सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जिस तरह पिछले कुछ समय से पाकिस्तान से हाथ खींचने लगे हैं और कश्मीर के मुद्दे पर उसके साथ कदम से कदम मिला कर चलने से इनकार कर रहे हैं, उससे कुछ लोगों को ताज्जुब हो रहा है। पर यह ताज्जुब की बात इसलिए नहीं है कि रियाद अब भविष्य की आर्थिक स्थिति पर सोच रहा है, वह तेल-आधारित अर्थव्यवस्था से बाहर निकल कर समानान्तर अर्थव्यवस्था विकसित करना चाहता है और इसमें उसे फ़ायदा भारत के साथ रहने में है, पाकिस्तान के साथ नहीं है।
दूसरे, कश्मीर रियाद के लिए बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है। वह इस पर एक सीमा से आगे नहीं जा सकता। पाकिस्तान और सऊदी अरब के हित अलग-अलग हैं और अब उनके रास्ते भी अलग हो रहे हैं।
द्विपक्षीय व्यापार
इसे आर्थिक कारणों से समझते हैं। पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने की वजह से सऊदी अरब के साथ उसका द्विपक्षीय व्यापार भारत की तुलना में बहुत ही कम है। वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान पाकिस्तान-सऊदी अरब के बीच 1.871 अरब डॉलर का दोतरफ़ा व्यापार हुआ। पाकिस्तान ने सऊदी अरब से 1.7 अरब डॉलर का आयात किया, लेकिन वह उसे सिर्फ 170 मिलियन डॉलर यानी 17 करोड़ डॉलर का ही निर्यात कर सका।
भारत-सऊदी अरब के बीच 2017-18 के दौरान 27.48 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ। भारत ने सऊदी अरब से 22 अरब डॉलर का आयात किया तो उसने रियाद को 5.41 अरब डॉलर का निर्यात किया।
संयुक्त अरब अमीरात
एक नज़र डालते हैं संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई से इन दोनों देशों के साथ व्यापार पर। संयुक्त अरब अमीरात के साथ पाकिस्तान के आर्थिक रिश्ते सऊदी अरब की तुलना में थोड़ा ज़्यादा है। पर वह भारत-सऊदी व्यापार की तुलना में बहुत ही कम है।
यूएई-पाकिस्तान के बीच 2017 में 8.3 अरब डॉलर का व्यापार हुआ। भारत-यूएई के बीच 2018 में द्विपक्षीय व्यापार 60 अरब डॉलर का हुआ था। संयुक्त अरब अमीरात भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापार पार्टनर है।
निवेश
निवेश में दोनों देशों के बीच अधिक बड़ा अंतर है। सऊदी अरब के शहज़ादा मुहम्मद बिन सलमान 2018 में पाकिस्तान यात्रा पर गए तो 20 अरब डॉलर के निवेश का एलान कर दिया। इसमें 10 अरब डॉलर तेल साफ़ करने के कारखाने यानी रिफ़ाइनरी में लगना था।यह पाकिस्तान के लिए बहुत बड़ी राहत की बात इसलिए थी कि यह वह समय था जब पाकिस्तान सरकार के पास कर्मचारियों को वेतन भुगतान करने तक का पैसा नहीं था और विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पैसे देने से साफ़ इनकार कर दिया था। आईएमएफ़ काफी मान मनौव्वल और अमेरिका के कहने के बाद 6 अरब डॉलर क़र्ज़ पर राजी हुआ और भी कई चरणों में कई वर्षों में और कई शर्तों के लागू करने के बाद।
बदलती अर्थव्यवस्था
लेकिन सऊदी शहज़ादे ने जब 2019 में भारत का दौरा किया तो उन्होंने 44 अरब डॉलर के निवेश की योजना का एलान कर दिया। इसका बड़ा हिस्सा रिलायंस के साथ मिल कर रिफ़ाइनरी बनाने की परियोजना में लगना था। सऊदी अरब की सरकारी कंपनी सऊदी एरमको इसके लिए पैसे लगाएगी।
सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के भारत में निवेश की बड़ी वजह यह है कि वे देश अब यह अच्छी तरह मानते हैं कि तेल का भंडार ख़त्म हो रहा है और अगले 20-30 सालों में तेल के कुएं सूख जाएँगे। इसलिए यह ज़रूरी है कि अब दूसरे क्षेत्रों निवेश किया जाए ताकि तेल के बाद भी आर्थिक विकास होता रहे।
इसलिए सऊदी अरब भारत के साथ मिल कर कई तरह की ग़ैर-तेल परियोजनाओं पर काम कर रहा है। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि 322 भारतीय कंपनियाँ सऊदी अरब में विभिन्न परियोजनाओं पर काम कर रही हैं। ये कंपनियां किसी न किसी सऊदी कंपनी की साझेदार हैं।
पाकिस्तान-सऊदी तनाव
पिछले दिनों जब इसलामाबाद और रियाद के संबंधों में कटुता घुली तो सऊदी अरब ने पाकिस्तान को तेल निर्यात करने का क़रार का नवीकरण नहीं किया। संयोग से यह क़रार उसके थोड़ा पहले ही ख़त्म हुआ था और सऊदी अरब को इसे नवीकरण करना था।तनाव बढ़ने की वजह से सऊदी अरब ने तेल का क़रार नहीं बढ़ाया तो तेल का निर्यात भी रुक गया। इसके पहले यानी 2019 में सऊदी शहजादे ने पाकिस्तान को 6.2 अरब डॉलर का क़र्ज़ देने की बात कही थी। इसमें से 3 अरब डॉलर नकद था और 3.2 अरब डॉलर का तेल उसे देना था।
तेल निर्यात रुक जाने पर पाकिस्तान ने रियाद को एक अरब डॉलर समय से पहले ही लौटा दिया।
बदलते समीकरण
सवाल यह उठता है कि पाकिस्तान सऊदी अरब को नाराज़ करते वक़्त इससे होने वाले आर्थिक नुक़सान के बारे में क्या नहीं सोच रहा है। भले ही यह कहा जाए कि पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी ने सऊदी अरब को गुस्से में कह दिया कि वह कश्मीर के मुद्दे पर ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ इसलामिक कोऑपरेशन के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाये, वर्ना पाकिस्तान ख़ुद बुलाएगा। पर अंतरराष्ट्री राजनीति में इस तरह निजी गुस्से या मनमर्जी से फ़ैसले नहीं लिए जाते न ही बग़ैर सोचे समझे बयान दिए जाते हैं।
पाकिस्तान के साथ सबसे बड़ी बात यह है कि उसके साथ उसका ऑल वेदर फ्रेंड यानी सुख दुख का साथी चीन खड़ा है। चीन ने बॉर्डर रोड इनीशिएटिव की परियोजनाओं के तहत पाकिस्तान में 60 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है।
यह सऊदी अरब की तमाम योजनाओं और आर्थिक मदद से अधिक है।
पाकिस्तान में दबे शब्दों में चीन की परियोजनाओं का विरोध इस आधार पर होने लगा है कि ये तमाम परियोजनाएं काफी महँगी हैं। ये चीन की ज़रूरतों के मुताबिक है, चीन की अपनी ज़रूरतों से अधिक के उत्पाद को खपाने के लिए है और मूल मक़सद चीनी उत्पादों यूरोप, लातिन अमेरिका और अफ्रीका के बाज़ारों तक पहुँचाना है। इसके बावजूद पाकिस्तान चीन के साथ है क्योंकि उसे उसकी ज़रूरत है भारत की वजह से, अमेरिका की वजह से, अफ़ग़ानिस्तान की वजह से और पैसे की वजह से।
पाक-सऊदी के बीच भारत
इसलिए पाकिस्तान सऊदी अरब को लेकर बहुत चिंतित नहीं है। चूंकि उसकी पूरी विदेश नीति ही भारत-केंद्रित है और उसके फ़ैसले भारत को रोकने या उसके उलट नतीजों के लिए होते हैं, इस मामले में पाकिस्तान की नीति यही है।
सऊदी अरब भारत के साथ संबंध इसलिए बढ़ा रहा है कि उसे भारत का बहुत बड़ा बाज़ार और विशाल मध्यवर्ग दिख रहा है। भारत में होने वाले निवेश आगे चल कर सऊदी अरब को उससे कई गुना पैसा वापस करेगा। इसलिए वह भारत की ओर बढ़ रहा है।
पाकिस्तान की न तो जनसंख्या बहुत बड़ी है, न ही उसकी अर्थव्यवस्था दमदार है और न ही उसके पास बहुत बड़ा बाज़ार और मध्यवर्ग है। इसलिए सऊदी अरब की प्राथमिकता पाकिस्तान नहीं है।
सऊदी पर पाक दबाव
लेकिन पाकिस्तान को यह दिखाना है कि यदि सऊदी अरब उसके साथ नहीं भारत के साथ खड़ा है, यह उसे बर्दाश्त नहीं है। इसलिए पाकिस्तान की कुल नीति सऊदी अरब पर यह दबाव डालना है कि वह भारत से नजद़ीकी न बनाए।
सऊदी अरब कश्मीर के मुद्दे पर ध्यान देने के बजाय अपना आर्थिक हित देख रहा है और वह आर्थिक हित भारत के साथ है। इसलिए वह कश्मीर के मुद्दे पर शांति बरतता है, एक सीमा से आगे नहीं जाना चाहता।
वह ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक सिर्फ इसलिए नहीं बुलाना चाहता कि इससे भारत की फजीहत हो और रिलायंस के साथ क़रार पर कुछ दिक्क़त हो।
कश्मीर
पाकिस्तान की रणनीति यह है कि वह कश्मीर के मुद्दे पर सऊदी अरब पर दबाव बनाए, विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाए और उसमें भारत की तीखी आलोचना हो। हालांकि ओआईसी का कोई फ़ैसला भारत के लिए बाध्यकारी नहीं होगा, उसकी आलोचना से भारत का कुछ ख़ास नहीं बिगड़ेगा। पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनामी ज़रूर होगी।पाकिस्तान की यह रणनीति हो सकती है कि वह सऊदी अरब पर दबाव डाल कर तुर्की, मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों को आगे लाए। तुर्की की आर्थिक स्थिति यह नहीं है कि वह पाकिस्तान की कोई ख़ास मदद कर सके। इंडोनेशिया और मलेशिया खुद अपने-अपने व्यापारिक हितों की वजह से भारत के साथ रिश्ते बेहतर चाहते हैं। वे भी पाकिस्तान की आर्थिक मदद नहीं कर सकते।
लेकिन इंडोनेशिया, मलेशिया और तुर्की मिल कर सऊदी अरब के ख़िलाफ़ मुसलिम जगत में एक समानान्तर राजनीति ज़रूर कर सकते हैं, रियाद का विकल्प बन सकते हैं।
इस मुसलिम राजनीति के ऊपर सऊदी अरब अपना आर्थिक हित देख रहा है, पाकिस्तान चीन से मिलने वाले पैसे को लेकर निश्चिंत है। इसलिए कश्मीर मुद्दा पाकिस्तान के लिए ज़रूर है, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के लिए नहीं।
पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे पर इसलिए भी सऊदी पर दबाव बढ़ा रहा है कि उसकी घरेलू राजनीति में यह सबसे अहम बिन्दु है कश्मीर पर सभी पाकिस्तानी राजनीतिक दल एकमत हैं। उनमें अंतर होता है तो सिर्फ़ इस पर कि भारत पर कब और कितना दबाव बनाया जाए। कब कौन दल सरकार में है और कब विपक्ष में।
सऊदी अरब में लोकतंत्र नहीं है, राजशाही है। शहजादे मुहम्मद बिन सलमान के हाथ पूरी सत्ता है, वह अपनी मनमर्जी से अपने राज्य के हित को देख कर फ़ैसला करते हैं। उनकी नज़र में महत्वपूर्ण आर्थिक हित है, कश्मीर उसके बाद। पाकिस्तान और सऊदी अरब के रिश्ते बिगड़ने की मूल वजह यह हितों में टकराव है, अपनी-अपनी ज़रूरतें हैं।