जीडीपी विकास दर 7.2 है तो कंपनियों की बिक्री कम क्यों हो रही?

09:24 pm Dec 23, 2024 | राकेश कायस्थ

`कसम धंधे की मैं झूठ नहीं बोलता’। पुरानी हिंदी फ़िल्मों में सुनाई देनेवाला यह डायलॉग पूरी तरह सच है। धंधे से जुड़ा कोई भी आदमी कम से कम अर्थव्यवस्था के बारे में झूठ नहीं बोलता है। इसलिए अगर आपको देश की इकॉनमी का हाल जानना हो तो उद्योग जगत और शेयर मार्केट को सुनिये।

लोकसभा चुनाव के दौरान `अबकी बार चार सौ पार’ का जो संकीर्तन चल रहा था, उसमें उद्योग जगत सबसे आगे था। लेकिन इस कीर्तन के साथ एक मिमियाती हुई आवाज भी आ रही थी ‘महँगाई की वजह से बाजारों में बहुत सुस्ती है। बिक्री नहीं हो रही है, सरकार ध्यान दे तो अच्छा होगा।‘

इसी तरह की मिमियाती आवाज़ में कुछ लोग ये भी पूछ रहे थे कि अगर जीडीपी की विकास दर वास्तव में 7.2 है तो फिर उनकी कंपनी की बिक्री और मुनाफा कम क्यों हो रहे हैं। विरोध का दबा हुआ स्वर अब कोरस में बदल गया है। यकीन ना हो तो कोई भी बिजनेस चैनल खोलकर देख लीजिये।

उद्योग जगत और शेयर बाजार से जुड़े लोग खुलेआम कहने लगे हैं कि इस समय इकॉनमिक गर्वनेंस के नाम पर देश में मजाक चल रहा है। इस गुस्से का कारण वो आँकड़े हैं, जो एक नंगी सच्चाई की तरह हम सबके सामने है।

देश की सबसे बड़ी पेंट कंपनी और शेयर बाजार का सुरक्षित निवेश मानी जानेवाली एशियन पेंट्स ने अपनी बिक्री में दस प्रतिशत से ज्यादा गिरावट दर्ज की है। ऐसा कंपनी के इतिहास में लंबे समय बाद हुआ है। सबसे बड़ी कंज्यूमर कंपनी हिंदुस्तान यूनिलिवर की बिक्री दो साल से स्थिर है। यही हाल नेस्ले, मैरिको और डाबर जैसी बड़ी कंपनियों के है। उनकी बिक्री या तो स्थिर है या फिर घट रही है।

आँकड़ों पर लीपा-पोती करके आप आम आदमी को बेवकूफ बना सकते हैं। लेकिन उद्योग जगत और शेयर मार्केट के पास तथ्यों को जाँचने के अपने तरीके होते हैं। कई विशेषज्ञ कह रहे हैं कि अगर जीडीपी की विकास दर वही है जो सरकार बता रही है तो फिर टॉप कंज्यूमर कंपनियों की ग्रोथ रेट कम से कम 10 फीसदी और बैंकिंग सेक्टर की विकास दर 15 प्रतिशत होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो सरकारी आंकड़ों में कुछ झोल है।

सरकार ने 7.2 प्रतिशत की विकास दर के आंकड़े कई तिमाहियों में इस तरह पेश किये कि 7.2 परसेंट एक मीम मैटेरियल बन गया। यानी सारे नंबर इधर के उधर हो जाएंगे लेकिन भारत की विकास दर 7.2 प्रतिशत ही रहेगी।

आखिरकार मौजूदा तिमाही के सरकारी आँकड़ों में पहली बार माना गया है कि जीडीपी की विकास दर में गिरावट है। सरकार के हिसाब ये विकास दर 5.4 प्रतिशत है। लेकिन जानकार इस दावे से भी संतुष्ट नहीं है। उनका कहना है कि गणना पद्धति में बदलाव की वजह से ये आँकड़ा आया है।

अगर मनमोहन सरकार के दौर में इस्तेमाल होनेवाली पद्धति से देखें तो वास्तविक आँकड़ा डेढ़ से तीन प्रतिशत के बीच होना चाहिए। अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्री तो ये भी कह रहे हैं कि जीडीपी ग्रोथ माइनस में है।

महँगाई की दर को लेकर चालबाजियाँ बरतने के इल्जाम लगते आये हैं। प्याज की क़ीमत बढ़ने पर वित्त मंत्री ने सफाई दी थी-- मैं प्याज नहीं खाती। इस बात के इल्जाम लगते आये हैं कि जिन उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत बढ़ती है, सरकार उन्हें थोक मूल्य सूचकांक से बाहर कर देती है, ताकि आँकड़ा मन-माफिक आये।

भारत जिस तरह की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था पर चल रहा है, उसका मुख्य आधार उपभोग है। उपभोग तभी बढ़ेगा जब आम आदमी के हाथ में पैसा होगा। सरकारी आँकड़ों को छोड़िये आप सिर्फ ये देख लीजिये कि पिछले दो-तीन साल में आपकी आमदनी और क्रय शक्ति कितना बढ़े हैं। 

आमदनी ठन-ठन गोपाल और क्रय-शक्ति घटती जा रही है। उधर सरकारी खजाना बढ़ता जा रहा है। सरकार बहादुर इस बात पर अपनी पीठ ठोंक रहे हैं कि नये तरीकों से टैक्स लगाकर हमने अपनी वसूली बढ़ाई है। सरकार की जेब भरने की सारी जिम्मेदारी इनकम टैक्स चुकाने वाले दस करोड़ लोगों पर है। यही लोग सरकार का एटीएम हैं। गर्दन पकड़कर मनमाने तरीके से इनसे पैसे वसूले जा सकते हैं।

सरकारी राजस्व में इनकम टैक्स का योगदान कॉर्पोरेट टैक्स को पार कर चुका है। कॉर्पोरेट जगत से सरकारों का रिश्ता आपसी लेन-देन का होता है, ये बात पूरी दुनिया जानती है लेकिन आम करदाता सिर्फ देने के लिए है। टैक्स वसूलना अच्छी बात है लेकिन सरकार की जिम्मेदारी है कि उन पैसों का इस्तेमाल वह विवेकपूर्ण तरीक़े से रोजगार के साधन पैदा करने और सेवाओं का स्तर सुधारने में करे। लेकिन ये पैसा सिर्फ चुनाव जीतने में खर्च हो रहा है।

वोट के बदले सीधे एकाउंट में पैसे ट्रांसफर करने का जो खेल शुरू हुआ है, वो अब किसी के रोके नहीं रुकने वाला है। प्रधानमंत्री जिस मनरेगा को गड्ढे खोदने का कार्यक्रम कहकर मजाक उड़ाते थे, उस योजना ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई थी। मोदी राज में पांच किलो अनाज है और हर राज्य में 2100 रुपये का चुनावी लिफाफा है, जो देश की विशाल आबादी को निठल्लों की जमात में बदल रहा है।

अधिकतम इनकम टैक्स और जीएसटी की चौतरफा मार से पीड़ित  करदाता क्या करेगा? मुर्गी का पेट फाड़कर सारे अंडे एक बार में निकालने की जिद यकीनन पूरे देश में एक नई समानांतर अर्थव्यवस्था को जन्म देगी और यह भारत के भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा।