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यह महंगाई नहीं, नग्न बाज़ारवाद का निर्लज्ज प्रदर्शन है!

यह महंगाई नहीं, नग्न बाज़ारवाद का निर्लज्ज प्रदर्शन है!

वैसे तो पिछले लंबे समय से अर्थव्यवस्था के क्षेत्र से आ रही लगभग सभी ख़बरें निराश करने वाली ही हैं, लेकिन इन दिनों बेरोज़गारी में इजाफ़े के साथ ही सबसे बड़ी और बुरी ख़बर यह है कि आम आदमी को महंगाई से राहत मिलने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं।

वैसे तो पिछले लंबे समय से अर्थव्यवस्था के क्षेत्र से आ रही लगभग सभी ख़बरें निराश करने वाली ही हैं, लेकिन इन दिनों बेरोज़गारी में इजाफ़े के साथ ही सबसे बड़ी और बुरी ख़बर यह है कि आम आदमी को महंगाई से राहत मिलने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं।

महंगाई की मार!

अनाज, दाल-दलहन, चीनी, फल, सब्जी, दूध, दवा इत्यादि आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं। फिलहाल अंदेशा यही है कि कीमतें बढ़ने का सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। आवश्यक वस्तुओं की कीमतों की इस मार को महंगाई कहना उचित या पर्याप्त नहीं है। यह साफ तौर पर बाज़ार द्वारा सरकार के संरक्षण में जनता के साथ की जा रही लूट-खसोट है। 

ऐसा नहीं है कि महंगाई का कहर कोई पहली बार टूटा हो। महंगाई पहले भी होती रही है। ज़रूरी चीजों के दाम पहले भी अचानक बढ़ते रहे हैं, लेकिन थोड़े समय बाद फिर नीचे आए हैं।

लेकिन इस समय तो मानो बाज़ार में आग लगी हुई है। वस्तुओं की लागत और उनके बाज़ार भाव में कोई संगति नहीं रह गई।

आम आदमी लाचार और असहाय होते हुए जिस सरकार से आस लगाए हुए है कि वह कुछ करेगी, वह सरकार सिर्फ निर्गुण विकास और राष्ट्रवाद का बेसुरा राग अलापते हुए जनता को आत्मनिर्भर बनने की नसीहत दे रही है।

वजह

सरकार की नीतियों से महंगाई बढ़ती जा रही है और वह ख़ुद भी आए दिन पेट्रोल और डीज़ल के दाम बढ़ाकर देश के आर्थिक विकास के लिए ज़रूरी बता रही है। हालांकि पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ने पर सरकार की ओर से सफाई दी जाती है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें पेट्रोलियम कंपनियां तय करती हैं और उन पर सरकार का नियंत्रण नहीं है।

यह दलील पूरी तरह बकवास है, क्योंकि हम देखते हैं जब भी किसी राज्य में चुनाव चल रहे होते हैं तो उस दौरान कुछ समय के लिए पेट्रोल-डीज़ल के दाम स्थिर हो जाते हैं या उनमें मामूली कमी आ जाती है। जैसे ही चुनाव प्रक्रिया ख़त्म होती है, पेट्रोल-डीजल के दाम फिर बढ़ने लगते हैं।

मुनाफ़ाखोरी

बहरहाल सरकार की ओर से आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में उछाल के जो भी स्पष्टीकरण दिए गए हैं, वे कतई विश्वसनीय नहीं हैं। पिछले साल मानसून कमज़ोर रहा या पर्याप्त बारिश नहीं हुई, ये ऐसे कारण नहीं हैं कि इनका असर सभी चीजों पर एक साथ पड़े। 

इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि कीमतें इतनी ज़्यादा होने के बावजूद बाज़ार में किसी भी आवश्यक वस्तु का अकाल-अभाव दिखाई नहीं पड़ता। जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती हैं और उनकी कालाबाज़ारी शुरू हो जाती है। 

अभी न तो जमाखोरी हो रही है और न ही कालाबाज़ारी। हो रही है तो सिर्फ और सिर्फ बेहिसाब-बेलगाम मुनाफ़ाखोरी।

सरकारी हस्तक्षेप!

तीन दशक पहले तक जब किसी चीज के दाम असामान्य रूप से बढ़ते थे तो सरकारें हस्तक्षेप करती थीं। अब तो सरकारों ने औपचारिकता या दिखावे का हस्तक्षेप भी बंद कर दिया है। वे बिल्कुल बेफिक्र हैं- महंगाई का कहर झेल रही जनता को लेकर भी और जनता को लूट रही बाज़ार की ताक़तों को लेकर भी।

कुछ साल पहले तक महंगाई पर लगाम लगाने के मक़सद से रिजर्व बैंक भी हरकत में आता था और अपने स्तर पर कुछ कदम उठाता था, लेकिन अब महंगाई उसकी चिंता के दायरे में नहीं आती। उसकी स्वायत्तता का अपहरण हो चुका है। अब उसका पूरा ध्यान सरकार के दुलारे शेयर बाज़ार को तंदुरुस्त बनाए रखने और सरकार की गड़बड़ियों को छुपाने में लगा रहता है।

 - Satya Hindi

महंगाई से उदासीन

महंगाई को लेकर सिर्फ सरकार ही नहीं, बल्कि समूची राजनीति उदासीन बनी हुई है। पहले जब महंगाई बढ़ती थी तो उस पर संसद में चर्चा होती थी। विपक्ष सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा करता था। सरकार भी महंगाई को लेकर चिंता जताती थी। वह महंगाई के लिए ज़िम्मेदार बाज़ार के बड़े खिलाड़ियों को डराने या उन्हें निरुत्साहित करने के लिए सख़्त कदम भले ही न उठाती हो, पर सख़्त बयान तो देती ही थी। लेकिन अब तो ऐसा भी कुछ नहीं होता।

यूपीए सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल में महंगाई के सवाल पर 16 मर्तबा संसद में बहस हुई। उससे पहले एनडीए सरकार के 6 वर्ष के कार्यकाल में भी 8 मर्तबा इस सवाल पर संसद में बहस हुई थी।

17वीं लोकसभा के चार सत्र बीत चुके हैं, लेकिन एक भी सत्र में महंगाई पर कोई चर्चा नहीं हुई। विपक्ष की ओर से ओर से किसी ने यह मुद्दा उठाने की कोशिश की भी तो उसे सत्तापक्ष की नारेबाजी और शोरगुल में दबा दिया गया।

विकास का प्रतीक

अब तो सरकार की ओर से महंगाई को विकास का प्रतीक बताया जाता है और इस पर सवाल उठाने वालों को विकास विरोधी क़रार दे दिया जाता है।

पिछले दिनों दिवंगत हुए रामविलास पासवान ने तो खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री की हैसियत से कुछ समय पहले यह सलाह भी दे डाली थी कि अरहर की दाल महंगी है तो लोग खेसारी दाल खाना शुरू कर दें।

सरकार के एक दलाल और कारोबारी योगगुरू ने तो यह भी नसीहत दे डाली थी कि ज़्यादा दाल खाने से मोटापा बढ़ता है।

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उत्पादकों को लाभ नहीं

अगर इस महंगाई का कुछ हिस्सा उत्पादकों तक पहुंच रहा होता या अनाज और सब्जी उगाने वाले किसान मालामाल हो रहे होते, तब भी कोई बात थी। लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा है। इस अस्वाभाविक महंगाई का लाभ तो बिचौलिए और मुनाफ़ाखोर बड़े व्यापारी ही उठा रहे हैं। 

सरकार अगर चाहे तो वह इस समय बढ़ते दामों पर काबू पाने के लिए दो तरह से हस्तक्षेप कर सकती है। पहला तो यह कि अगर बाज़ार के साथ छेड़छाड नहीं करना है तो सरकार खुद ही गेंहू, चावल, दलहन, चीनी आदि वस्तुएं भारी मात्रा में बाज़ार में उतार कर कीमतों को नीचे लाए। ऐसा करने से उसे कोई रोक नहीं सकता, बशर्ते उसमें ऐसा करने की मजबूत इच्छाशक्ति हो।

सरकारी हस्तक्षेप

हस्तक्षेप का दूसरा तरीका यह है कि बाज़ार पर योजनाबद्ध तरीके से अंकुश लगाया जाए। इसके लिए उत्पादन लागत के आधार पर चीजों के दाम तय कर ऐसी सख़्त प्रशासनिक व्यवस्था की जाए कि चीजें उन्हीं दामों पर बिके जो सरकार ने तय किए हैं। लेकिन सरकार ऐसा करेगी नहीं। 

वैसे मीडिया की सर्वव्यापकता और सक्रियता के दौर में किसी भी सरकार के लिए निर्धारित कीमतों पर चीजें बिकवाना कोई मुश्किल काम नहीं है। ऐसा करने का नकारात्मक नतीजा यह हो सकता है कि कुछ दिनों के लिए आवश्यक वस्तुएं बाज़ार से गायब ही हो जाएं। बाज़ार बनाम सरकार का असली मोर्चा यही होगा। 

महंगाई बढ़ेगी

कीमतों का स्वभाव होता है कि एक बार चढने के बाद वे बहुत नीचे नहीं आती। इस बार भी ऐसा ही होने का अंदेशा है। जब कीमतों में बढोतरी रूपी सुनामी की लहरें थम जाएंगी, तब सामान्य स्थिति में भी लोग दोगुनी कीमतों पर आटा, दाल, चावल, चीनी आदि खरीद रहे होंगे। इसलिए अभी अगर सरकार की ओर से कारगर हस्तक्षेप नहीं हुआ तो आने वाले समय पर इस महंगाई की विनाशकारी काली छाया पड़ना तय है। 

यह हस्तक्षेप अकेले केंद्र सरकार नहीं कर सकती। इसमें राज्य सरकारों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। ख़ासतौर पर जमाखोरों, मुनाफ़ाखोरों और कालाबाज़ारियों पर लगाम कसने के मामले में कमान राज्य सरकारों के हाथों में होती है। 

बाज़ार के हवाले

बहरहाल अभी तो सरकारों की ओर कुछ भी होता नहीं दिख रहा है। जाहिर है कि जन सरोकारी व्यवस्था की लगाम सरकार के हाथ से छूट चुकी है, जिसकी वजह से महंगाई का घोड़ा बेकाबू हो सरपट दौड़े जा रहा है।

सब कुछ बाज़ार के हवाले है और बाज़ार की अपने ग्राहक या जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। यह नग्न बाज़ारवाद है, जिसका बेशर्म परीक्षण किया जा रहा है। सवाल यह है कि अगर सब कुछ बाज़ार को ही तय करना है तो फिर सरकार के होने का क्या मतलब है सरकारों को यह याद रखना चाहिए कि हद से ज़्यादा बढ़ी महंगाई कभी-कभी सरकारों को भी मार जाती है।

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