तो बदल जाएगा रेलवे और भारतीय समाज का रिश्ता!
नेशनल मॉनीटाईजेशन पाइपलाइन से सबसे ज़्यादा पैसा भारतीय रेल से ही मिलेगा, लेकिन यह उसका चरित्र भी बदल देगा। क्या होगा भारतीय रेल का और क्या होगा इसकी रियायतों का, पढ़ें हरजिंदर को।
भारतीय रेलवे इन दिनों फिर से चर्चा में है। नेशनल मॉनीटाईजेशन पाइपलाइन के लिए सरकार ने जो भारी भरकम योजना तैयार की है, उसमें बहुत बड़ा योगदान भारतीय रेलवे का होगा।
इस योजना से सरकार ने कुल छह लाख करोड़ रुपये की आमदनी का अनुमान लगाया है, जिसमें सिर्फ रेलवे से ही 1.52 लाख करोड़ रुपये आएंगे। इसके लिए कईं रेलवे स्टेशन, प्लेटफ़ार्म और यहाँ तक कि ट्रेन तक का पट्टा निजी क्षेत्र के हवाले करने की तैयारी है।
निजी ट्रेन
इसके पहले पिछले साल जुलाई में निजी क्षेत्र को 150 ट्रेनें चलाने की इजाज़त दी गई थी, उस योजना का क्या हुआ, अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है।
तब यह कहा गया था कि निजी क्षेत्र जो ट्रेन चलाएगा उसका किराया तय करने का अधिकार उसका होगा। जिसका सीधा सा अर्थ यह लगाया गया कि इन ट्रेन में किराए पहले के मुकाबले काफी ज्यादा होंगे।
हालांकि नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत का तर्क था कि स्पर्धा बढ़ेगी तो आगे जाकर ये किराए कम हो जाएंगे।
यहाँ मामला किराए कम या ज्यादा होने भर का नहीं है, रेलवे से भारतीय समाज का एक खास तरह का रिश्ता रहा है जो इन बदलावों से पूरी तरह बदल सकता है। एक तरह से तो यह रिश्ता बदलना शुरू भी हो गया है।
भारतीय रेलवे सिर्फ लोगों को परिवहन सेवा देने वाली कंपनी नहीं है। यह सरकार के लोक कल्याण तंत्र की तरह भी काम करती रही है। सरकार की बहुत सारी दूसरी कल्याणकारी योजनाएँ जहाँ तक नहीं पहुँचती रेलवे वहाँ तक भी पँहुच जाता है।
रियायतें
गर्मियों की छुट्टी में छात्र अगर कहीं भी आना जाना चाहें तो रेलवे उन्हें किराए में विशेष छूट देता है। प्राथमिक कक्षाओं में 'देशाटन के लाभ' जैसे निबंध रटने वाले बच्चों में जब वाकई देश घूमने की इच्छा जागती है तो यह रियायत उनके अभिभावकों पर पड़ने वाले आर्थिक भार को बहुत ज्यादा बढ़ने नहीं देती।
ऐसी ही छूट उन बेरोजगारों को भी मिलती है, जो कहीं पर इंटरव्यू देने जा रहे होते हैं। साठ साल से अधिक उम्र की महिलाएं किराए में 50 फ़ीसदी की रियायत के साथ कहीं भी यात्रा कर सकती हैं। इतनी ही रियायत विकलांगों को भी मिलती रही है।
साठ साल से अधिक उम्र के पुरुषों को मिलने वाली रियायत 40 फीसदी होती है। कैंसर जैसे गंभीर रोगों के मरीजों को भी रेलवे विशेष रियायत देता रहा है। रेलवे के कम किराए के भरोसे ही बहुत से मजदूर काम की खोज में दूसरे शहरों और प्रदेशों की ओर चल पड़ते हैं।
दैनिक यात्रियों के लिए जो सुविधाएँ हैं उनका तो एक अलग ही संसार है। आप सौ रुपये का एक मासिक पास बनवाकर दिल्ली से गाजियाबाद की यात्रा चाहे जितनी बार भी कर सकते हैं। यही यात्रा अगर आप दिल्ली की मेट्रो ट्रेन से करें तो सौ रुपये में महज तीन बार ही आ-जा सकेंगे।
दैनिक यात्रियों के लिए कुछ विशेष ट्रेन चलती हैं जिन्हें ईएमयू कहा जाता है। इन ट्रेनों में एक अलग किस्म का डिब्बा होता है- विक्रेता डिब्बा।
यह विशेष रूप से खोमचे वालों और फुटपाथ पर सामान बेचने वालों की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया जाता है। वे अपने ज्यादा सामान के रख सकें इसके लिए उसमें बड़े रैक बनाए जाते हैं।
अर्थव्यवस्था में जिसे हम इनफार्मल सेक्टर कहते हैं उसको जितनी मदद रेलवे से मिलती है उतनी कहीं और से नहीं मिलती।
अनौपचारिक क्षेत्र की मदद
कम वेतन, कम दिहाड़ी और कम आमदनी वालों के लिए कार्यस्थल पर लाने ले जाने की जितनी बड़ी जिम्मेदारी रेलवे निभाता है उतनी कोई और नहीं निभाता। इनफार्मल सेक्टर के जरिये देश की जीडीपी बढ़ाने में भारतीय रेलवे का जितना योगदान है उस पर शायद ही किसी ने कोई अध्ययन किया हो।
इन सब का जिक्र इस समय इसलिए जरूरी है कि पिछले साल मार्च में इनमें से ज्यादातर रियायतें बंद कर दी गईं थीं। इन्हें बंद करने के पीछे तर्क था- कोविड 19 का संक्रमण।
महामारी के समय मदद
महामारी की वजह से लोगों और खासकर गरीबों के सामने खड़े संकटों की गिनती हम जब भी करते हैं तो अक्सर रेलवे की रियायतों के खात्मे की बात हम भूल जाते हैं। महामारी की वजह से जिनकी नौकरी गई या जिनकी आमदनी एकदम से गिर गई, संकट के समय आज का भारतीय रेलवे उनके साथ नहीं खड़ा रहा, इस बात को वे लोग शायद कभी नहीं भूलेंगे।
छह अगस्त को रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने लोकसभा में बताया था कि इन रियायतों को बहाल करने का सरकार को फिलहाल कोई इरादा नहीं है। मुमकिन है कि ये रियायतें कुछ समय बाद लौट भी आएं।लेकिन सरकार की तरफ से यह आश्वासन कहीं नहीं दिया गया कि ये रियायतें निजी क्षेत्र की ट्रेनों में भी पहले की तरह ही काम करेंगी।
हो सकता है कि जो ट्रेन निजी क्षेत्र के हवाले न की जाएं उनमें ये रियायतें और सुविधाएं चलती रहें, लेकिन तब रेलवे के कुल आपरेशन में इनकी हिस्सेदारी बहुत कम तो हो ही जाएगी। ऐसे बहुत से लोग होंगे जो इससे वंचित हो जाएंगे।
बहुत संभव है कि सरकार जो करने जा रही है उससे रेलवे की कुशलता और उसकी उत्पादकता बढ़ जाए, लेकिन इससे जिन गरीबों का आटा गीला होगा उनके बारे में भी कुछ सोचा गया है क्या?
रेलवे की संपत्ति को निजी क्षेत्र के हवाले करके जो 1.52 लाख करोड़ रुपये की आमदनी होगी क्या उस रकम के कुछ हिस्से से सरकार ऐसे लोगों की भी कोई भरपाई करेगी? इससे ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि राष्ट्रीय संपत्ति को लीज़ पर देने से सरकार के पास जो छह लाख करोड़ रुपये आएंगे क्या उसका कोई फायदा का आम लोगों तक भी पहंुचेगा? पहुँचेगा भी तो किस रूप में?