भारत के नौकरी संकट के बारे में एक सवाल के जवाब में, प्रधानमंत्री ने पूछा: "अगर पकौड़े बेचने वाला व्यक्ति दिन के अंत में 200 रुपये घर ले जाता है, तो क्या यह रोजगार नहीं है?" (जनवरी2018)।
पकौड़ा अर्थव्यवस्था
सवाल यह है: पाँच लोगों के लिए 6,000 रुपये माह (200x30) की कमाई क्या पर्याप्त होनी चाहिए? भारत की ग़रीबी रेखा 2011-12 में प्रति माह प्रति व्यक्ति ग्रामीण क्षेत्र में 817 रुपए और शहरी इलाक़े में 1,000 रुपए थी। अगर हम भारत की इस आधिकारिक ग़रीबी रेखा को 2019-20 तक प्रोजेक्ट करते हैं, तो पाँच लोगों के लिये ग़रीबी रेखा शहरी इलाक़ों में 7,340 रुपये और ग्रामीण इलाक़ों में 6,100 रुपए होगी। इसका मतलब है कि 'पकौड़े बेचने' से होने वाली आमदनी शहरी ग़रीबी रेखा की आय से भी कम होगी।
हम प्रति व्यक्ति खपत व्यय के सरकार के अपने माप के आधार पर ग़रीबी के आँकड़े तय करते हैं। भारत ने 2013 से उपभोग व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) के आँकड़े जारी नहीं किए हैं। हालाँकि राष्ट्रीय सर्वेक्षण संगठन (एनएसओ) हर पाँच साल में यह सर्वेक्षण करता है। लेकिन 2017-18 के उपभोग व्यय सर्वेक्षण को भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक नहीं किया गया था।
गिरती ग़रीबी
1973 से 2012 तक जनसँख्या में ग़रीबी का अनुपात घट रहा था।
भारत ने 1973 से ग़रीबी का अनुमान एकत्रित करना शुरू किया, उस समय से ग़रीबी का अनुपात लगातार गिर रहा था। 1973-44 में यह 54.9% था; 1983-84 में 44.5%; 1993-94 में 36% और 2004-05 में 27.5% था।
ग्रामीण ग़रीबी
ये अनुमान लकड़ावाला ग़रीबी रेखा पर आधारित थे, जिसका नाम एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री के नाम पर रखा गया था। 2011 में, सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समूह की सिफारिशों के अनुसार, इस राष्ट्रीय ग़रीबी रेखा को संशोधित किया गया था।
चूंकि भारत की अधिकांश आबादी (65% से अधिक) ग्रामीण है, भारत में ग़रीबी भी मुख्य रूप से ग्रामीण है। बता दें कि 2019-20 (जून 2020 तक) तक, ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में ग़रीबी काफी बढ़ी है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि यह 2017-18 के उपभोग व्यय सर्वेक्षण डेटा के अनुरूप है जो डेटा लीक हो गया था। लीक हुए आँकड़ों से पता चला है कि 2012 और 2018 के बीच ग्रामीण खपत में 8% की गिरावट आई थी, जबकि शहरी खपत में मुश्किल से 2% की वृद्धि हुई थी।
गरीबों की संख्या बढ़ी
भारत में ग़रीबी का आकलन शुरू होने के बाद पहली बार, ग़रीबों की पूर्ण संख्या बढ़ी है। ग्रामीण क्षेत्रों में ग़रीबी का आँकड़ा 2012 के 21.7 करोड़ से बढ़ कर 2019-20 में 23.7 करोड़ हो गया। शहरी क्षेत्रों में ग़रीबी का आँकड़ा 5.3 से 5.04 करोड़ तक बढ़ा है।
भारत के ग़रीबों की संख्या में वृद्धि जून 2020 तक केवल आठ वर्षों में 1.52 करोड़ हुई है। यह 1973 के बाद से भारत के इतिहास में पहली बार हुआ है, 2011-12 और 2019-20 के बीच गरीबों की पूर्ण संख्या में वृद्धि हुई है।
1973-1993 में नहीं बढ़ी ग़रीबी
दो तथ्य सामने आते हैं- 1973 और 1993 के बीच, भारत की कुल जनसंख्या में उल्लेखनीय वृद्धि के बावजूद, ग़रीबों की पूर्ण संख्या स्थिर रही। यह लकड़ावाला लाइन के अनुसार लगभग 32.0 करोड़ पर रही।
इसके बाद 1993 और 2004 के बीच गरीबों की पूर्ण संख्या 32 करोड़ से 30.2 करोड़ हो गई, यानी इसमें 1.8 करोड़ की मामूली गिरावट आई। यह वह समय था जब आर्थिक सुधारों के बाद सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि बढ़ी थी।
इसका मतलब यह हुआ कि 2012 और 2019- 20 के दौरान भारत के इतिहास में पहली बार ग़रीबों की संख्या में वृद्धि हुई है।
कब ग़रीबी घटी?
दूसरा तथ्य यह है कि पहली बार 2004-05 और 2011-12 के बीच गरीबों की संख्या में 13.7 करोड़ या प्रति वर्ष लगभग 2 करोड़ की गिरावट आई। यह भारत के विकास दर के कारण था। 2004 और 2014 में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर औसतन 8% प्रति वर्ष थी - विकास की यह लगातार दर पहले या बाद में कभी हासिल नहीं हुई।
तो प्रश्न यह उठता है की ऐसा क्या हुआ पिछले 7 वर्षों में की गरीबों की संख्या बढ़ गयी? 2013 से गरीबी के बिगड़ने के कई कारण हैं।
क्यों बढ़ी ग़रीबी?
एक, 2015 और 2019 के बीच जीडीपी वृद्धि दर 6% से नीचे गिर गई थी। ग़रीबी बढ़ने का यह एक कारण है।
2020 के कोरोना काल के कारण आर्थिक संकुचन से इसका कोई लेना देना नहीं था। अर्थात यह स्थिति कोरोना से पहले की आर्थिक नीतियों का परिणाम है, जिनमे 2016 में नोटबंदी और 2017 में मनमाने ढंग से जीएसटी लागू करना शामिल हैं।
बेरोज़गारी
दो, ग़रीबी बढ़ने का दूसरा कारण है बरोज़गारी। विकास दर कम होने से युवा बेरोज़गारी दर में 2012-2020 के दौरान 6.1% से 15% में भारी वृद्धि हुई।
तीसरा कारण है कि समाज के कई वर्गों के लिए वास्तविक मजदूरी में गिरावट का आना।
इसके साथ दूसरी बातें भी हैं- कार्यबल में एक चौथाई से कम नियमित वेतन कर्मी हैं; एक तिहाई देहाड़ी या दैनिक वेतन श्रमिक हैं और शेष आधे स्वरोजगार कर रहे हैं। शहरी भारत में नियमित वेतनभोगी श्रमिकों के लिए वास्तविक मजदूरी दर में बड़े पैमाने पर गिरावट आयी है।
चूंकि दिहाड़ी या दैनिक वेतन श्रमिक मजदूरी में गिरावट है, इसलिए ग़रीबों की संख्या में वृद्धि हुई है।
सरकार कहती है कि भारत को नौकरी देने वालों की ज़रूरत है, नौकरी चाहने वालों की नहीं। इसे आत्मनिर्भरता के रूप में प्रचारित किया जाता है। एक विपक्षी दल ने सरकार के 'पकौड़े को रोजगार' के वक्तव्य के जवाब में कहा था, "अगर पकौड़े को रोज़गार के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, तो भीख माँगने को भी रोज़गार में शामिल किया जाना चाहिए।"
(प्रोफ़ेसर संतोष मेहरोत्रा जर्मनी के बॉन स्थित आईज़ेडए इंस्टीच्यूट ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स में रीसर्च फेलो हैं।)