31 अक्टूबर, क्या आत्म निरीक्षण का दिन होगा?
आज 31 अक्टूबर है। इंदिरा गाँधी की हत्या का दिन? या सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्मदिन? या भारत में सिखों के क़त्लेआम की शुरुआत का दिन? किस तरह इसे याद किया जाए? आज की संघीय सरकार ने इसे एकता दिवस के रूप में मनाना शुरू किया है। लेकिन इस एकता का संदर्भ औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद भारत में रियासतों के एकीकरण से है। भारत के भौगोलिक नक़्शे से है। उसका रिश्ता भारत के लोगों के बीच एकता से नहीं है। यह सरकार, जो 14 अगस्त को विभाजन दिवस के तौर पर याद करना चाहती है ताकि लोग विभाजन की विभीषिका को न भूलें, वह 31 अक्टूबर को सिखों के क़त्लेआम के दिन के तौर पर याद नहीं करना चाहती। वह उपयोगी नहीं है।
आज के अख़बारों को पलट गया। इस तारीख़ के मौक़े पर इस विभीषिका की याद दिलाने का काम किसी को ज़रूरी नहीं लगा। आख़िर यह आज़ाद भारत में किसी एक धार्मिक समुदाय के ख़िलाफ़ पूरे देश में की गई हिंसा से जुड़ा दिन है! इसे हम क्यों भूल जाना चाहते हैं? यह हिंसा समाज के एक वर्ग ने उस समुदाय के ख़िलाफ़ की जिसे वे अपना रक्षक कहते आए थे। सिख धर्म हिंदू धर्म की ही शाखा है, यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो कहता ही है, अधिकतर हिंदू भी यही मानते हुए बड़े होते हैं। फिर अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा क्यों?
मुसलमानों के ख़िलाफ़ निरंतर हिंसा का एक “वाजिब” कारण कुछ कट्टरपंथियों के पास है। उन्होंने भारत बाँटा और पाकिस्तान बनाया। उन्होंने हमारे ऊपर हुकूमत की! हमारे ऊपर ज़ुल्म किया। हमारे मंदिर तोड़े। ये वजहें बताई जाती हैं उस सजा की जो उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी दी जाती रहेगी। इस कारण को लोग जायज़ भी मान लेते हैं और इस तरह मुसलमान विरोधी हिंसा को भी स्वाभाविक मान लेते हैं। लेकिन सिखों के क़त्लेआम को कैसे उचित ठहराया जाता है?
38 साल पहले पटना में छात्र था। इंदिरा गाँधी मारी गईं, यह ख़बर ‘द इंडियन नेशन’ और ‘आर्यावर्त’ अख़बारों के दफ़्तर के बाहर लगे समाचार पट्ट पर लगी और तुरत पूरे शहर में फैल गई। हम सब सकते में थे। हम सब जो इंदिरा गाँधी के विरोधी थे, हम भी स्तब्ध थे। सकते के अहसास के बीच हमें उसका अनुमान न था जो तुरत ही शुरू होनेवाला था। हवा में नामालूम आशंका थी। क्योंकि सबको मालूम गया था कि इंदिरा गाँधी को जिन्होंने मारा था, वे सिख थे।
कुछ देर बाद एक छोटा झुंड “खून का बदला खून से लेंगे” नारा लगाते हुए सड़क पर दिखलाई दिया। ख़बर आई कि डाक बँगला के पास एक शराब की दुकान लूटी जा रही है। फिर और जगहों से भी ऐसी ख़बरें आने लगीं।
अशोक राजपथ पर, पटना मेडिकल कॉलेज और पटना विश्वविद्यालय के सामने सिखों की कई दुकानें थीं। साइकिल की। टेंट हाउस। और भी। इन दुकानों पर हमला शुरू हो गया। ताले तोड़े जाने लगे। जिसके हाथ जो आया, वही लेकर वह भागता दीखा। किसी के हाथ में कटोरियों की मीनार सी थी जिसे वह सर्कस के बाज़ीगर की तरह संतुलन बनाए लेकर भाग रहा था। कोई साइकिल के हैंडल का बंडल लेकर भाग रहा था। कोई उसका फ़्रेम। कुछ लोग फ्रिज लेकर जा रहे थे कि आपस में झगड़ा हो गया और सबने फ्रिज को पत्थरों से कूच दिया।
इस हमलावर भीड़ में एक अजीब वीभत्स उल्लास था। सामूहिक लूट का वह दृश्य भूलना मुश्किल है जिसमें सबका चेहरा हर कोई देख सकता था। यह हिंसा की सहकारिता थी। सिखों को सबक़ सिखाने में सब एक दूसरे की मदद कर रहे थे। लेकिन लूट में प्रतियोगिता थी। दिन दहाड़े हो रही इस हिंसा में पुलिस लुटेरों या गुंडों की मददगार थी। हम एक छात्र संगठन में थे, इसलिए स्थानीय थानेवालों से मुठभेड़ होती रहती थी। उनके पास जाकर भीड़ को क़ाबू करने को कहा तो उल्टे सड़क से हट जाने की चेतावनी मिली। हम कोई हस्तक्षेप नहीं कर पाए।
हिंसा की ख़बर दूसरे शहरों से भी आने लगी। पटना में, जहाँ तक याद है, किसी हत्या की ख़बर नहीं मिली। लेकिन जमशेदपुर, धनबाद, बोकारो, और सबसे बढ़कर दिल्ली से हत्याओं की ख़बर पहुँचने लगी।
पटना में यह गुंडागर्दी तीन दिन तक चलती रही। पुलिस ख़ामोश थी, कहना ग़लत होगा। वह इस गुंडागर्दी की सहयोगी थी। तीन दिन बाद अचानक सुना कि पुलिस अब लूट के सामान की बरामदगी के लिए छापे मार रही है। फिर सुना कि लोग बग़ल की गंगा में जाकर लूट का विसर्जन कर आए।
किसी गिरफ़्तारी की ख़बर नहीं सुनी। कोई मुक़दमा दर्ज हुआ हो, इसकी याद नहीं। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस हिंसा में पढ़ा-लिखा तबक़ा उतना ही शामिल था जितना वह जिसे हम अशिक्षित होने के कारण हिंसक मानते हैं।
बहुत बाद में मालूम हुआ कि पटना साइंस कॉलेज के एक सिख अध्यापक को अपने केश कटवाने पड़े जिससे वे पहचान में न आएँ। हिंसा की इस लहर के बैठने पर हम पटना साहिब गुरुद्वारा गए। राहत लेकर। मुझे अबतक याद है उन सरदारजी कि जो राजेंद्र सर्जिकल ब्लॉक की कैंटीन चलाते थे और वहाँ सर झुकाए बैठे थे। मैंने भी उन्हें नमस्कार नहीं किया। हम किसी को दिलासा दिलाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे थे। यह शहर, यह पटना उनका शहर था। आज वहीं एक गुरुद्वारे में शरणार्थी थे। हिंसा सिखों के ख़िलाफ़ हुई थी। लेकिन वे ही अपना चेहरा ही नहीं दिखलाना चाहते थे। उस दिन यह बात पहली बार समझ में आई कि हिंसा कैसे किसी समूह का आत्मसम्मान भी छीन लेती है, जिसके ऊपर वह की गई हो। उस हिंसा के कारण वही ख़ुद को हीन समझने लगता है।
फिर पटना में जन-जीवन ‘सामान्य’ हो गया। ज़िंदगी की गाड़ी वापस पटरी पर आ गई। लंबे वक़्त तक पटना कॉलेज के सामने की साइकिल की दुकान बंद रही। कई दूसरी दुकानें भी। बग़ल के दुकानदारों ने उनका हाल समाचार लिया हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं। बाक़ी शहरों में भी यही हुआ। लेकिन दिल्ली कुछ ख़ास थी। यह शहर जो सिख शरणार्थियों को बसाने वाला शहर था जो नए बने पाकिस्तान से भागकर आए थे। उस वक़्त हिंदू सिख भाई भाई थे। मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा में उस वक़्त उपयोगी थे। 1984 में यह सब कुछ भुला दिया गया।
अभी भी समझना चाहता हूँ कि जिस शहर में तक़रीबन 3 हज़ार सिखों को मार डाला गया हो, वह शहर इत्मीनान से कैसे जीता जाता है? अंदाज़ करता हूँ, 3 हज़ार सिखों का क़त्ल करने में कितने हज़ार लोग शामिल होंगे? वे सब जो उस क़त्लेआम में शामिल थे आज अपनी ज़िंदगी जी रहे होंगे और कुछ अपनी मौत मरे होंगे। लेकिन उस शहर की कल्पना कीजिए जिसमें हज़ारों कातिल माँ, पिता, भाई, बहन, दादा दादी, नाना नानी के आत्मीय रिश्तों से एक दूसरे को पहचानते हुए जी रहे हैं।
वह कैसा समाज है, कैसा परिवार है जो हत्यारों की पनाहगाह है? जो सामूहिक हिंसा, हत्या को मात्र एक हादसा मानकर आगे बढ़ जाए? जिसे इस सामूहिक नाइंसाफ़ी की याद दिलाने पर क्रोध आ जाए?
31 अक्टूबर भारत के लिए आत्म निरीक्षण का दिन होना चाहिए। वह जिस दिन होगा उस दिन समाज ख़ुद को सभ्य कह पाएगा।