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क्या भारत के  विश्वविद्यालय सभ्यता की समस्या से जूझ रहे हैं?

क्या भारत के  विश्वविद्यालय सभ्यता की समस्या से जूझ रहे हैं?

देश के तमाम विश्वविद्यालय सिर्फ साधनों के अभाव, बजट की कमी, नैक अधिकारियों की फरमाइशों से ही नहीं जूझ रहे हैं। वे सभ्यता से भी जूझ रहे हैं। स्तंभकार और देश के जाने-माने चिंतक अपूर्वानंद विश्वविद्यालयों की किस सभ्यता पर बात कर रहे हैं, उनका आशय क्या है। आपके लिए उसे जानना क्यों जरूरी है, पढ़िये यह लेखः

नैक की टीम विश्वविद्यालय आनेवाली है।विश्वविद्यालय में पूरी चौकसी  है।शनिवार को भी काम होगा, यह सूचना शुक्रवार की रात तक सब तक  पहुँचा दी गई थी। परिसर में दीवारों की पुताई चल रही है। अभी कुछ रोज़ पहले उच्च न्यायालय ने अधिकारियों की इसके लिए झिड़की दी थी कि उन्होंने छात्र संघ चुनाव में प्रत्याशियों को इसकी छूट दी कि वे हर दीवार को पोस्टरों से बदशक्ल करें। उसने आदेश दिया कि उन्हीं से इनकी सफ़ाई का पैसा लिया जाए। वह जब होगा तब होगा,अभी तो विश्वविद्यालय को नैक की टीम के सामने भली शक्ल सूरत में  पेश होना चाहिए। 

कुछ दिन पहले सुना कि एक छात्रा को इसलिए निलंबित कर दिया गया था कि उसने विश्वविद्यालय  की संपत्ति को नुक़सान पहुँचाया था।कैसे? उसने नीट परीक्षा में घपले के ख़िलाफ़ एक नारा दीवार पर लिख दिया था। इससे बुरा तरीक़ा क्या हो सकता था  विश्वविद्यालय की संपत्ति को तबाह करने का जो कि उसकी दीवारें हैं? अधिकारियों ने उसे फ़ौरन सज़ा दी। यह कहते हुए कि चूँकि उस पर पुलिस ने एफ़ आई आर की है, उसे निलंबित किया जा रहा है। यह तर्क समझ  से परे था। लेकिन यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि उसका निलंबन विश्वविद्यालय  में चर्चा का मुद्दा नहीं बना, बहस या आंदोलन तो छोड़ ही दीजिए। 

दीवारों की रंगाई पुताई देखकर लगा कि अच्छा होता अगर अधिकारियों को इसका भी अंदेशा होता कि नैक की टीम रात में भी परिसर का दौरा कर सकती है। तब शायद आज परिसर की जिन सड़कों पर घुप्प अँधेरा रहता है, उनपर रौशनी का इंतज़ाम हो गया होता। दो रोज़ पहले मेट्रो स्टेशन से अपनी रिहाइश तक आते सोच रहा था कि इस अँधेरे में बिना गिरे और टकराए चल लेना भी एक कौशल ही है। कॉलोनी में घुसते हुए सोचा  कि अगर अधिकारियों को यह आशंका होती कि नैक की टीम औचक विश्वविद्यालय के आवास परिसरों का हाल चाल लेने को भी कह सकती है तब शायद हफ़्तों से  बहते हुए गटर और हर तरफ़ गंदगी का भी कुछ इंतज़ाम हो जाता। 

विश्वविद्यालय एक छोटा मोटा राज्य ही होता है। बेचारे अधिकारी क्या देखें, क्या न देखें। तो वे सबसे अधिक शैक्षणिक उपलब्धियों का लेखा जोखा तैयार कर रहे हैं।अध्यापकों ने कितना शोध किया, कितने पर्चे प्रकाशित किए, अध्यापक -विद्यार्थी का अनुपात क्या है,दोनों में कितनी सामाजिक विविधता है, अध्यापन में कितनी नई तरकीबों का इस्तेमाल किया जाता है आदि आदि। पाठ्यक्रम में कितनी नवीनता है या प्रयोगशीलता है, यह भी एक आधार है मूल्यांकन का। अध्यापक के बारे में विद्यार्थियों की राय भी एक आधार है।

ये शैक्षणिक आधार ही काफ़ी  नहीं हैं। दिल्ली के बाहर के एक कुलपति मित्र ने बतलाया कि उनके यहाँ नैक की टीम यह जानना चाहती थी  कि उनके यहाँ ‘योगा  डे’ किस तरह मनाया गया। हड़कंप मच गया क्योंकि उन्होंने इस पर ध्यान ही नहीं दिया था। किसी ने कह दिया कि हाँ, किया था तो प्रमाण माँगा गया।  उसी तरह स्वच्छता दिवस या ‘यूनिटी डे’ के प्रमाण भी देने पड़ेंगे। या फिर प्रधानमंत्री की मन की बात एक प्रसारण को कितना सुना गया, इसका भी सबूत देना होगा। क्या यह भी पूछा जाएगा कि विश्वविद्यालय में झंडा कितने लंबे खंबे पर लहरा रहा है? 

एक कुलपति  मित्र ने बतलाया कि आधार यही नहीं होते हैं। टीम की एक सदस्या ने माँग की कि उन्हें शहर देखना है सो विश्वविद्यालय इंतज़ाम करे। रात को मालूम हुआ कि शहर देखने के दौरान वे दुकान में कपड़ा देखने लगीं और फिर कुछ कपड़े पसंद करके विश्वविद्यालय की प्रतिनिधि की तरफ़ देखने लगीं। उन्होंने इशारा नहीं समझा। फिर पूछना ही पड़ा कि विश्वविद्यालय का क्रेडिट कार्ड तो होता ही होगा। न में उत्तर  मिलने पर वे बिफर पड़ीं। नैक की टीम की दूसरी सदस्य जब शहर से चली गईं तो उनका होटल का बिल हज़ारों में आया। मालूम हुआ कि उन्होंने  तीन दिनों में अपनी दर्जनों पोशाकें होटल में ही धुलवा ली थीं!

इस तरह के क़िस्से ऐसी टीमों के बारे में अलग-अलग कुलपतियों के पास अनगिनत हैं। उच्च शिक्षा में सुधार के लिए गठित  यशपाल समिति के साथ काम करते हुए कई राज्यों के कुलपतियों से बातचीत के दौरान ऐसे हास्यकर लेकिन दुखदायी कहानियाँ ढेरों सुनने को मिलीं। महाराष्ट्र के एक कुलपति ने बतलाया कि टीम के सदस्यों के शिरडी भ्रमण के लिए वे किस बजट से पैसा निकालें, यह उन्होंने तत्कालीन नैक प्रमुख से पूछा था। 

लेकिन यह नैक की सारी टीमों पर लागू नहीं किया जा सकता। कई टीमें मात्र शैक्षणिक आधार पर ही नंबर देती होंगी।या उनके साथ और भी आधार, जैसे विश्वविद्यालय  का  वातावरण। वह क्या होता है? क्या यह देखा जाता है कि  वह कितना मुक्त है? कितना इत्मीनान भरा है? या उसमें अध्यापकों, ग़ैर शैक्षणिक कर्मियों और विश्वविद्यालय अधिकारियों के बीच के रिश्ते भी देखे जाएँगे? उसकी जाँच का आधार क्या होगा?

इन सब बातों पर हम सोच रहे थे अपनी आर्ट्स फ़ैकल्टी के कमरा नंबर 22 के बाहर खड़े होकर। हम अपने सहकर्मी, अंग्रेज़ी के अध्यापक साईबाबा की स्मृति सभा के लिए इकट्ठा हो रहे थे। 22 नंबर कमरे में आम तौर पर इस तरह की सभा, मीटिंग हुआ करती थी। अब वह सपना हो गया है। विभाग के लोगों को भी कमरा नहीं मिलता। और शैक्षणिक कार्यक्रम के लिए भी विभाग को भी विश्वविद्यालय के’ एस्टेट डिपार्टमेंट’ को शुल्क देना पड़ता है। हमने भी कमरे के लिए आवेदन किया था। कोई जवाब तक नहीं मिला। सो हम बरामदे में धूप के कॉरिडोर में खड़े थे। जो बाहर से आए थे, हमसे पूछ रहे थे कि कमरे पर ताला क्यों है। 

हम परिसर में अपने सहकर्मी की मौत का शोक भी क़ायदे से, सम्मानपूर्वक नहीं मना सकते। इसी कार्यक्रम के लिए जब एक दूसरे  विभाग के अध्यक्ष से पूछा गया कि क्या उनके हॉल का इस्तेमाल कर लें, तो उन्होंने हाथ जोड़कर माफ़ी माँगी। क्यों धर्मसंकट में डालते हैं? पूछनेवाले को ही अपराध बोध हुआ। साईबाबा को अदालत ने पूरी तरह अपराध मुक्त घोषित करके उनकी सजा रद्द की थी। फिर उन्हें लेकर इतना संकोच क्यों?

 इस घटना की जानकारी नैक टीम को मिले तो क्या विश्वविद्यालय के नंबर कटेंगे या बढ़ेंगे?  लेकिन इससे जुड़ी एक और बात है। अध्यापक के तौर पर किसी के लिए  भी यह अपमानजनक है कि अधिकारी उसके पत्र को खाते में ही नहीं लाते, जवाब देना तो दूर की बात है। अगर कोई अपने अध्यक्ष को लिखे या डीन को या किसी और अधिकारी को तो न्यूनतम अपेक्षा जवाब की होती है। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान में भी ऐसे अनुभव दुर्लभ हैं। इसे सामान्य शिष्टाचार कहते हैं। लेकिन विश्वविद्यालय के अधिकारी इस शिष्टाचार का पालन करना आवश्यक नहीं मानते। 

विश्वविद्यालय में और सारी चीज़ों के अलावा इस शिष्टाचार या सभ्यता की शिक्षा भी दी जाती है। अभिवादन करना या अभिवादन  का उत्तर देना तो प्राथमिक है। जब अधिकारी, जो प्रायः इसी का पालन नहीं करते तो वे अपने आचरण से यही बतलाते हैं कि वे सामनेवाले को बात  करने लायक़ नहीं समझते। या यह कि वे अपनी शर्तों पर उसने संवाद करेंगे। 

विश्वविद्यालय से यह  सामान्य सभ्यता लुप्त होती जा रही है। यह औपचारिक और अनौपचारिक, दोनों स्तरों पर देखा जा सकता है। सहकर्मियों से संवाद रखने के औपचारिक मंच है। क्या उन्हें जीवित और सक्रिय रखा जाता है?  अध्यापक सहकर्मी बराबरी का अनुभव करते हैं या उनसे मातहत की तरह पेश आया जाता है?

साईबाबा की  स्मृति सभा के लिए इंतज़ार करते वक्त जो बात अखर रही थी वह क्या थी?  सभ्यता का अभाव ? अगर विश्वविद्यालय इसका अभ्यास नहीं करेंगे तो और कहाँ यह मिलेगी? इस समाज में जो ऊँच नीच की भावना से भरा हुआ है, जहाँ शक्ति को ही श्रेष्ठता का आधार माना जाता है, वहाँ मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देना इतना आसान नहीं, वहाँ  विश्वविद्यालय ही इस मनुष्यता के अभ्यास के परिसर हैं। वह बिना परस्परता के अभ्यास के संभव नहीं। वह भी बिना समानता के अभ्यास के मुमकिन नहीं। यह सब कुछ अभ्यासजन्य है। वह अभ्यास किया जा रहा है या नहीं? वह कैसे मालूम होगा? 

अगर विद्यार्थी को संवादहीनता का अहसास हो या अध्यापक मान ले कि बात करने का कोई फ़ायदा नहीं तो विश्वविद्यालय को भी सोचना चाहिए कि वह  विश्वविद्यालय कहलाने लायक़ है या नहीं। लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि क्या सभ्यता  विश्वविद्यालय के मूल्यांकन के लिए लिए एक वैध आधार है भी? 

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