्रकारों के लिए एक प्रेस - बाड़ा होता था। दूरी इतनी होती थी कि मंच का वक्ता पत्रकारों के चेहरे देख सकता था और हम लोग अगर चाहें तो चिल्लाकर सवाल पूछ सकते थे। 

इंदिरा जी ने मुझे देखा तो मंच से हाथ हिलाया और मुस्कराईं। मैंने भी अभिवादन में हाथ जोड़ लिए। जब उनका भाषण चल रहा था तो एक पुलिस अधिकारी आया और बोला, मैडम ने कहा है कि सभा के बाद आप विश्राम गृह पहुँचिये। मैंने कहा, “मगर मेरे पास कोई साधन नहीं है। पहुँचने में टाइम लगेगा।” तो वह बोले, “मुझे निर्देश मिला है। आपको मैं लेकर जाऊँगा।” इस तरह दूसरी मुलाक़ात हुई। 

इस बार मैं झिझका नहीं। सीधे सवाल किए। वे बोलीं “ट्रेनिंग अच्छी हो रही है तुम्हारी।” मैंने दूसरा साक्षात्कार और रैली का समाचार भेजा। यह भी अच्छा छपा। एक बार फिर प्रधानमंत्री कार्यालय से पत्र मिला।

सभी के लिए समान व्यवहार 

तीसरी बार उनसे दिल्ली में मिलना हुआ। शायद 1983 का साल था। मैंने एक चिट्ठी उन्हें लिख दी थी कि मैं राजेंद्र माथुर जी से मिलने आ रहा हूँ। अगर आप दिल्ली में होंगीं तो क्या मिल सकूँगा? राजेंद्र माथुर जी उन दिनों नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक थे और मैं नई दुनिया इंदौर में सह संपादक था। जब मैं राजेंद्र माथुर जी से मिलने पहुँचा तो माथुर जी के सचिव विशंभर श्रीवास्तव जी ने मुझे प्रधानमंत्री कार्यालय का सन्देश दिया कि उस तारीख़ को जब मैं माथुर जी से मिल लूँ तो प्रधानमंत्री कार्यालय पहुँच जाऊँ। विशंभर जी ने बताया कि आपके आने की ख़बर देनी है। फिर आपको लेने वहाँ से एक अधिकारी आएगा और आपको लेकर जाएगा। 

इंदिराजी की कार्यशैली का मैं क़ायल हो गया था। एक छोटे पत्रकार तक के लिए वे कितना समय ख़र्च करती थीं - यह ध्यान देने की बात है। लेकिन उनका व्यवहार एक क़स्बाई पत्रकार के लिए ही नहीं, सभी के लिए ऐसा होता था। 

राजेंद्र माथुर की श्रृंखला

राजेंद्र माथुर ने आपातकाल के विरोध में नई दुनिया के पन्नों पर सात मुद्दों की श्रृंखला लिखी थी। उन मुद्दों ने ऐसा असर डाला कि कांग्रेस का समूचे उत्तर भारत से सफाया हो गया। वे मुद्दे कॉपी करके सारे प्रदेशों में पहुँचे थे। लेकिन देखिए कि जब 1980 में जनता पार्टी बिखर गई और इंदिरा गाँधी फिर प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने ख़ुद दूसरे प्रेस आयोग के गठन का एलान किया और राजेंद्र माथुर को उसका सदस्य बनाए जाने की जानकारी पत्रकारों को दी। 

इस प्रेस आयोग की सिफ़ारिशें एक दस्तावेज़ की तरह हैं।

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राजीव से कराया परिचय 

बहरहाल! इंदिरा जी से तीसरी मुलाक़ात केवल पाँच-सात मिनट हुई। उन्होंने हालचाल पूछा और राजीव गाँधी से परिचय कराया, जो संजय गाँधी की मौत के बाद माँ के कार्यों में हाथ बँटाने लगे थे। उन्होंने कहा , “ये राजेश हैं। अच्छे पत्रकार हैं। मेरी बहुत ख़बरें छापी हैं। इनके नानाजी आज़ादी की लड़ाई में तुम्हारे नानाजी के साथ थे। इंदौर में हैं। राजीव गाँधी ने कहा, “मैं इंदौर आऊँगा तो मिलूँगा। इंदौर में तो नहीं, माँ की मौत के बाद जब वे फरवरी, 1985 में मध्य प्रदेश के बिजावर आए थे तो उनकी पहली सभा भी मैंने कवर की थी। उन्होंने पहचान लिया था और बात भी की थी। 

इंदिरा गाँधी से मेरी अंतिम भेंट उनकी हत्या से ठीक एक सप्ताह पहले 24 अक्टूबर, 1984 को हुई थी। वे मध्य प्रदेश में खरगौन ज़िले के भीकनगाँव आई थीं। वहाँ आदिवासियों के लिए उनकी सभा थी। मुझे नई दुनिया ने उसकी कवरेज करने भेजा था।

उस दिन सभा चल रही थी और सुभाष यादव बोल रहे थे कि अचानक इंदिराजी ने माइक पर आकर कहा, “बहनों और भाइयों! आप थोड़ी देर सुभाष यादव की बात सुनिए। मैं अभी आती हूँ।” हम लोग पत्रकार बॉक्स में बैठे थे। सभी हैरान। इतने में इंदिराजी ने मंच से उतरते हुए मुझे इशारा किया और एक पुलिस अधिकारी से कुछ कहा। वह भागा और मेरे पास आया। बोला, “मेरे साथ आइए। मैं चल दिया।” 

पता चला कि इंदिरा गांधी की सभा में आ रहे आदिवासियों की ट्रैक्टर-ट्राली पलट गई थी। एक-दो आदिवासी मरे थे और कुछ घायल थे। इंदिराजी को मंच पर ही यह ख़बर मिली थी और वे घायलों को देखने अस्पताल जा रही थीं। मैं उस पुलिस अधिकारी के साथ अस्पताल पहुँचा तो इंदिरा गांधी घायलों से बात कर रही थीं। 

मैं चूँकि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के साथ था इसलिए उनके करीब पहुँचकर बातचीत के नोट्स लेने लगा। मुझे लगा कि अगर इसके फ़ोटोग्राफ़ मिल जाएँ तो नई दुनिया की एक्सक्लूसिव कवरेज हो जाएगा। मैंने उसी पुलिस अधिकारी के पास जाकर कहा कि कृपया जन संपर्क अधिकारी आदिल ख़ान को वायरलेस पर सन्देश दे दें कि मेरा फ़ोटोग्राफ़र उनकी जीप में आ जाए। मैं वापस इंदिराजी के पास आ गया। दस मिनट के भीतर फ़ोटोग्राफ़र आ गया। 

जब हम लौटने लगे तो इंदिराजी ने कहा, “अभी भी तुम नई दुनिया में हो ?” मैंने कहा, “जी।” वे बोलीं, “समाचार कैसे भेजोगे?”  मैंने कहा, “सभा के बाद सीधे इंदौर भागूँगा ताकि प्रथम संस्करण छूटने से पहले यह समाचार लग जाए।” 

उन दिनों आज की तरह मोबाइल तो होते नहीं थे। हम इसके बाद सीधे सभा स्थल भागे। इंदिराजी का भाषण कवर किया और फ़ोटोग्राफ़र से रील लेकर आदिल ख़ान की जीप में बैठकर इंदौर भागे। एकदम वक़्त पर पहुँचे। सभी संस्करणों में प्रमुखता से यह समाचार छपा। 

तीन या चार दिन बाद प्रधानमंत्री कार्यालय से फिर पत्र मिला। अच्छे कवरेज के लिए बधाई दी गई थी। यह उनके साथ मेरी अंतिम मुलाक़ात थी। 31 अक्टूबर को इस लौह महिला को महाकाल ने हमसे छीन लिया।

हरित-श्वेत क्रांति वालीं इंदिरा

यह संस्मरण तो एक निजी संस्मरण कहा जा सकता है, लेकिन क्या हिंदुस्तान भूल सकता है कि जब इस महिला ने प्रधानमंत्री की कुर्सी सँभाली थी तो देश के पास भरपेट खाने के लिए अनाज का उत्पादन नहीं होता था। दूध का उत्पादन नाकाफ़ी था। इस महिला ने हरित और श्वेत क्रांति के ज़रिए देश को आत्म निर्भर बनाया। बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके मुल्क़ को नई आर्थिक दिशा दी। 

जनता का ख़ून चूसने वाले राजाओं का प्रिवी-पर्स बंद किया और देश की पूरब-पश्चिम सीमाओं पर बसे पाकिस्तान की कमर तोड़कर बांग्लादेश नामक नए देश को अस्तित्व में ला दिया। दो सीमाओं से पाकिस्तान के हमले की आशंका ही ख़त्म कर दी।

सिक्किम नामक देश को भारत का एक प्रदेश बनाया। इस तरह सिक्किम के ज़रिए चीन के आक्रमण की आशंका समाप्त कर दी। भारत ने पहला परमाणु परीक्षण पोखरण में किया और संसार में भारत के एक महाशक्ति बनने का रास्ता साफ़ किया। भारत ने अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में फ़र्राटे से दौड़ लगाई। 

इतना ही नहीं, पाकिस्तान को अपनी गोद में पाल रहे अमेरिका को उसी की भाषा में उत्तर दिया और गुट निरपेक्ष देशों के आंदोलन को मज़बूत बनाया। ग़रीबी हटाओ इंदिरा गाँधी के लिए केवल नारा ही नहीं था। आँकड़े उठाकर देख लीजिए। दूध का दूध और पानी का पानी साफ़ हो जाएगा। 

खालिस्तान बनने से रोका 

भारत में रंगीन टीवी और कंप्यूटर युग की शुरुआत भी इंदिरा गांधी के ज़माने में ही हुई थी। वास्तविक अर्थों में भारत ने एक महाशक्ति बनने की दिशा में क़दम तो इंदिरा गाँधी के ज़माने में ही उठाये। पंजाब का आतंकवाद पाकिस्तान और अमेरिका समर्थित था। उसे पाकिस्तान में मिलाने का षड्यंत्र क़ामयाब हो जाता अगर इंदिरा गाँधी ने निर्णायक कार्रवाई नहीं की होती। विडंबना है कि आपातकाल के एक फ़ैसले ने इस विलक्षण नेत्री के कारनामों पर पानी फेर दिया। 

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