चुनाव मैदान से लेकर टीवी चैनलों पर यह बहस चल रही है कि प्रधानमंत्री नीच हैं या नीची जाति के हैं, पर क़ायदे से यह बहस होनी चाहिए थी कि क्या देश आर्थिक मंदी की चपेट में आ चुका है या आने वाला है। बीते एक पखवाड़े से लगभग हर रोज़ एकाधिक ख़बरें आर्थिक बदहाली और गिरावट की आ रही हैं पर वित्त मंत्री भी जब बोलते हैं तो दिखावटी चुनावी मुद्दों पर ही। ये ख़बरें बीते चार महीनों से आ रही थीं, पर एक एक करके लेकिन अब चौतरफ़ा गिरावट की ख़बरें हैं। अमेरिका और चीन के टकराव में हम पिसें न पिसें, यदि मानसून के ख़राब रहने की भविष्यवाणी ही सच हो जाएगी तो हाहाकार मच जाएगा और दुनिया की सबसे तेज़ विकास वाली या छठे नम्बर की अर्थव्यवस्था होने का दावा कहीं काम नहीं आएगा। जी हाँ, अब आर्थिक विकास दर से लेकर महँगाई जैसे आँकड़े भी गिरावट दिखा रहे हैं। पिछले एक साल से खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फ़ीति ऊपर की ओर जा रही है।
बेरोज़गारी के आँकड़े सरकार छुपा रही है, जीडीपी की गणना का आधार बदल दिया गया है (जिससे क़रीब दो फ़ीसदी का अंतर आने के आरोप हैं)। लेकिन जो चीजें छन-छन कर बाहर आ रही हैं वे चिंता पैदा करती हैं। अगर ऑटोमोबाइल की बिक्री कई सालों में सबसे कम हुई है तो यह उपभोक्ता बाजार के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
अगर ग्रामीण मज़दूरी में तेज़ी से गिरावट, ग्रामीण रोज़गार में बीस फ़ीसदी और महिलाओं के रोज़गार में क़रीब तीस फ़ीसदी की गिरावट की ख़बरें आ रही हैं तो यह पूरे उपभोक्ता बाजार के लिए ख़तरे के संकेत हैं।
रोज़गार के अवसर पैदा करने के मामले में 8.1 फ़ीसदी की कमी आई है तो अकेले जेट और बीएसएनएल के संकट को नहीं दिखाता, बल्कि यह पूरे देश में रोज़गार की ख़राब स्थिति को दिखाता है। यह मोदी जी के लिए सिर्फ़ चुनावी मुश्किल का सवाल नहीं है, यह कहीं न कहीं नोटबन्दी के ग़लत फ़ैसले और जीएसटी की मार का भी नतीजा है और इनके प्रभाव मद्धिम पड़ने की जगह एक शृंखला में ज़्यादा नुक़सान पहुँचाते जा रहे हैं।
माँग लगातार गिर रही है
अब तो औद्योगिक उत्पादन में 21 महीने का न्यूनतम स्तर यही बताता है कि माँग गिरती गई है। पेट्रोलियम पदार्थों की क़ीमतें बढ़ रही हैं और माँग भी पहली बार घटती जा रही है। सात तिमाहियों में पेट्रोलियम पदार्थों की इतनी कम ख़पत नहीं हुई थी। बिजली का उत्पादन पाँच साल में पहली बार नीचे जाने लगा है। इस्पात का उत्पादन लगातार दूसरी तिमाही में घटा है। इन सबका कुल अर्थव्यवस्था पर भी असर दिख रहा है। 8.1 फ़ीसदी जीडीपी विकास दर के साथ शुरू हुए इस सरकार के कार्यकाल में आँकड़ों का आधार बदलने के बावजूद अब इसके सात फ़ीसदी के भी नीचे चले जाने का ख़तरा लग रहा है। जेएनयू में प्रोफ़ेसर रहे अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार का मानना है कि यह गिनती भी संगठित क्षेत्र की है (जिसका आधार बनने वाली 37 कम्पनियों के फ़्रॉड निकलने की ख़बर भी है)। ज़्यादा बदहाली असंगठित क्षेत्र में है और अगर उसका हिसाब लगाया जाए तो हालत और ख़राब दिखेगी।
आयात बढ़ने का असर
जो और चीजें दिख रही हैं वे भी कम भयावह नहीं हैं। बैंक क्रेडिट के उठान में एक लाख करोड़ रुपए की कमी आई है। हमारा पिछले पाँच साल का निर्यात कभी भी 2014 के स्तर के क़रीब भी नहीं पहुँचा है जबकि पेट्रोलियम की क़ीमतों में निरंतर भारी कमी (अब यह भी बढ़ने लगा है) के बावजूद हमारा आयात बढ़ता गया है। अब तो अमेरिका बनाम चीन की खुली लड़ाई में पेट्रोलियम की क़ीमतें चढ़ने और रुपए की गिरावट (जिसके दस फ़ीसदी तक गिरने की आशंका जताई जाने लगी है) के साथ अमेरिका से व्यापार में आने वाली मुश्किलों से क्या-क्या होगा, यह किसी की चिंता का विषय नहीं है। इस बीच अमेरिका के डर से हमने ईरान से तेल लेना बन्द कर दिया है (पहली मई से ही) और जब ईरान के तेल मंत्री भारत आए तो उनको भी यह कहकर बैरंग लौटा दिया गया कि चुनाव बीतने के बाद इस पर कोई फ़ैसला लिया जाएगा। ईरान हमें सस्ता तेल देता है और उसे डॉलर की जगह रुपए में भुगतान देने की सुविधा भी थी।
नोटबंदी-जीएसटी का असर
सरकार और बाजार के पक्षधर कहते रहे हैं कि सरकार ने कुछ बड़े स्ट्रक्चरल बदलाव किए हैं उसी से स्थिति डाँवाडोल दिख रही है, जब बदलाव का असर शुरू होगा तो तेज़ नतीजे दिखेंगे। पर विरोधियों का मानना है कि कालाधन रोकने के नाम पर हुई नोटबन्दी और पूरे देश में एक कर प्रणाली के नाम पर लाई गई जीएसटी का नुक़सान अब सामने आने लगा है। इन दोनों ने तबाही मचा दी है। ठीक उसी समय अपनी अर्थव्यवस्था पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' की गयी जब यह सचमुच उड़ान भरने की स्थिति में थी। यूपीए-2 के समय दिखी गिरावट के बाद अर्थव्यवस्था जैसे ही संभलनी शुरू हुई, सरकार के इन दो फ़ैसलों ने उसकी कमर तोड़ दी। पहले मोदी की ‘सनक’ के बाद अब ट्रम्प की ‘सनक’ को हम झेल पाएँगे या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा लेकिन अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर में आ चुकी है।
और इस चर्चा को हम चाहे बेमतलब चुनावी चर्चा से ढक दें या ढकवा लें, दुनिया में उसकी चर्चा होने लगी है। अपने यहाँ भी अँग्रेज़ी मीडिया ही ऐसी ख़बरें सामने ला रहा है। कोई दिन नहीं बीतता जब एक-दो निराशाजनक ख़बरें नहीं आतीं हैं। प्रधानमंत्री भले इसे ख़ान मार्केट गैंग की क़ारस्तानी बताएँ लेकिन यह सच्चाई है। और अचरज नहीं कि देश की एक प्रमुख अंग्रेज़ी पत्रिका तो इस बदहाली पर कवर स्टोरी करती ही है, टाइम और इकोनॉमिस्ट जैसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ भी प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के फ़ैसलों के बुरे असर पर कवर स्टोरी करने लगी हैं।