इजरायल की एक कम्पनी द्वारा ‘हथियार’ के तौर पर विकसित और आतंकवादी तथा आपराधिक गतिविधियों पर काबू पाने के उद्देश्य से ‘सिर्फ़’ योग्य पाई गईं सरकारों को ही बेचे जाने वाले अत्याधुनिक और बेहद महंगे उपकरण का चुनिन्दा लोगों की जासूसी के लिए इस्तेमाल किए जाने को लेकर देश की विपक्षी पार्टियों के अलावा किसी भी और में कोई आश्चर्य, विरोध या ग़ुस्सा नहीं है। मीडिया के एक धड़े द्वारा किए गए इतने सनसनीखेज खुलासे को भी पेट्रोल, डीजल के भावों में हो रही वृद्धि की तरह ही लोगों ने अपने घरेलू ख़र्चों में शामिल कर लिया है। यह संकेत है कि सरकारों की तरह अब जनता भी उदासीनता के गहराते कोहरे की चादर में दुबकती जा रही है।
सरकार ने अभी तक न तो अपनी तरफ़ से यह माना है कि उसने स्वयं ने या उसके लिए किसी और ने अपने ही देश के नागरिकों की जासूसी के लिए इन ‘हथियारों’ की खरीदारी की है और न ही ऐसा होने से मना ही किया है। सरकार ने अब किसी भी विवादास्पद बात को मानना या इंकार करना बंद कर दिया है। नोटबंदी करने का तर्क यही दिया गया था कि उसके ज़रिये आतंकवाद और काले धन पर काबू पाया जाएगा। लॉकडाउन के हथियार की मदद से कोरोना के महाभारत युद्ध में इक्कीस दिनों में विजय प्राप्त करने की गाथाएँ गढ़ी गई थीं। दोनों के ही बारे में अब कोई बात भी नहीं छेड़ना चाहता। विभिन्न विजय दिवसों की तरह देश में ‘नोटबंदी दिवस’ या ‘लॉकडाउन दिवस’ नहीं मनाए जाते।
सरकार ने ‘न हां’ और ‘ न ना‘ का जो रुख पेगासस जासूसी मामले में अख्तियार किया हुआ है वैसी ही कुछ स्थिति भारतीय सीमा क्षेत्र में चीनी सैनिकों की हिंसक घुसपैठ को लेकर भी है। सरकार ने सवा साल बाद भी यह नहीं माना है कि चीन ने हाल ही में भारत की किसी नई ज़मीन कब्ज़ा कर लिया है। ‘राष्ट्रवाद’ की भावना से ओतप्रोत भक्त नागरिकों में जिस तरह की उदासीनता का भाव देश के भौगोलिक अतिक्रमण को लेकर है वैसा ही तटस्थ रवैया स्वयं की प्राइवेसी पर हो रहे आक्रमण को लेकर भी है। ऐसा होने के कई कारण हो सकते हैं और उनका तार्किक विश्लेषण भी किया जा सकता है।
पेगासस जासूसी काण्ड का खुलासा करने में फ़्रांस की संस्था ‘फोर्बिडन स्टोरीज’ और नोबल पुरस्कार से सम्मानित अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ के साथ सत्रह समाचार संगठनों से सम्बद्ध खोजी पत्रकारों के एक समूह की प्रमुख भूमिका रही है। अब तो फ़्रांस सहित चार देशों की सरकारों ने पेगासस जासूसी मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं। कारण यह है कि दुनिया के सभ्य देशों में नागरिकों की प्राइवेसी में किसी भी प्रकार के अनधिकृत हस्तक्षेप को दंडनीय अपराध माना जाता है।
कई देशों में टॉयलेट्स अथवा शयन कक्षों को भीतर से बंद करने के लिए चिटखनियाँ ही नहीं लगाई जातीं। वहाँ ऐसा मानकर ही चला जाता है कि बिना अनुमति के कोई प्रवेश करेगा ही नहीं, घर का ही बच्चा भी नहीं।
किसी भी तरह की जासूसी के प्रति भारतीय मन में उदासीनता का एक कारण यह भी हो सकता है कि हमारे यहाँ प्राइवेसी का कोई कंसेप्ट ही नहीं है। कतिपय क्षेत्रों में उसे हिकारत की नज़रों से भी देखा जाता है। महिलाओं और पुरुषों सहित देश की एक बड़ी आबादी को आज भी अपनी दैनिक क्रियाएँ खुले में ही निपटानी पड़ती हैं। कोई भी व्यक्ति, पत्रकार, कैमरा या एजेंसी किसी भी समय किसी भी सभ्य नागरिक के व्यक्तिगत जीवन में जबरिया प्रवेश कर उसे परेशान कर सकती है, उसकी फ़िल्में बनाकर प्रसारित कर सकती है। प्रताड़ित होने वाले नागरिक को किसी तरह का संरक्षण भी प्राप्त नहीं है।
नागरिक जब अपनी प्राइवेसी पर होने वाले अतिक्रमण के प्रति भी पूरी तरह से उदार और तटस्थ हो जाते हैं, हुकूमतें गिनी पिग्ज़ या बलि के बकरों की तरह सत्ता की प्रयोगशालाओं में उनका इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हो जाती हैं। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और विदुर जैसी विभूतियों की उपस्थिति में द्रौपदी के चीर हरण की घटना को समस्त हस्तिनापुर की महिलाओं की निजता के सार्वजनिक अपमान के रूप में ग्रहण कर उस पर शर्मिंदा होने के बजाय भगवान कृष्ण के चमत्कारिक अवतरण द्वारा समय पर पहुँचकर लाज बचा लेने के तौर पर ज़्यादा ग्लेमराइज किया जाता है। महाभारत सीरियल में उस दृश्य को देखते हुए बजाय क्रोध आने के, भगवान कृष्ण के प्रकट होते ही दर्शक आंसू बहाते हुए तालियाँ बजाने लगते हैं।
नागरिक समाज में जब एक व्यक्ति किसी दूसरे की प्राइवेसी में दखल होते देख मदद के लिए आगे नहीं आता, चिंता नहीं जाहिर करता तो फिर हुकूमतें भी ऐसे आत्माहीन निरीह शरीरों को अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं की सूचियों में शामिल करने के लिए घात लगाए बैठी रहती हैं। चंद जागरूक लोगों की बात छोड़ दें तो ज़्यादातर ने यह जानने में भी कोई रुचि नहीं दिखाई है कि जिन व्यक्तियों को अदृश्य इजरायली ‘हथियार’ के मार्फ़त जासूसी का शिकार बनाए जाने की सूचनाएँ हैं उनमें कई प्रतिष्ठित महिला पत्रकार, वैज्ञानिक आदि भी शामिल हैं। अपनी जानें जोखिम में डालकर खोजी पत्रकारिता करने वाली ये महिलाएँ इस समय सदमे में हैं और महिला आयोग जैसे संस्थान और ‘प्रगतिशील’ महिलाएँ इस बारे में कोई बात करना तो दूर, कुछ सुनना भी नहीं चाहतीं।
’मी टू’ आन्दोलनों का ताल्लुक भी शायद शारीरिक अतिक्रमण तक ही सीमित है, आत्माओं पर होने वाले छद्म अतिक्रमणों के साथ उनका कोई लेना-देना नहीं है! तथाकथित ‘स्त्री-विमर्शों’ में निजता की जासूसी को शामिल किया जाना अभी बाक़ी है क्योंकि ऐसा किया जाना साहस की मांग करता है।
अमेरिका सहित दुनिया के विकसित और संपन्न राष्ट्र हाल ही के वक़्त में कोरोना महामारी से निपटने को लेकर भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश की धीमी गति अथवा उसके प्रधान सेवक के अतिरंजित आत्मविश्वास को लेकर काफी चिंतित होने लगे थे। उनकी चिंता का बड़ा कारण यह था कि भारत में बढ़ते हुए संक्रमण से उनकी अपनी सम्पन्नता प्रभावित हो सकती है, उन पर दबाव पड़ सकता है कि वे वैक्सीन आदि की कमी को दूर करने के लिए आगे आएँ और अन्य तरीक़ों से भी मदद के लिए हाथ बढ़ाएँ। ऐसा ही बाद में हुआ भी।
पेगासस जासूसी काण्ड को लेकर भी आगे चलकर इसी तरह की चिंताएँ जाहिर की जा सकती हैं। किसी भी तरह की जाँच के लिए सरकार के लगातार इंकार और नागरिकों के स्तर पर अपनी प्राइवेसी में अनधिकृत हस्तक्षेप के प्रति किसी भी तरह की पूछताछ का अभाव उन राष्ट्रों के लिए चिंता का कारण बन सकता है जो न सिर्फ़ अपने ही देशवासियों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा को लेकर नैतिक रूप से प्रतिबद्ध हैं, अन्य स्थानों पर होने वाले उल्लंघनों को भी अपने प्रजातंत्रों के लिए ख़तरा मानते हैं।
इस नतीजे पर पहुँचना जल्दबाज़ी करना होगा कि हमारे शासकों ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के नियम-क़ायदों से अपने आपको अंतिम रूप से मुक्त कर लिया है। हालाँकि पेगासस जासूसी काण्ड में भारत सहित जिन दस देशों के नाम प्रारम्भिक तौर पर सामने आए थे उनके बारे में पश्चिमी देशों का मीडिया यही आरोप लगा रहा है कि इन स्थानों पर अधिनायकवादी व्यवस्थाएँ कायम हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि हमारे नागरिकों को सिर्फ़ जासूसी ही नहीं, इस तरह के आरोपों के प्रति भी कोई आपत्ति नहीं है।